बीते दिनों की बात हुई परिवार की मौजूदगी
फिल्म जगत में ज्यादातर ऐसी फिल्में हैं जिनका ताना-बाना परिवार को लेकर रचा गया। वे पसंद भी खूब की गयी। लेकिन आजकल भरे-पूरे परिवार वाली फिल्में कम हो रही हैं। हालांकि आज भी कई निर्माता दावा करते हैं कि उनकी फिल्में पारिवारिक होती हैं। पर इस कोशिश में वे सस्ता रोमांस और एक्शन परोसते हैं।
एक अरसे से हमारी फिल्मों में परिवार बिल्कुल देखने को नहीं मिल रहा है। यहां परिवार का मतलब है एक भरा-पूरा परिवार, जिसमें माता-पिता के साथ ही भाई-बहन और दूसरे कई रिश्तेदार होते हैं। ऐसी ढेरों फिल्में हैं, जिनमें बड़ा संयुक्त परिवार साथ रहते हुए दिखाया गया। इसका उदाहरण आप बिमल रॉय की फिल्म ‘परिवार’ में देख सकते हैं, जिसमें पांच भाइयों के स्नेह संबंधों को खूबसूरती से पेश किया गया था। मगर वक्त के साथ हिंदी फिल्मों में परिवार कहीं खो गया है।
लेकिन ऐसा क्यों हुआ?
कुछ साल पहले तक की फिल्मों को देखें, तो ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’, ‘बाहुबली’, ‘पुष्पा 1 और 2’, ‘बधाई हो’ व ‘सिंबा’ ऐसी हिट फिल्में हैं, जिनमें परिवार मौजूद है। ‘सोनू के टीटू ..’ को परिवार की मिसाल माना जा सकता है। इसके निर्देशक लव रंजन कहते हैं, ‘सुख-दुख और प्रॉब्लम परिवार के साथ होती ही हैं। मैं इन्हीं बातों को अपनी फिल्मों के साथ जोड़ना चाहता हूं। हीरो-हीरोइन हैं, तो उनका परिवार भी होगा ही। मैं इन्हें भी अपनी फिल्मों में टारगेट करता हूं।’
दावे का खोखलापन
ज्यादातर निर्माता दावा करते हैं कि उनकी फिल्में पारिवारिक होती हैं। ऐसी फिल्मों के नाम पर सस्ता रोमांस और बेवजह का एक्शन परोसकर वे अपनी बात साबित करने की कोशिश करते हैं। पर ऐसा होता नहीं है। असल में दावा पेश करते समय वे परिवार का मतलब भूल ही जाते हैं। जबकि जिस भी फिल्म में परिवार मौजूद होता है, उसका दर्शक वर्ग ज्यादा होता है।
अक्षय का योगदान
पारिवारिक फिल्मों के प्रति अक्षय का यकीन रहा है। यहां तक कि एक बोल्ड सब्जेक्ट पर बनी फिल्म ‘पैडमैन’ की पृष्ठभूमि में परिवार की मौजूदगी है। फिल्म ‘सौगंध’ से लेकर ‘रक्षाबंधन’, फिर ‘ओ माई गॉड’ और ऐसी कई फिल्में हैं, जिनमें परिवार के साथ उनकी ट्यूनिंग जबरदस्त दिखाई पड़ती है। कई फिल्मों में उन्हें पारिवारिक व्यक्ति दिखाया। मसलन, ‘टॉयलेट : एक प्रेम कथा’ में।
कहां खो गई पारिवारिक फिल्में
साठ से अस्सी के दशक तक पारिवारिक फिल्मों का एक दर्शनीय दौर था। मीना कुमारी, वैजयंतीमाला ही नहीं, नूतन, माला सिन्हा, साधना, वहीदा रहमान आदि दिग्गज हीरोइनें रिश्तों के कई पेचीदा क्षणों को सार्थक ढंग से पेश करती थीं। उस दौर में एवीएम, प्रसाद प्रोडक्शन, जैमिनी, राजश्री जैसे बड़े बैनर पारिवारिक फिल्मों के लिए मशहूर थे। इनमें सिर्फ एक बैनर राजश्री ही आज सक्रिय है जिसने इस परंपरा को जीवित रखा है। पिछले दिनों उसकी पारिवारिक वेब सीरीज़ ‘बड़ा नाम करेगा’ से दर्शक रूबरू हुए।
‘दंगल’ के पिता आमिर
आमिर भी उन चंद अभिनेताओं में से एक हैं, जिनकी फिल्मों में परिवार जरूर रहता है। उनकी बड़ी हिट फिल्म ‘दंगल’ की पृष्ठभूमि में भले रेसलिंग हो, पर परिवार फिल्म के हर फ्रेम में है। यदि महावीर सिंह फोगाट अपनी बेटियों को कुश्ती में चैंपियन बनाने के लिए दृढ़ हैं, तो उनका परिवार उनका समर्थन कर रहा है। इस फिल्म के निर्देशक नितेश तिवारी कहते हैं, ‘फिल्म में फैमिली का होना जरूरी है। इससे सब्जेक्ट को सहज विस्तार मिलता है व फैमिली ऑडियंस का अतिरिक्त सपोर्ट भी।’
‘मेरे पास मां है’
‘दीवार’ के इस चर्चित डायलॉग को भला सिने-रसिक कैसे भूल सकते हैं। फिल्म के दोनों मुख्य किरदारों- विजय और रवि- का अपनी मां के प्रति लगाव दर्शकों को इमोशनल कर देता है। ‘मेरे पास मां है... ’ जैसे संवाद से ही आप समझ सकते हैं कि यह फिल्म मां के किरदार को किस खूबसूरती से पेश करती है।
पारिवारिक बड़जात्या
पारिवारिक फिल्मों के जनक के तौर पर राजश्री के ताराचंद बड़जात्या का नाम आना लाजिमी है। उन्होंने फैमिली को मूलमंत्र की तरह इस्तेमाल किया। उनकी फिल्मों के सब्जेक्ट में परिवार आ ही जाता था जैसे उनकी फिल्म ‘नदिया के पार’ में। कई सालों बाद, राजश्री के नई पीढ़ी के निर्देशक सूरज बड़जात्या ने इस कहानी का शहरीकरण कर दिया। ‘हम आपके हैं कौन’ के रूप में इसने ‘नदिया के पार’ की सफलता को भी पछाड़ दिया।
इसी तरह कालजयी फिल्म ‘शोले’ की ही बात करें तो एक तरफ जहां वीरू और जय भी घर बसाने का सपना देख रहे हैं, वहीं ठाकुर इसलिए उन्हें मुंहमांगी कीमत पर लाता है कि वे उसके बच्चों की हत्या का बदला गब्बर सिंह से लें। यानी दोनों तरफ परिवार पूरे वजूद के साथ मौजूद है।