100 बरस के बाद भी जीने का सपना
सदा से इंसान की हसरत लंबी उम्र पाना रही है। बेहतर चिकित्सा सहूलियतों के बल पर पूरी दुनिया में जीवन संभाव्यता बढ़ी भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार, दवाओं व तकनीक के अलावा सर्जरी और अंग प्रत्यारोपण इसमें मददगार हैं। वहीं ऐजिंग में तब्दीली की गुंजाइश है। लेकिन हाल ही में चीन और रूस के राष्ट्रपतियों के बीच इंसान के 150 साल जीने संबंधी बातचीत ने इस बारे में नयी चर्चा छेड़ दी है। दरअसल ऐजिंग रोकने को लेकर अनुसंधान जारी हैं। प्रयोगों में उपवास के भी सकारात्मक परिणाम मिले हैं।
अमेरिकी भविष्यवेत्ता, आविष्कारक-लेखक रे कुर्जवील रोजाना दर्जनों गोलियों (टैबलेट्स) का सेवन करते हैं। मीडिया रिपोर्टों, जैसे मैगज़ीन- टाइम और फोर्ब्स में प्रकाशित इंटरव्यू, के मुताबिक कभी कुर्जवील 200 से 250 सप्लीमेंट्स प्रतिदिन तक लेने की बात कर चुके हैं। हाल के वर्षों में यह संख्या घटकर लगभग 80–100 टैबलेट्स प्रतिदिन बताई जाती है। इनमें तमाम तरह के सप्लीमेंट्स, विटामिन, मिनरल्स, एंटीऑक्सीडेंट्स और बुढ़ापा रोकने (एंटी-एजिंग) या उम्र बढ़ाने वाली यानी लाइफ-एक्सटेंशन दवाएं होती है। कुर्जवील को कोई जानलेवा बीमारी नहीं है। बल्कि इन दवाओं आदि का सेवन मुख्य रूप से दीर्घायु से जुड़े उनके प्रयोगों और मान्यताओं का हिस्सा है।
जिस भविष्य का सपना कुर्जवील देख रहे हैं और जिसे साकार करने के लिए इतनी दवाएं खाते हैं, उसका एक संकेत हाल में बीजिंग में हुई चीन की सैन्य परेड के दौरान चीन और रूस के राष्ट्रपति क्रमश: व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग के बीच बातचीत का एक हिस्सा उजागर होने से मिला। बातचीत में पुतिन, जिनपिंग से यह कहते हुए सुने गए कि इंसानी अंगों को बार-बार प्रत्यारोपित किया जा सकता है ताकि उम्र बढ़ने के बावजूद इंसान और जवान होता जाए और शायद अनिश्चित काल तक बुढ़ापे को टाला जा सके। उन्होंने यह अनुमान भी लगाया कि इस तरह मौजूदा सदी में ही इंसान 150 साल तक ज़िंदा रहने योग्य हो जाएगा।
सवाल आम इंसान की लंबी जिंदगी का भी
कहा नहीं जा सकता कि उक्त बातचीत किसी हंसी-मजाक का हिस्सा थी, या इसमें वे खुद को लगभग अमर रखने की संभावनाओं को तलाश रहे थे। ध्यान रहे कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 31 दिसंबर 1999 से सत्ता में हैं (कुछ अवधि तक प्रधानमंत्री भी रहे), जबकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग 2012 से सत्ता के शीर्ष पर हैं (कम्युनिस्ट पार्टी महासचिव) और 2013 से राष्ट्रपति हैं। इससे इस संभावना में कुछ सत्यता प्रतीत हो सकती है कि ये दोनों नेता खुद को बूढ़े होने से बचाते और सक्रिय रहते हुए सत्ता पर काफी लंबे समय तक टिकाए रखने की जुगत सोच रहे होंगे। लेकिन इस चर्चा से बाहर एक बड़ा सवाल यह है कि क्या आम इंसान को भी अमर बनाया जा सकता है या फिर 150-200 बरस तक जिंदा रखा जा सकता है?
सर्जरी, अंग प्रत्यारोपण से हटकर नयी तकनीकें
यूं तो दुनिया में उपलब्ध बेहतर चिकित्सा सहूलियतों (खासकर अमीरों के लिए) के बल पर पूरी दुनिया में जीवन संभाव्यता बढ़ी है। इसके अलावा सर्जरी और अंग प्रत्यारोपण से मृत्युदर में काफी कमी आई है। एक तथ्य है कि ब्रिटेन में ही अंग और रक्त प्रत्यारोपण से बीते 30 वर्षों में एक लाख से ज्यादा जानें बचाई गई हैं। जिगर (लिवर), गुर्दा (किडनी), फेफड़े आदि अंगों के प्रत्यारोपण से कुछ मरीजों का जीवन 10 से 50 साल तक बढ़ गया है। हालांकि यह तथ्य मरीज और अंग-दानदाता की उम्र और सेहत पर निर्भर करता है। असल में, सर्जरी और अंग प्रत्यारोपण से बाहर विज्ञान की मदद से इंसानी उम्र बढ़ाने की तकनीकों और करिश्मों पर चर्चा इक्कीसवीं सदी में तेजी से बढ़ी है। दस साल पहले दिसंबर, 2015 में दिल्ली में एक कार्यक्रम में शामिल हुए जाने-माने विज्ञानी डॉ. एब्रे डि ग्रे (सेंस रिसर्च फाउंडेशन के चीफ साइंस ऑफिसर) ने इस बारे में एक अनुमान पेश किया था कि अगले 15 वर्षों में यह करिश्मा करना संभव हो सकता है जब औसतन हरेक इंसान कम से कम सौ साल तो जीने ही लग जाए। ऐजिंग यानी बढ़ती उम्र रोकने वाली दवाओं के अनुसंधान पर काम कर रहे डॉ. ग्रे के मतानुसार कोशिकाओं के क्षरण को रोक कर और शरीर में मौजूद मॉलेक्यूल्स की चाल पलट कर बढ़ती उम्र यानी ऐजिंग को कुछ हद तक थामा जा सकता है। चूंकि अब साइंस यह काम करने के करीब है, लिहाजा सौ साल की जिंदगी को एक आम बात बनाना मुमकिन है। यहां मुख्य जोर उम्र बढ़ाने के बजाय इंसानों को बूढ़ा होने से रोकने पर है।
साइंस की नजर में ऐजिंग प्रक्रिया
साइंस की नजर में बूढ़ा होना यानी ऐजिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका सामना पृथ्वी पर मौजूद हर जड़-चेतन को करना पड़ता है। वनस्पतियों और जीवधारियों में तो बढ़ती उम्र साफ दिखती है। चेहरे और हाथ-पांव में पड़ती झुर्रियों, झुकते शरीर और कमजोर होती हड्डियों के अलावा आंख-कान से लेकर हर इंद्रिय का क्षरण बुढ़ापे का साफ संकेत होता है। पर विज्ञान की नजर में बुढ़ापा असल में कोशिकाओं के विभाजन की दर पर निर्भर है। मानव की कोशिकाएं अपनी मृत्यु से पहले औसत रूप से अधिकतम 50 बार विभाजित होती हैं। जितनी बार कोशिकाएं विभाजित होती हैं, इंसानी क्षमताओं में शनै:-शनै: उतनी ही कमी आने लगती है। बुढ़ापे का एक अन्य कारण टेलोमर्स नामक एंजाइम्स की लंबाई घटना भी माना जाता है। युवावस्था में टेलोमर्स प्रचुर मात्रा में बन पाते हैं जो डीएनए कोशिकाओं को टूट-फूट से बचाता है। टेलोमर्स असल में प्रत्येक डीएनए के दोनों छोरों पर लगने वाली ढक्कन जैसी संरचनाएं हैं, जिनकी लंबाई उम्र बढऩे के साथ कम होती जाती है। शरीर बुढ़ाने के कई कारणों टेलोमर्स के छोटे होते जाने की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण समझी जाती है।
बीते 50-60 वर्षों में बढ़ी औसत उम्र
आज से सौ या पचास पहले इंसान की औसत आयु कोई खास नहीं थी। पचास साल की उम्र के बाद लोग बूढ़े लगने लगते थे और जल्द ही मृत्यु को प्राप्त होते थे। पर पिछले 50-60 वर्षों में ही पूरी दुनिया में औसत उम्र बढ़ चुकी है। कम से कम 1970 में पैदा हुए अमेरिकियों पर यह बात लागू होती ही है, जिनकी औसत उम्र पहले 70.8 वर्ष मानी गई थी, जो अब से 25 साल पहले यानी वर्ष 2000 में 77 साल मानी जाने लगी थी। इसी तरह वयस्क अमेरिकियों की औसत उम्र 2002 में अगर 75 साल मानी जा रही थी, तो अब आगे उसमें 11.5 साल की और बढ़ोतरी की उम्मीद है।
आयुवृद्धि मंद होने में मददगार कारक
पुतिन और जिनपिंग की तरह यह बात हर कोई जानना चाहेगा कि साइंस ने वह कौन सा चमत्कार किया है कि इंसान की औसत उम्र में सहसा बढ़ोतरी होती लग रही है। विज्ञानियों के मुताबिक उम्दा खानपान और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं का इसमें बड़ा रोल है। पर इससे भी बड़ी बात है वृद्धावस्था में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखना और दिमाग, मांसपेशियों, जोड़ों, इम्यून सिस्टम, फेफड़ों और दिल में ‘सिनेसेंस’ कहे जाने वाले बदलावों पर अंकुश लगाना, क्योंकि इन्हीं से बढ़ती उम्र पर काबू पाया जा सकता है। इनमें दवाओं और तकनीकों की भी एक भूमिका हो सकती है, जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में कुर्जवील के प्रयोगों के संदर्भ में किया गया है। सिर्फ दवाएं ही नहीं, कुर्जवील के मुताबिक नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से भी शारीरिक संरचनाओं को रीप्रोग्राम किया जा सकेगा।
आहार पर नियंत्रण का सकारात्मक असर
उम्र बढ़ाने के सिलसिले में शोध कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर नियंत्रित तरीके से कुछ समय का उपवास रखा जाए तो भी इससे न सिर्फ बढ़ते वजन को घटाया जा सकता है, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी कई अन्य फायदे भी हो सकते हैं। खास तौर से उम्र बढ़ाना भी संभव है। दुनिया में 1930 से ही एक ऐसे प्रयोग के बारे में लोगों को बताया जाता रहा है, जिसके तहत कम कैलोरी पर पल रहे चूहे उन चूहों की तुलना में ज्यादा दिन तक जिंदा रहे जिन्हें पौष्टिकता से भरपूर भोजन दिया गया था। यह बात आज भी कई शोध साबित कर रहे हैं। जैसे, यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ऐजिंग के कारण होने वाले बुढ़ापे से निपटने के मकसद से आनुवंशिक और लाइफ स्टाइल फैक्टरों का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिक भी कुछ ऐसे ही नतीजों पर पहुंच रहे हैं। इंस्टीट्यूट में रिसर्च टीम से जुड़े एक प्रमुख वैज्ञानिक मैथ्यू पाइपर ने आहार पर नियंत्रण को जीवन को लंबा करने वाला एक असरदार तरीका माना है। डॉ. पाइपर के मुताबिक यदि किसी चूहे के आहार में 40 फीसदी की कमी कर दी जाए, तो वह 20 या 30 प्रतिशत ज्यादा जीएगा। उनकी जैसी राय रखने वाले कई अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि आहार पर नियंत्रण से मनुष्य का जीवन काल भी बढ़ाया जा सकता है।
उपवास के दौरान हार्मोन की सक्रियता
उपवास के दौरान एक खास किस्म के हार्मोन के असर को वैज्ञानिकों ने दर्ज किया है। असल में, स्तनधारियों में जीवन अवधि बढ़ाए जाने का विश्व रिकार्ड एक नई प्रजाति के चूहे का है जिसकी उम्र 40 फीसदी तक बढ़ सकती है (इस हिसाब से मनुष्य एक सौ बीस वर्ष की उम्र पा सकता है)। प्रयोग के दौरान आनुवंशिक रूप से संवर्धित चूहों को जब खाना देना बंद कर दिया गया, तो देखा गया कि इससे हार्मोन आईजीएफ-1 के स्तर में कमी आने लगी। पर साथ ही यह भी पाया गया कि शरीर की बढ़ोतरी में कारगर यह हार्मोन ऐसी स्थिति में शरीर में आ रही कमियों और टूट-फूट को रिपेयर करने लग गया। इस शोध के संबंध में दक्षिण कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता प्रोफेसर वाल्टर लौंग ने कहा कि जैसे ही शरीर में आईजीएफ-1 हार्मोन का स्तर कम होता है तो इसका असर शरीर पर होता है और मरम्मत करने वाले कई जीन शरीर में सक्रिय हो जाते हैं। हालांकि दावा किया जाता है कि शरीर में आईजीएफ-1 नामक हार्मोन की बहुत कम मात्रा से इंसान बौना रह जाता है लेकिन ऐसे बौने इंसान आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती उम्र से जुड़े दो प्रमुख रोगों कैंसर और मधुमेह से सुरक्षित भी पाए गए हैं।
सच्चाई यह है कि विज्ञान अब बुढ़ापे को अनियंत्रित और बेतरतीब प्रक्रिया नहीं मानता। नई परिभाषा के अनुसार, ऐजिंग एक नियंत्रित प्रक्रिया है और इसमें तब्दीली की गुंजाइश है। फर्क सिर्फ इतना है कि हमें ऐसे बदलावों और नियंत्रण के तौर-तरीके स्पष्ट ढंग से मालूम नहीं हैं। जिस दिन ये रहस्य खुल जाएंगे, अमरता या कम से 120-150 बरसे की उम्र इंसानों के लिए बहुत बड़ी बात नहीं रह जाएगी, बशर्ते वे इतने वक्त तक जीना चाहें।
बढ़ी उम्र के साथ बढ़ी आर्थिक चुनौतियां भी
भारतीय सिनेमा में चर्चित गीत की पंक्तियों में भले ही कहा गया है कि ‘सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं, प्यार के दो-चार दिन’, लेकिन दुनिया में पहले के मुकाबले थोड़ा और जी लेने का ट्रेंड बढ़ता ही जा रहा है। नतीजा यह है कि दुनिया की आबादी तेज़ी से बूढ़ी होती जा रही है। हालिया आंकड़े और वैश्विक संगठन बताते हैं कि बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों की तुलना में अब दुनिया में बुजुर्गों और विशेषकर ‘सेंटीनेरियन’ यानी सौ साल की उम्र पार करने वालों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है और आगे भी इस संख्या में जबर्दस्त वृद्धि की संभावना है। साल 2024 में पूरी दुनिया में करीब 7.22 लाख लोग 100 साल या उससे अधिक आयु के थे— यह आंकड़ा 2015 के आंकड़े (4.5 लाख) से काफी अधिक है। अंदाजा है कि 2050 तक यह संख्या लगभग आठ गुना बढ़कर 37 लाख हो जाएगी, और सदी के आखिर तक 1.79 करोड़ सेंटीनेरियन हो सकते हैं। इस साल यानी 2025 में कुछ मुख्य देशों में सेंटीनेरियन की संख्या इस प्रकार है: *जापान: 1,31,711 *चीन: 41,002 *भारत: 39,421 *थाईलैंड: 28,837 *दक्षिण कोरिया: 8,474. यह तय है कि दुनिया भर में जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है। साल 2025 में वैश्विक औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 73.4 वर्ष (पुरुष : 70.8 वर्ष, महिलाएं: 76 वर्ष) पहुंच गई है। पश्चिमी यूरोपीय देशों और जापान जैसे अमीर देशों में बच्चे अब अपेक्षा कर सकते हैं कि वे आराम से 80+ या 85+ वर्ष तक भी जीवित रहेंगे। मोनाको जैसे देशों में जीवन प्रत्याशा 87 वर्ष, जापान में 84 वर्ष से अधिक है, हालांकि कुछ अफ्रीकी देशों में यह कई जगहों पर 55-60 वर्ष के आसपास ही है। इसमें क्षेत्रीय प्रवृत्तियों का बदलाव आसानी से दिखाई देता है। जैसे, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में बुजुर्गों का अनुपात सबसे अधिक है। अब एशिया (विशेषकर चीन, भारत और जापान) में भी बूढ़े लोगों की संख्या सबसे तेज़ी से बढ़ रही है। यूं तो अफ्रीका जैसे युवा आबादी वाले क्षेत्रों में अभी वृद्धों का अनुपात कम है, लेकिन यहां भी जीवन प्रत्याशा में सुधार के चलते बदलाव आ रहा है। कहा जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर जीवन प्रत्याशा में सुधार हुआ है, फिर भी अमीर और गरीब देशों के बीच के अंतर अब भी बड़े हैं। वर्तमान में अफ्रीकी और एशियाई गरीब देशों में जीवन प्रत्याशा काफी कम है, जबकि पश्चिमी और उच्च आय वाले देशों में जीवन प्रत्याशा काफी अधिक है। जीवन प्रत्याशा और शतायु लोगों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि के साथ मानवता के सामने एक नई सामाजिक-आर्थिक चुनौती है—वृद्ध आबादी का समावेशी और सम्मानजनक जीवन कैसे सुनिश्चित किया जाए। चूंकि आने वाले दशकों में वैश्विक जनसंख्या का बड़ा हिस्सा वृद्ध होगा—इसके लिए नीति-निर्माताओं, समाज, और प्रत्येक स्तर की स्वास्थ्य व्यवस्था को तैयार रहना होगा, ताकि बुजुर्ग सिर्फ दीर्घायु ही न हों, बल्कि स्वस्थ और सक्रिय जीवन भी जी सकें। इससे एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि दिनोंदिन बूढ़ा होना महंगा भी होता जा रहा है। बुजुर्गों में अपने लिए एक औसत पेंशन जुटाने, स्वास्थ्य की देखभाल करने, सामाजिक सहभागिता में सक्रियता दर्शाने के लिए अब पहले की तुलना में काफी ज्यादा निवेश करने की जरूरत पड़ रही है। इससे सेवानिवृत्ति के बाद भी लंबे समय तक काम करते रहने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन समस्या यह है कि सरकारें और निजी कंपनियां बुजुर्गों को बोझ मानने की मानसिकता से काम कर रही हैं। मिसाल के तौर पर अमेरिका में 1960 के दशक में 65 की उम्र में रिटायर होने वाले लोगों की जीवन प्रत्याशा करीब 70 साल थी। ऐसे लोग वृद्धावस्था पेंशन का फायदा सिर्फ पांच साल ही उठा पाते थे। अब वहां जो लोग 100 साल तक जीवित रहते हैं, अर्थात सेवानिवृत्ति के बाद का उनका जीवन पहले के मुकाबले सात साल ज्यादा लंबा है, इसलिए पेंशन देने वाली योजनाओँ और कंपनियों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। ऐसे में खासकर स्वास्थ्य और बीमा कंपनियां अंतिम वेतन के आधार पर पेंशन तय करने के नियम से किनारा कर रही हैं। यही स्थिति स्वास्थ्य बीमा को लेकर है। इंश्योरेंस कंपनियां या तो बुजुर्गों से कई गुना ज्यादा प्रीमियम वसूलती हैं या फिर उनके क्लेम को लेकर बाधाएं खड़ी करती हैं। इस आर्थिक दबाव के परिणाम में बुजुर्गों को रिटायरमेंट के बाद भी लंबे समय तक काम करना पड़ता है। अमेरिका और भारत समेत कई मुल्कों में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं हैं, जहां 80, 90 या 100 साल के उम्र के लोगों को किसी रोजगार में संलग्न देखा जा सकता है। हालांकि यहां चुनौती ये है कि आखिर बुजुर्ग अपनी बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के मद्देनजर कौन-कौन से काम कर पाएंगे। वे किस हद तक कोई काम करने लायक रहेंगे और उन्हें कोई काम
क्यों देगा।
-लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।