साेशल मीडिया का प्रेत!
नयी पीढ़ी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय रहती है। उसकी सोच भी वहीं से गढ़ी जाती है जिसके मुताबिक युवा पोस्ट कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं, और राजनीति-शासन के मुद्दे उठा रहे हैं। ये मंच अलग-अलग संस्थाओं से नियंत्रित हैं। पहले अरब स्प्रिंग के विद्रोह हुए। हाल के सालों में श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल के प्रोटेस्ट युवाओं की प्लेटफॉर्म्स पर सक्रियता से उपजे हैं जिनमें प्रमुख पॉडकास्ट, इंस्टाग्राम, रेडिट, टिकटॉक, एक्स और फ़ेसबुक है। लेकिन ऑनलाइन पोस्ट की गई हर चीज़ विश्वसनीय नहीं होती। दरअसल जटिल मुद्दों पर बने भ्रमजाल से यूजर प्रभावित होते हैं। इस सोच का रिएक्शन बदलाव तो ला सकता है लेकिन आने वाली नयी व्यवस्था की राह नहीं बताता।
जेनरेशन-ज़ेड पीढ़ी एक साथ दो नेपालों में जी रही है। एक पिछली पीढ़ियों का नेपाल है : सुबह अखबार/रेडियो, दोपहर में फेसबुक स्क्रॉल, और शाम को समाचार प्रसारण सुनने वाला। दूसरी तरफ, नया नेपाल है : इंस्टाग्राम और फेसबुक पर रील्स, टिकटॉक क्लिप्स, ट्विटर और रेडिट थ्रेड्स के लिए डूमस्क्रॉलिंग, जहां आज की जेन-ज़ेड पीढ़ी बहस करती है। हंसती है। आलोचना करती है। असहमति पर ‘बॉल्स टू यू’ बोलकर आगे बढ़ जाती है।
Advertisementपीढ़ियों में संवादहीनता के नुकसान
दोनों की दुनिया मुखर और भावुक है, लेकिन वे शायद ही कभी एक-दूसरे से बात करते हैं। यह अंतर हानिरहित दिखता है, फिर भी यह लोकतंत्र के सामने सबसे बड़े खतरों में से एक है। यह खतरा पूर्वी-पश्चिमी एशियाई देशों से लेकर भारत तक मंडरा रहा है। दशकों तक, नेपाल में पुरानी पीढ़ियों ने राजनीतिक बदलाव को आकार दिया। वे ‘नरेश निर्माता’ थे, न केवल अपने वोट के कारण, बल्कि इसलिए भी, कि उन्हें समसामयिक घटनाओं की जानकारी थी। वे अखबार पढ़ते थे, रेडियो सुनते थे, और राजनीतिक समाचारों पर बारीकी से नज़र रखते थे। मुख्यधारा के मीडिया ने उन्हें संदर्भ, गहराई, और सिंह दरबार में जो कुछ हो रहा था, उसकी एक साझा समझ दी।
अब, कहानी अलग है। नई पीढ़ी राजनीतिक रूप से जागरूक है। ‘हम चुप नहीं हैं, उदासीन नहीं हैं।’ आज के युवा पोस्ट कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं, और ऐसे सवाल पूछ रहे हैं, जिन्हें पहले राजनीतिक रूप से वर्जित माना जाता था। लेकिन, यह बातचीत ज़्यादातर पॉडकास्ट, इंस्टाग्राम, रेडिट, टिकटॉक, एक्स और फ़ेसबुक तक ही सीमित है। ये सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म बुज़ुर्ग नेपालियों के एक बड़े समूह के बीच लोकप्रिय विकल्प नहीं हैं। इसका मतलब है, कि जोश और विचारों से भरी जेनरेशन ज़ेड की आवाज़ें अक्सर छोटे ऑनलाइन सर्कल में घूमती हैं, लेकिन शायद ही कभी पूरे देश तक पहुंच पाती हैं। इसलिए, इस पीढ़ी की आवाज़ को ग़लत समझा जाता है।
यह अंतर सिर्फ़ प्लेटफ़ॉर्म का ही नहीं है। यह पहुंच और डिजिटल साक्षरता का भी है। पुरानी और बीच की पीढ़ी डिजिटली अर्धसाक्षर है। इससे दो विभाजन पैदा होते हैं: एक तो पहुंच का विभाजन, जहां सभी समान रूप से भाग नहीं ले सकते, और दूसरा पीढ़ीगत विभाजन, जहां पहुंच होने के बावजूद, वृद्ध लोग डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म की गति, और विविधता के साथ तालमेल बिठाने के लिए संघर्ष करते हैं। डिजिटल विभाजन के अलावा, भाषा की एक बाधा बनी हुई है। सभी अंग्रेजी फर्राटेदार नहीं बोलते। ‘ओ फ...’ बोलना-सुनना, गुनाहे अज़ीम है पुरानी पीढ़ी के लिए।
ऑनलाइन पोस्ट के भरोसे का संकट
ऑनलाइन पोस्ट की गई हर चीज़ विश्वसनीय नहीं होती। जटिल मुद्दों को अक्सर आकर्षक शीर्षकों या मीम्स में बदल दिया जाता है, और अक्सर उन्हें गलत समझा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि जो वायरल होता है, वह हमेशा सबसे महत्वपूर्ण नहीं होता। अगर हम केवल सोशल मीडिया पर निर्भर रहते हैं, तो हम गति के लिए गहराई, और विचारों के लिए तथ्यों का जोखिम उठाते हैं।
विरोध भड़काने से बाद की राह धुंधली
ईमानदारी से कहें तो, सोशल मीडिया एक दोधारी तलवार है। इस डिज़ीटल तलवार का भांजना पंद्रह साल पहले, ‘अरब स्प्रिंग’ से शुरू हुआ था। ट्यूनीशिया की 2011 की जैस्मिन क्रांति ने राष्ट्रपति बेन अली को अपदस्थ कर दिया, लेकिन एक सुसंगत वैचारिक ढांचे का अभाव था, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रपति कैस सईद के नेतृत्व में लोकतांत्रिक पतन हुआ। इसी प्रकार, मिस्र का 2011 का तहरीर चौक विद्रोह, अपनी प्रारंभिक सफलता के बावजूद, धर्मनिरपेक्षतावादियों, इस्लामवादियों और क्रांतिकारियों के बीच वैचारिक विखंडन के परिणामस्वरूप सैन्य पुनरभिपुष्टि (सैन्य मजबूती) हुई ।
छात्रों के विरोध प्रदर्शन के एक साल बाद, बांग्लादेश अभी भी वादा किए गए चुनावों का इंतज़ार कर रहा है। श्रीलंका में ‘अरागालय’ को एक संज्ञा के रूप में नहीं - एक पूर्ण घटना के रूप में नहीं - बल्कि एक क्रिया के रूप में - एक सतत संघर्ष के रूप में, माना जाना था। लेकिन सत्ता-विरोधी वादों पर सत्ता में आया गठबंधन उन्हीं ताकतों के साथ समझौते कर रहा है, जिनका कभी उसने विरोध किया था। अंततः राजनीति का मतलब यह नहीं है कि क्या कारगर है, या कौन शासन करेगा? इसी सवाल से वाबस्ता है, फिलीपींस। यदि राष्ट्रपति मार्कोस जूनियर को हटाया, तो किसके हाथों आ जाएगी सत्ता? फिलीपींस में जूनियर मार्कोस को सत्ता से हटते ही, उपराष्ट्रपति सारा डुटर्टे कुर्सी न सम्हाल लें, जो पूर्व राष्ट्रपति रोड्रिगो डुटर्टे की बेटी हैं। डुटर्टे ने ड्रग्स के खिलाफ युद्ध चलाया, जिसके कारण हजारों मौतें हुईं। वो हेग स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की हिरासत में हैं।
ठीक से देखा जाये, तो फिलीपींस में लोगों का ग़ुस्सा नेपाल जितना व्यापक और भयावह नहीं है। मनीला पुलिस डिस्ट्रिक्ट (एमपीडी) के अनुसार, रविवार को भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों के दौरान मनीला में भड़के दंगे में शामिल 200 से ज़्यादा लोग अब पुलिस हिरासत में हैं। गिरफ्तार किए गए 212 लोगों में से 89 नाबालिग हैं, जिनमें से 24 की उम्र 12 साल या उससे कम है। लेकिन क्या, ये लोग सत्ता की कमान संभालेंगे? लोगों की प्रतिक्रिया इतनी त्वरित होती है कि साउंड और लाईट के सारे नियम ध्वस्त हो जाएं। लेह में प्रदर्शनकारियों ने बीजेपी कार्यालय को आग लगा दी, नेपाल से तुलना करने में लोगों ने सेकेंड की भी देर नहीं की।
बिखरा नियंत्रण
नेपाल में जब जेन-जी आंदोलन शुरू हुआ, कुछ लोगों ने सीआईए पर संदेह व्यक्त किया, कि यह सारा कुछ उसी का किया-धरा है। लेकिन ठीक से देखा जाये, तो दुनिया भर में सोशल मीडिया पर किसी एक संस्था का नियंत्रण नहीं है; नियंत्रण मेटा प्लेटफ़ॉर्म्स (फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम) और अल्फाबेट इंक. (गूगल/यूट्यूब) जैसी बड़ी निजी कंपनियों और राष्ट्रीय सरकारों के बीच बंटा हुआ है, जो सामग्री को सेंसर कर सकती हैं, और विनियमन एवं कानून प्रवर्तन के माध्यम से प्लेटफ़ॉर्म्स को प्रभावित कर सकती हैं। जहां निजी कंपनियां अपने प्लेटफ़ॉर्म्स पर सामग्री को नियंत्रित करती हैं, वहीं उनकी शक्ति को सरकारी कार्रवाइयों और यूनेस्को जैसे अंतर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा भी चुनौती दी जाती है, जिनका उद्देश्य अधिक जवाबदेही और मानवाधिकार सिद्धांतों को स्थापित करना है।
सरकारी रेगुलेशन
सरकारें सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को विनियमित करने के लिए नीतियां लागू कर सकती हैं, जो भारत में कभी-कभार दिखती हैं। सरकारें प्लेटफ़ॉर्म्स तक पहुंच को अवरुद्ध कर सकती हैं, या कभी-कभी कंपनियों को अपने नागरिकों के लिए सामग्री तक पहुंच प्रतिबंधित करने के लिए बाध्य कर सकती हैं। लेकिन यह भी है, कि कई देशों में सत्ता पक्ष सोशल मीडिया पर एक्टिव ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल अपने हितों को साधने के लिए करता है। पीडब्ल्यू रिसर्च का मानना है कि साल 2024 में भारत में ही लगभग 24 करोड़ फ़र्जी अकाउंट्स सोशल मीडिया पर एक्टिव थे।
गलत सूचनाओं के जोखिम
सर्वेक्षण के अनुसार, फ़र्ज़ी अकाउंट्स संयुक्त राज्य अमेरिका और दक्षिण कोरिया में भी सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। सर्वेक्षण में शामिल 25 देशों में से 24 में, अधिकांश लोग गलत सूचनाओं को अपने देश के लिए एक बहुत बड़ा खतरा मानते हैं। सर्वेक्षण में पाया गया है कि, उम्र भी लोगों की फ़र्ज़ी ख़बरों के प्रति धारणा को प्रभावित कर सकती है। अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, केन्या, पोलैंड, स्वीडन और अमेरिका में, युवा लोगों की तुलना में वृद्ध लोग आमतौर पर ऑनलाइन झूठी सूचनाओं को एक बड़ा ख़तरा मानने की ज़्यादा संभावना रखते हैं। जैसे-जैसे तकनीक हमारे रोज़मर्रा के जीवन में और ज़्यादा एकीकृत होती जा रही है, संचार के एक माध्यम के रूप में सोशल मीडिया पर लोगों की निर्भरता भी काफ़ी बढ़ गई है।
लीबिया में मोबाइल उपकरणों से लेकर वर्जीनिया में स्थानीय सैटेलाइट इंटरनेट सेवा तक, दुनिया को बदलने वाली घटनाएं तुरंत दुनिया भर में वेब पर फैल जाती हैं। दुनिया भर में क्या हो रहा है या क्या ट्रेंड कर रहा है, यह जानने के लिए आपको बस यह देखना होगा कि सोशल मीडिया पर क्या लोकप्रिय है। ट्विटर जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर एक ‘ट्रेंड्स’ कॉलम होता है जहां सबसे ज़्यादा चर्चित विषयों को वाक्यांशों या हैशटैग के रूप में एक साथ रखा जाता है। नतीजतन, ट्विटर और मोबाइल उपकरण जैसे उपकरण सूचना के प्रसार और एक क्रांति को गति देने में बेहद अहम रहे हैं।
ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिका
यह नहीं कह सकते, कि दुनिया की नामी-गिरामी ख़ुफ़िया एजेंसियां अपने हितों को साधने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग नहीं कर रहीं। सीआईए मंदारिन, फ़ारसी और कोरियाई जैसी भाषाओं में वीडियो बनाती और पोस्ट करती है, जिसका उद्देश्य चीन, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देशों में निराश व्यक्तियों को आकर्षित करना है। ये वीडियो डार्क वेब और टोर नेटवर्क का उपयोग करके, अक्सर विश्वसनीय, अप्राप्य उपकरणों के माध्यम से, एजेंसी से संपर्क करने के सुरक्षित, एन्क्रिप्टेड निर्देश प्रदान करते हैं। जब सीआईए 2014 में ट्विटर से जुड़ी, तो एजेंसी के पहले ट्वीट ने यह संकेत दिया : ‘हम न तो इसकी पुष्टि कर सकते हैं और न ही इनकार कर सकते हैं कि यह हमारा पहला ट्वीट है।’ अप्रैल 2021 में MI5 ने जब इंस्टाग्राम ज्वाइन किया, तो इस ब्रिटिश जासूसी एजेंसी के प्रशंसक, और उसके फ़ॉलोअर्स हिल गए, लेकिन पूरी तरह से नहीं। MI5 के लॉन्च के कुछ ही दिनों के भीतर उसे ट्रैक करने वाले 1,00,000 इंस्टाग्रामर्स में से एक ने पूछा, ‘खुद आपका पीछा किया जाना कैसा लगता है?’ पारदर्शिता एक दोधारी तलवार है। जहां जासूसी एजेंसियां नागरिकों की जासूसी करने के लिए ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और कई अन्य प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करती हैं, वहीं पेशेवर ‘वॉचर्स’ पर अब कड़ी नज़र रखी जा रही है। मोसाद का फेसबुक पेज ड्रोन, हैकिंग और इलेक्ट्रॉनिक लॉक-पिकर से चकित करता है। लेकिन, एक महिला ‘जासूस’ का वीडियो, जो बिल्ट-इन फेशियल रिकग्निशन वाले कॉन्टैक्ट लेंस पहनती है, चर्चा का विषय बना हुआ है। ईरान में मोसाद द्वारा घुसपैठ की आशंकाएं बढ़ रही हैं। ईरानी शासन ने देश भर में कई लोगों को कथित तौर पर ‘ज़ायोनी शासन के समर्थन में’ ऑनलाइन लेख साझा करने के आरोप में गिरफ़्तार किया है। जिनमें इस्फ़हान के 60 लोग भी शामिल हैं, जहां इस्राइल का दावा है कि उसने एक परमाणु स्थल को निशाना बनाया था। फ़ार्स न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, ‘गिरफ़्तारियों की यह लहर ऐसे समय में आई है जब तेहरान इस खुलासे से स्तब्ध है कि मोसाद के गुर्गों ने इस्राइल के अभूतपूर्व हमले से पहले ईरान में हथियारों की तस्करी की थी और उनका इस्तेमाल देश के भीतर से ही निशाना बनाने के लिए किया था।’ ईरानी सूचना मंत्रालय के एक बयान में लोगों से मास्क या चश्मा पहने, पिकअप ट्रक चलाते और बड़े बैग लिए हुए या सैन्य, औद्योगिक या आवासीय क्षेत्रों में वीडियो बनाने वाले अजनबियों से सावधान रहने का आग्रह किया गया है। ईरान के नूर न्यूज़ द्वारा प्रकाशित एक पोस्टर में उन लोगों को संदिग्ध बताया गया है जो ‘रात में भी मास्क, टोपी और धूप का चश्मा पहनते हैं’ और जिन्हें ‘कूरियर से बार-बार पैकेज मिलते हैं।’ ईरान की न्यायपालिका के प्रमुख ग़ुलाम-हुसैन मोहसेनी-एजेई ने इस्राइल के साथ सहयोग करने के आरोपियों को ‘शीघ्र’ सज़ा देने का संकल्प किया है। यानी, ईरान में कोर्ट भी सत्ता पक्ष का हामीदार हो गया है।
सवाल जॉर्ज सोरोस के जनमत को प्रभावित करने का
95 वर्षीय यहूदी खरबपति जॉर्ज सोरोस ने 1979 में स्थापित अपनी ‘ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन’ के माध्यम से, लोकतांत्रिक, आव्रजन और आपराधिक न्याय सुधार जैसे विभिन्न मुद्दों का समर्थन करते हुए, दुनिया भर में धन लगाया है। साल 2023 में सोरोस ने ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन की बागडोर अपने बेटे अलेक्जेंडर को सौंप दी, जिन्होंने हाल ही में हुमा आबेदीन से शादी की है, जो हिलेरी क्लिंटन की लंबे समय से शीर्ष सहयोगी रही हैं, और खुद कई षड्यंत्र सिद्धांतों का विषय रही हैं। जॉर्ज सोरोस के धन का बड़ा हिस्सा ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन के माध्यम से बांटा जाता है। संगठन के अनुसार, अबतक विभिन्न उद्देश्यों के लिए दुनियाभर में ‘32 बिलियन डॉलर से अधिक’ धन विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों को दिया है।
दबंग सरकारों के विरोध के साथ, सोरोस मलेशिया से लेकर अपने जन्म देश हंगरी तक षड्यंत्र सिद्धांतों का निशाना बन गए हैं। सोरोस ने बार-बार राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प का गुस्सा मोल लिया है, जिन्होंने उन पर बिना किसी सबूत के, 2020 की गर्मियों में ब्लैक लाइव्स मैटर्स के प्रदर्शनकारियों से लेकर 2023 में न्यूयॉर्क में ट्रम्प पर लगे अभियोग तक, हर चीज़ के लिए धन मुहैया कराने का आरोप लगाया है। 2020 की पुस्तक ‘द इन्फ्लुएंस ऑफ सोरोस : पॉलिटिक्स, पावर, एंड द स्ट्रगल फॉर एन ओपन सोसाइटी’ की लेखिका एमिली टैमकिन ने दावा किया कि सोरोस दुनिया में कई दक्षिणपंथी सरकारों को अस्थिर करने में कामयाब हुए हैं। वर्जीनिया स्थित एमआरसी, (मीडिया रिसर्च सेंटर) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ‘2016 और 2020 के बीच, सोरोस ने कम से कम 131 मिलियन अमेरिकी डॉलर अकेले 253 मीडिया समूहों, जैसे कि कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे), एस्पेन इंस्टीट्यूट, द मार्शल प्रोजेक्ट और प्रोपब्लिका, को प्रभावित करने के लिए दिये ‘ सीएनएन की क्रिस्टीन अमनपोर, सेंटर फॉर पब्लिक इंटीग्रिटी के बोर्ड में बैठती हैं, जो सोरोस द्वारा वित्तपोषित एक गैर-लाभकारी खोजी पत्रकारिता समूह है, जिस पर आलोचकों का आरोप है कि यह मुख्य रूप से रिपब्लिकन धन उगाहने वालों को निशाना बनाता है।
एनबीसी के लेस्टर होल्ट, वाशिंगटन पोस्ट की सैली बुज़बी, एसोसिएटेड प्रेस की कार्यकारी संपादक जूली पेस और रॉयटर्स की प्रधान संपादक एलेसेंड्रा गैलोनी, सभी पत्रकारों की सुरक्षा समिति के बोर्ड में शामिल हैं। यह सोरोस द्वारा वित्त पोषित एक संगठन है, जिसका उद्देश्य पत्रकारों के अधिकारों की तथाकथित रूप से रक्षा करना है। सीबीएस की मार्गरेट ब्रेनन और सीएनएन के फ़रीद ज़कारिया, बेहद प्रभावशाली काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के बोर्ड में कार्यरत हैं, जो सोरोस समर्थित एक थिंक टैंक है और अमेरिकी विदेश नीति में विशेषज्ञता रखता है।
जॉर्ज सोरोस ने सोशल मीडिया कंपनियों की तुलना कैसीनो से की है। ऑपिनियन वेबसाइट प्रोजेक्ट सिंडिकेट पर लिखते हुए, सोरोस ने फेसबुक और गूगल का ज़िक्र किया और कहा कि हालांकि उन्होंने अक्सर ‘नवीन और मुक्तिदायक भूमिका’ निभाई है, लेकिन जैसे-जैसे वे ज़्यादा शक्तिशाली होते गए, वे ‘नवाचार में बाधा’ बन गए। सोरोस ने लिखा, ‘सोशल मीडिया कंपनियां जानबूझकर अपनी सेवाओं की लत लगाकर उपयोगकर्ताओं को धोखा देती हैं। यह बहुत हानिकारक हो सकता है, खासकर किशोरों के लिए।’
सोशल मीडिया कही-सुनी बातों से लबरेज़ है जैसे कि ‘जॉर्ज सोरोस का कहना है कि भारत सरकार को अस्थिर करने के लिए एक ट्रिलियन डॉलर रखे गए हैं।’ पता नहीं इस कहानी में कितना दम है। स्वयं जॉर्ज सोरोस ने किन भारतीय नेताओं को कितने पैसे दिए? उनसे कब - कब उनकी मुलाक़ातें हुईं? ये पत्ते अब तक नहीं
खोले हैं! -लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।