फिल्म का दुखद अंत सफलता का फार्मूला
फिल्मों का दुखद अंत दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि ऐसा अंत उनकी भावनाओं को गहराई से छूता है। इनमें जीवन की सच्चाइयों का प्रामाणिक चित्रण जो दिखाई देता है। माना जाता है कि दुखद अंत दर्शकों को अपने...
फिल्मों का दुखद अंत दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि ऐसा अंत उनकी भावनाओं को गहराई से छूता है। इनमें जीवन की सच्चाइयों का प्रामाणिक चित्रण जो दिखाई देता है। माना जाता है कि दुखद अंत दर्शकों को अपने जीवन की समस्याओं और भावनाओं से जोड़ता है। दुख झेलते किरदार से दर्शक सहानुभूति महसूस करते हैं। शोध बताते हैं, दुखद अंत देखने के बाद दर्शक अपने जीवन के सकारात्मक पहलू गंभीरता से महसूस करते हैं। फिल्म का सुखद अंत देखकर कई बार लगता है कि उनकी समस्याएं असामान्य हैं, जबकि दुखांत यथार्थ है।
हिंदी फिल्मों के दर्शक की मानसिकता अनोखी है। उन्हें किस फिल्म की कहानी पसंद आएगी, इस बात का दावा कभी कोई नहीं कर सका। सामान्य धारणा है कि मनोरंजन के मूड से थिएटर आने वाला दर्शक चाहता है कि वो मुस्कुराता हुआ बाहर आए। यानी फिल्म का अंत सुखद हो। हीरो-हीरोइन का मिलन हो, खलनायक को पुलिस पकड़ ले, कोर्ट का फैसला हीरो के हक़ में हो और हीरो-हीरोइन जिस भी संकट से घिरे हों, वो आखिर में दूर हो जाए। जिन समस्याओं से दर्शक खुद जूझ रहा हो, वो नहीं चाहता कि उसका मनोरंजन भी वैसा ही हो। लेकिन, इसे अपवाद माना जाना चाहिए कि फिल्म इतिहास की ज्यादातर कालजयी फिल्मों का अंत दुखद ही रहा। प्रेम कथाओं पर मशहूर फ़िल्मों देवदास, मुग़ल-ए-आजम, प्यासा और ‘लैला मजनूं’ में हीरो-हीरोइन का मिलन नहीं होता और दर्शक मायूस होता है। जबकि, अमिताभ-जया की ‘मिली’ और राजेश खन्ना की ‘आनंद’ के दुखांत की वजह लाइलाज रोग रहा।
हाल ही में आई फिल्म ‘सैयारा’ का अंत भी दुखद है। लेकिन, इसने सफलता का रिकॉर्ड बना दिया। यह फिल्म अधूरी मोहब्बत की कहानी है, जिसका क्लाइमेक्स दर्शकों को सालता है। ऐसी और भी कई फ़िल्में हैं, असफल प्रेम, जीवन संघर्ष या न्याय की तलाश जिनके प्रमुख विषय रहे। इन फिल्मों की कहानियों को जीवन की जटिलताओं से जोड़कर गढ़ा गया। ऐसी कहानियां दर्शकों की आंखें गीली कर देती हैं। देवदास (तीन बार बनी), दिल बेचारा, आशिकी-2, तेरे नाम और ‘एक दूजे के लिए’ देखने के बाद दर्शक दुखी हुए, पर फिल्म हिट हुई। इन फिल्मों ने दर्शकों को अपनी भावनाएं खुलकर महसूस और व्यक्त करने का जरिया मुहैया कराया। दरअसल, ऐसे पलों में दर्शक खुद के जीवन की कद्र करना या अपनी तकलीफों को छोटा समझना सीखते हैं। दुखद अंत वाली फिल्में सफल होती हैं व यादगार भी बनती हैं।
अंतर्मन झकझोरने वाले कथानक
सवाल है कि दुखांत फिल्मों की सफलता का कारण क्या है! इसका कोई एक या सीधा जवाब नहीं हो सकता। इसलिए कि मानवीय भावनाओं से गहरा जुड़ाव, यथार्थवाद और दर्शकों को झकझोर देने वाली कहानियां ज्यादा पसंद की जाती हैं। दरअसल दर्द, विरह और अपूर्ण प्रेम जैसी भावनाएं लगभग हर व्यक्ति महसूस करता है। जब कोई कहानी इन पहलुओं को पेश करती है, तो दर्शक उसमें खुद को महसूस करते हैं। असल में फिल्म का दुखद अंत झकझोरता है जिससे फिल्म और उसके पात्र जेहन में बैठ जाते हैं। ऐसी कहानियां अक्सर अमर और ‘क्लासिक’ मानी जाती हैं।
ऐसी कथाएं, जिनका अंत नकारात्मक रहा
वे फ़िल्में जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को बेहद दुःखी किया और कई बार भावुक भी कर दिया। ‘गंगा जमुना’ (1961) फिल्म दो भाइयों गंगा और जमुना की कहानी है, जो विद्रोह और बलिदान पर केंद्रित है। फिल्म का अंत जमुना की मौत से होता है। ‘अमर प्रेम’ (1972) भी अत्यंत भावुक अंत के लिए जानी जाती है जिसमें शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के किरदार मिल नहीं पाते। ‘देवदास’ (2002) में देवदास पारो के प्रेम में टूटकर शराबी हो जाता है और उसके घर के बाहर ही अंतिम सांस लेता है। ‘तेरे नाम’ (2003) का नायक सलमान खान (राधे) मानसिक संतुलन खो बैठता है और अपनी प्रेमिका की मृत्यु के बाद पूरी तरह टूट जाता है। ‘कल हो न हो’, ‘रॉकस्टार’, ‘आशिकी-2’, ‘गोलियों की रासलीला : राम-लीला’ व ‘बाजीराव मस्तानी’ की कहानियों के बीच में और अंत में दुखद तत्व हैं।
सामाजिक और पारिवारिक दुख का फिल्मांकन
प्रेम कथाओं के अलावा सामाजिक और पारिवारिक दुखांत कथानकों ने भी दर्शकों को प्रभावित किया। ऐसी फिल्मों में अमिताभ और जया भादुड़ी की फिल्म ‘अभिमान’ (1973) भी है, जिसमें गायक दम्पति के रिश्ते में दरार आने से उनकी कहानी भावनात्मक हो जाती है। साल 1983 में आई ‘मासूम’ में एक अवैध संतान की अस्वीकार्यता परिवार में दर्द देती है। अमिताभ-हेमा की फिल्म ‘बागबान’ में उम्रदराज दम्पति अपने ही बच्चों से उपेक्षित हो जाते हैं। ऐसी अन्य फ़िल्में हैं सनम तेरी कसम, हाईवे, पद्मावत, इश्क़जादे, मसान और द लंच बॉक्स। इन फिल्मों की ट्रैजिक एंडिंग ने दर्शकों को रुला दिया था। दुखद प्रेम और पारिवारिक कथाएं जीवन के ज़्यादा गहरे, जटिल विषयों जैसे प्रेम, हानि, कुर्बानी और मानवीय मजबूरियों का चित्रण करती हैं। दर्शकों को ये विषय खुद के जीवन अनुभवों के करीब लगते हैं। ऐसी फिल्में दर्शकों को आंसू बहाने, दुख महसूस करने का मौका देती हैं जिससे राहत मिलती है।
गहरा भावनात्मक प्रभाव
दुखद अंत वाली फिल्मों में कुछ विशिष्ट कथा तत्व बार-बार देखने को मिलते हैं, जो दर्शकों में गहरा भावनात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। सबसे सामान्य है अपूर्ण प्रेम या जुदाई। प्रेम कहानियों में अक्सर मुख्य पात्रों का एक-दूसरे से बिछड़ना, अलग हो जाना या उनका प्रेम पूरा न हो पाना प्रमुख रहता है। किसी प्रिय पात्र का बिछुड़ जाना, परिवार या मित्र की हानि कथा को दुखद बनाते हैं। नायक या कोई अन्य प्रमुख पात्र किसी बड़े मकसद या अन्य पात्रों की भलाई के लिए खुद का बलिदान दे देता है। किरदारों का जीवन की कठिन परिस्थितियों में भावनात्मक रूप से टूटना भी इस शैली के सामान्य तत्व हैं। कथानक के अंत में पात्रों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, जिससे कथा में निराशा का भाव आता है। फिल्म में अक्सर जीवन के कठिन, कटु और यथार्थ पहलुओं को दिखाया जाता है, जिससे दर्शक कहानी को अपनी जिंदगी से जोड़ पाते हैं। इन फिल्मों में सुखद समाधान की जगह किरदारों को उनकी समस्या के साथ ही छोड़ा जाता है या उम्मीद नहीं दिखाई जाती। दुखद अंत वाली फिल्मों में प्रेम में विफलता, मृत्यु, बलिदान, अकेलापन, अधूरी इच्छाएं, कठोर यथार्थ और समाधान की कमी सबसे सामान्य कथा तत्व हैं, जो इन्हें भावनात्मक रूप से गहरा और यादगार बनाते हैं। अनारकली (1953), प्यासा (1957), सुजाता (1959) और बंदिनी (1963) वे शुरुआती ट्रैजिक फिल्में हैं जिनमें प्रेम, सामाजिक बाधाएं या व्यक्तिगत कारण से नायक-नायिका नहीं मिल पाते या मृत्यु हो जाती है। हिंदी सिनेमा की शुरुआती दुखद अंत वाली फिल्मों ने दर्शकों को भाव-विह्वल किया व ट्रेजेडी को हिंदी फिल्मी जगत का अंग बना दिया। इनमें देवदास, अनारकली, मुगल-ए-आज़म ने ट्रैजिक एंडिंग का चलन स्थापित किया।