बचपन में पचपन के रोगों की गंभीर चुनौती
हाल के वर्षों में, अब तक वयस्कों में पैदा होने वाले गैर-संक्रामक रोग तेजी से बच्चों व किशोरों को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं। आमतौर पर अभिभावक सोच ही नहीं पाते कि बच्चों को टाइप वन डाइबिटीज, अस्थमा...
हाल के वर्षों में, अब तक वयस्कों में पैदा होने वाले गैर-संक्रामक रोग तेजी से बच्चों व किशोरों को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं। आमतौर पर अभिभावक सोच ही नहीं पाते कि बच्चों को टाइप वन डाइबिटीज, अस्थमा व जन्म से हृदय संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। दूरदराज के इलाकों में जांच व उपचार की सुविधा उपलब्ध नहीं होती। बच्चों-किशोरों में गैर संक्रामक रोग क्यों बढ़ रहे हैं, इसका क्या उपचार है, बता रही हैं दिल्ली स्थित यूनिसेफ की स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अन्नपूर्णा कौल।
हमारी जीवन शैली में बदलाव, खेल-कूद में कमी व खानपान की आदतों में बदलाव से बच्चों में गैर संक्रामक रोग बढ़ने लगे हैं। दो दशक पहले जो गैर संक्रामक रोग, मसलन अस्थमा, हाइपरटेंशन व हृदय संबंधी रोग तीस साल की उम्र में, फिर 20 साल के बाद होते थे, लेकिन अब बच्चों व किशोरों में जीवन के पहले दशक में ये रोग नजर आने लगे हैं।
खानपान की आदतों में बदलाव
संकट का एक पहलू यह है कि बच्चों के पोषण में बदलाव आया है। वे प्रोसेस्ड फूड को पसंद करते हैं, जिसमें ज्यादा मीठा व ज्यादा नमक होता है। निस्संदेह, वातावरण में प्रदूषण भी अधिक बढ़ा है। प्रदूषण से बच्चों के आंतरिक तनाव बढ़ रहे हैं। पहले जीवन शैली की विसंगतियां बड़ों में थी, लेकिन अब तो बच्चों में भी है। यह कहना मुश्किल है कि यह जेनेटिकली बदलाव का नतीजा है। हालांकि, इस दिशा में वैज्ञानिक अनुसंधान बॉडीज पहले से अध्ययन कर रही हैं।
शारीरिक गतिविधि जरूरी
जहां तक यह सवाल है कि बच्चों टाइप वन डाइबिटीज जैनिटिक कारणों से हो सकती है तो इसकी संभावना कम है। हाइपरटेंशन व अस्थमा में ये स्थितियां बन सकती हैं। कहना मुश्किल है कि यदि फैमिली में है तो बच्चों में आएगा ही। ये निश्चित नहीं। वैसे खानपान का असर तो है। हमारा शरीर एक मशीन है। हमें अपने मसल्स को यूज करना चाहिये। पहले बचपन में दौड़ना-भागना खूब होता था। अब बच्चों को सात-आठ घंटे पढ़ाई के साथ और काम भी करने होते हैं। शारीरिक गतिविधि कम हुई है और स्क्रीन टाइम बढ़ा है। बचपन के माइल स्टोन बदल रहे हैं।
सांस के रोग प्रदूषण की देन
निस्संदेह, ग्लोबल वार्मिंग से प्रदूषण बढ़ा है। अस्थमा रोग बढ़ रहा बच्चों में। पहले एलर्जी पांच से छह साल में ठीक हो जाती थी। अब वायु प्रदूषण से ये बढ़ जाती है। पांच से छह साल में रोग ठीक नहीं होता, यह लाइफ लॉन्ग हो जाता है। इसका असर फेफड़ों व अन्य अंगों पर होता है। निस्संदेह, सांस की बीमारी प्रदूषण की देन है। यह प्रदूषण सिर्फ हवा का ही नहीं है, प्रदूषण पानी, प्लास्टिक के प्रयोग से बढ़ा है। जो हमारे शरीर में खानपान व पानी से पहुंच रहा है। ये प्रदूषण हमारे जीन्स व सेल्स को चेंज करता है। हमारा शरीर इन रोगों के प्रति संवेदनशील होता है। फिर इन गैर संक्रामक बीमारियों को बढ़ावा मिलता है।
इस संकट का एक पहलू यह है कि गांव में ही नहीं, शहरों में भी बच्चों की इन बीमारियों का देर से पता चलता है। बच्चों को मधुमेह हो सकता है अभिभावक सोचते भी नहीं है। अभिभावक मान नहीं पाते ऐसे रोग भी हो सकते हैं। यूनिसेफ, डब्ल्यूएचओ, सरकारी हेल्थ सिस्टम व हेल्थ सोसाइटी जागरूकता बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
जांच को लेकर जरूरी जागरूकता
दरअसल, जागरूकता बच्चों,परिवार व कम्युनिटी के स्तर पर लायी जानी चाहिए है। हमारे पास सूचना होनी चाहिए। यदि लक्षण बच्चों में हैं तो जांच कहां की जाए? इसके लिए सिस्टम को मजबूत करना होगा, खासकर गांव में स्वास्थ्य सिस्टम मजबूत करना होगा। अभी सुधार हुआ है लेकिन जिला स्तर पर। हमें ब्लॉक व ग्राम पंचायत स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करना होगा। दरअसल, वहां बच्चों को ट्रीट करने की क्षमता का अभाव है, सूचना की कमी है। दवाइयों की उपलब्धता बढ़ाने की जरूरत है। बच्चों के साथ संवेदनशील व्यवहार जरूरी है। अभी सिस्टम परिपक्व नहीं हुआ है। सिविल सोसाइटी व अभिभावक साथ मिलकर उन्हें स्वास्थ्य केंद्र तक ले जाएं।
शिक्षक की बड़ी भूमिका
स्कूलों में शिक्षक की बड़ी भूमिका हो सकती ताकि मनोवैज्ञानिक कारणों से वे हीन भावना से ग्रसित न हों। आजकल बच्चे 8 से 9 घंटे स्कूल में रहते हैं। टीचर बच्चों को वन टू वन पहचानें। उनकी बड़ी भूमिका हो सकती है। यूनीसेफ के पास स्कूल हेल्थ कार्यक्रम हैं। शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जा रही है। बेसिक लेवल की है। बच्चों के स्वास्थ्य की जांच व पोषण पर बल दिया जा रहा है। सवाल यह है कि उनका कितना अनुपालन हो रहा है। यह भी कि हम किस हद तक टीचर को समझा पा रहे हैं।
शिक्षकों को बच्चों में इन रोगों की पहचान के लिये बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है। उन्हें पता होना चाहिए कि बच्चों में टाइप वन डाइबिटीज के लक्षण क्या होते हैं। बच्चों में पेशाब ज्यादा आता है और उन्हें भूख ज्यादा लगती है। उनका वजन नहीं बढ़ता। वे पढ़ाई में पर्याप्त ध्यान नहीं केंद्रित कर पाते।
लेकिन आमतौर पर टीचर सोचते हैं कि छात्र बहाना बना रहा है। टीचर को पता होना चाहिए कि बच्चे में पैथोलॉजिकल चीजें हो रही है। यूनिसेफ स्कूल में जांच के लिये मोबाइल टीम भेजने के प्रयास करती रही है। सिम्टम बच्चों के बारे बता सकते हैं। इसमें टीचर का बड़ा रोल है। वे अभिभावकों के साथ मिलकर उन्हें अस्पताल ले जाएं। स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।
पारिवारिक संरचना में बदलाव का असर
दरअसल, आज परिवार की संरचना में बदलाव आया है। ज्वाइंट फैमिली के बिखराव से उसमें दादी-नानी नहीं है। दादी-नानी बच्चों के वेल बीइंग का ख्याल रखती थीं। उन्हें ताजा खाना व फल देती थीं। उनके पास समय और अनुभव था। वे उनके साथ खेलती थीं। आज माता-पिता दोनों वर्किंग हैं। बहुत सारे काम हैं उनको। दादी-नानी बच्चों के साथ बाहर टहलती थीं। बच्चों को ट्रेडिशनल विज्डम देते थे। अब अभिभावक उसे स्क्रीन से रिप्लेस कर रहे हैं। बच्चा लगातार बैठा रहता है। वह चिप्स, पास्ता खाता है, जिसे डिलीवरी ब्वॉय आसानी से घर ले आते हैं। वे लगातार बदलाव के कुचक्र के शिकार हैं।
विडंबना है कि हमारे जीवन, खान-पान, खेती में कृत्रिमता आई है। सोच में नकारात्मकता से असर पड़ा है। पहले अभिभावकों में फिर बच्चों पर। पहले ग्रैंड पैरेंट का पॉजिटिव रोल होता था। वे बच्चों को प्रेरक कहानी सुनाते थे। अब बच्चों को उन चीजों का पता नहीं चल पाता। माता-पिता तनाव में हैं उसका बच्चों पर असर आता है। टीचर का भी बहुत हद तक जुड़ाव नहीं हो पाता। अंदरूनी तनाव बढ़ रहा हमारे शरीर में। हमारे अंदर एक निगेटिव चक्र बन रहा है। हमारी कोशिकाएं सब सुनती हैं। तनाव व नकारात्मक विचार असर डालते हैं।
दरअसल, प्रजनन के दौरान लापरवाही भी घातक प्रभाव डालती है। हम मानते हैं कि गर्भवाती मां के खान-पान का विशेष ध्यान रखना जरूरी है। रेस्ट पूरा मिलना चाहिए गर्भवती स्त्री को। अभिमन्यु ने मां के गर्भ में सब सुना था। बच्चा मां की बात पूरी सुनता है। निस्संदेह, हेल्दी मां से हेल्दी संतान होती है। सकारात्मक व्यवहार जरूरी है। फैमिली प्लानिंग का मतलब बच्चे का बेहतर मानसिक व शारीरिक विकास हो ताकि कालांतर वो अच्छा नागरिक बन सके।

