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शारीरिक,मानसिक स्वास्थ्य में संतुलन का विज्ञान

आयुर्वेद दिवस : 23 सितंबर
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मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्वस्थ रखने की राह दिखाने वाला विज्ञान आयुर्वेद है। उपचार और जीवनशैली सुधार के जरिये यह जीवन के सभी पहलुओं के संतुलन पर केंद्रित है। इसमें त्रिदोष समाधान का महत्व है। औषधियां सुरक्षित,प्रभावी मानी जाती हैं हालांकि गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु सक्रिय घटकों की पहचान, शुद्धता परीक्षण और फार्माकोलॉजिकल मूल्यांकन जरूरी है।

आयुर्वेद केवल रोगों के उपचार की पद्धति नहीं है, अपितु यह जीवन, स्वास्थ्य और संतुलन का एक समग्र विज्ञान है। यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्वस्थ रखने का मार्ग दिखाता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में आयुर्वेद का ज्ञान बीज रूप में उपलब्ध है। जबकि चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और वाग्भट का अष्टांगहृदय इसके प्रमुख ग्रंथ हैं। आयुर्वेद का मूल उद्देश्य जीवन की गुणवत्ता, स्वास्थ्य और दीर्घायु को सुनिश्चित करना है। उपचार और जीवनशैली सुधार के लिए यह व्यक्ति-केंद्रित चिकित्सा को महत्व देता है।

त्रिदोष और त्रिगुण की भूमिका

आयुर्वेद में प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति जन्म से निर्धारित होती है, जो त्रिदोष वात, पित्त और कफ के अनुपात पर आधारित होती है। यह प्रकृति व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और रोग-संवेदनशीलता की मूलभूत विशेषताओं को निर्धारित करती है। संतुलित दोष स्वास्थ्य को बनाए रखते हैं, जबकि असंतुलन रोग उत्पन्न करता है। इसी प्रकार त्रिगुण सत्व, रज और तम मानसिक प्रवृत्ति को नियंत्रित करते हैं।

 

सम्पूर्ण जीवन की ओर आयुर्वेद

आयुर्वेदिक दृष्टिकोण में स्वास्थ्य का मूल्य केवल शारीरिक स्थिति तक सीमित नहीं है। सुखी जीवन का अर्थ है शरीर और मन का संतुलन, इंद्रियों का सम्यक् कार्य, उत्साह, तेज और आत्मबल से युक्त पूर्ण व्यक्तित्व, समाज में सम्मान और उत्तरदायित्व का निर्वाह। इसके विपरीत दुखी जीवन रोग, मानसिक असंतुलन और सामाजिक अस्थिरता से ग्रस्त माना गया है। आयुर्वेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय का मार्गदर्शक भी है। धर्म नैतिक और सामाजिक मूल्यों की शिक्षा देता है, अर्थ आर्थिक समृद्धि का आधार है, काम जीवन की इच्छाओं और संतोष का मार्ग है तथा मोक्ष आत्मशांति और पूर्णता की दिशा दिखाता है। इस प्रकार आयुर्वेद जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने वाला विज्ञान है।

औषधियां और वैज्ञानिक मान्यता

आयुर्वेदिक औषधियां केवल चिकित्सीय पदार्थों पर आधारित नहीं होतीं, अपितु उनका उद्देश्य स्वास्थ्य का संरक्षण और जीवन-शक्ति का पोषण भी है। अरिष्ट, आसव, अवलेह, चूर्ण, तैल, घृत और क्वाथ जैसी औषधियां सुरक्षित और प्रभावी मानी जाती हैं। आज के युग में इनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु सक्रिय घटकों की पहचान, शुद्धता और स्थिरता परीक्षण, क्रोमैटोग्राफिक फिंगरप्रिंटिंग और फार्माकोलॉजिकल मूल्यांकन आवश्यक हैं। यह प्रक्रियाएं औषधियों की प्रामाणिकता और चिकित्सीय प्रभावकारिता को विश्व स्तर पर मान्यता दिलाने में सहायक हैं।

आयुर्वेद की व्यावहारिक विशेषताएं

चरक ने कहा है कि हितकर आहार करने वाला और इंद्रियों पर संयम रखने वाला व्यक्ति छत्तीस हजार रात्रियां अर्थात सौ वर्ष जीवित रहता है। जिस समय प्रयोगशाला परीक्षण जैसे शब्द का अस्तित्व भी नहीं था, उस समय आचार्यों ने रक्ताल्पता के लिए लौह योग का निर्देश दिया और बताया कि रक्तवर्धन में लौह से श्रेष्ठ कोई द्रव्य नहीं है। डायबिटीज का निदान बिना प्रयोगशाला के किया गया और उसके लिए औषधियां बताई गईं। बुखार में गर्म पानी, उदर रोग में ऊंटनी का दूध, यक्ष्मा में बकरी का दूध और नींद लाने में भैंस का दूध का प्रयोग - ऐसे निर्देश आयुर्वेद की अद्वितीय व्यावहारिकता दर्शाते हैं। तेल, घी और जल से बनी सब्जियां हितकर हैं, किंतु पुनः गर्म करने पर विष के समान प्रभावकारी हो जाती हैं। त्रिफला सुबह जल के साथ लेने पर मोटापा घटाता है और रात को शहद के साथ लेने पर नेत्रों के लिए लाभकारी होता है। यह औषधियों की बहुप्रभाविता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

 

आपातकालीन चिकित्सा और विशिष्ट ज्ञान

विष का प्रभाव ऐसा है जैसे जलता हुआ घर, जिसे तुरंत बचाने का प्रयास करना चाहिए। यानी उसी तरह विष की चिकित्सा के प्रति प्रयत्नशील रहना चाहिए। जैसे कमलपत्र पर जल नहीं ठहरता उसी तरह स्वर्ण सेवन करने वाले पर विष का प्रभाव नहीं ठहरता। आत्ययिक रोग (अचानक आया गंभीर रोग) जैसे हिक्का और श्वास रोग विष की भांति तुरंत फैलते हैं। गर्भावस्था में सावधानी का निर्देश समझाने के लिए कहा है कि जैसे किसी को तेल से भरे पात्र को बिना हिलाए ले कर जाना होता है उसी तरह गर्भवती की देखभाल करनी चाहिए।

आयुर्वेद और नीम हकीम

ग्रंथों में नीम हकीम के खतरे को स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि अकुशल शासन के कारण ही नीम हकीम पनपते हैं। इस प्रकार की प्रक्रिया को तांबे का विष पीने से भी अधिक घातक बताया गया है। यह भी कहा गया है कि इन्द्र के वज्र गिरने से कोई बच सकता है लेकिन नीम हकीम से चिकित्सा कराने वाला व्यक्ति नहीं बचता।

काल और आहार का महत्व

आयुर्वेद ने नया अनाज रोगकारक बताया है। एक वर्ष पुराना धान्य हितकारी है, जबकि दो वर्ष से अधिक पुराना शक्तिहीन हो जाता है। गुड़ पुराना होने पर बवासीर में लाभकारी है और पुराना घी मानसिक रोगों का नाश करता है। भोजन से पहले घी का सेवन पत्थरी रोग में लाभ पहुंचाता है जबकि श्वास, कास , सिरदर्द व राजयक्ष्मा में भोजन के बाद घी का पान करने का निर्देश है।

अविचल सिद्धांत

आयुर्वेद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सिद्धांत कभी बदलते नहीं। च्यवनप्राश पहले भी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता था, आज भी बढ़ाता है और भविष्य में भी बढ़ाएगा। आंवला और हल्दी का मिश्रण डायबिटीज में लाभकारी था, है और रहेगा। रात्रि में दही का सेवन पहले भी निषिद्ध था और आज भी है।

निद्रा और मानसिक स्वास्थ्य

आयुर्वेद ने निद्रा को जीवन का मूल आधार माना है। सुख-दुःख, पुष्टता-कृशता, बल-अबल, ज्ञान-अज्ञान, यहां तक कि जीवन और मृत्यु भी निद्रा पर ही निर्भर हैं। यदि निद्रा का सेवन असमय, अनुचित मात्रा में या अत्यधिक किया जाए अथवा बिल्कुल न किया जाए, तो यह सुखी जीवन का नाश कर देती है और मृत्यु के समान घातक सिद्ध होती है। इसके विपरीत, समयानुकूल, संतुलित और नियमित निद्रा शरीर और मन दोनों को सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु बनाती है। यह बल, प्रजनन-शक्ति, स्मरण-शक्ति और जीवन-ऊर्जा की जननी है। आयुर्वेद केवल औषधियों और उपचारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन की समग्र दृष्टि है। आयुर्वेद दिवस पर हमें यह स्मरण करना चाहिए कि यह परंपरा केवल अतीत की धरोहर नहीं है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी मार्गदर्शक है। वैज्ञानिक प्रमाणीकरण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से यह संपूर्ण मानवता के लिए स्थायी और प्रभावी स्वास्थ्य समाधान प्रस्तुत कर सकता है।

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