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सिखाने के साथ सीखने का परिवेश भी बनाएं शिक्षक

टीचर्स डे - 5 सितंबर
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बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने में पाठ्यक्रम संबंधी शिक्षण के अलावा भी शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका है। खासकर अपने सहज व्यवहार से स्कूल में बेहतर माहौल निर्मित करने में। जरूरी है कि वह बालमन को समझे। ऐसा वातावरण बनाए जिसमें बच्चा पढ़ाई के साथ जीने का सबक सीखे। नया व लीक से हटकर सीखने में उसकी रुचि पैदा हो। वहीं दो-तरफा संवाद भी सुनिश्चित बनाना शिक्षक का अहम दायित्व है।

सीखने के लिए सहज परिवेश का होना जरूरी है। क्लासरूम हो या स्कूल का परिसर, बच्चों पर पूरे वातावरण का असर पड़ता है। इस माहौल को सहज रखने में शिक्षकों की अहम भूमिका होती है। बालमन को समझने से जुड़ा टीचर्स का नजरिया बहुत अहमियत रखता है। कहते हैं कि बच्चों का भविष्य बनाने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी शिक्षकों के हिस्से ही आती है। इस दायित्व का अहम हिस्सा बालमन को समझना ही है। फिर बात चाहे किसी विषय का पाठ पढ़ाने की हो या जिंदगी जीने का सबक समझाने की। टीचर्स के व्यवहार की सहजता बहुत कुछ आसान कर देती है।

मन से सीखना सिखाएं

बच्चों के मन को समझते हुए शिक्षक उन्हें सहजता से सीखना सिखायें। हमारे यहां पढ़ाई सिर्फ अंकों की दौड़ बनकर रह गई है। ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को उनके रुचिकर विषयों से जोड़ें। रटने और परीक्षा पास करने की दौड़ से बाहर लाकर, सही मायने में शिक्षित होने की ओर मोड़ें। अध्ययन ही नहीं, समाज का सहज अवलोकन भी बताता है कि शिक्षक अपने विद्यार्थियों में सीखने के प्रति जुनून पैदा करने में हम भूमिका निभा सकते हैं। सकारात्मक शैक्षिक वातावरण बनाकर बालमन पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं। सार्थक संवाद कर मन को साधना सिखा सकते हैं। इसीलिए टीचर्स बच्चों की कमियों और अच्छाइयों, दोनों पर बात करें। पढ़ाई को बोझ ना बनायें। कहते हैं कि ज्ञान की बातें तो किताबों में लिखी ही होती हैं। इन बातों को सही ढंग से समझाने का काम शिक्षक ही कर सकते हैं। अच्छे विचारों को व्यवहार में उतारने की प्रेरणा सिखाने वालों से ही मिलती है। किसी कला या खेल का प्रशिक्षण हो या पढ़ाई, अध्यापकों का यह सहज सा तरीका ही पढ़ने-सीखने के भाव को सार्थक बनाता है।

रचनात्मकता सोच को दिशा दें

आज के दौर में शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे बंधी-बंधाई लीक पर चलने के बजाय बच्चों को नवाचार से जोड़ें। नई चीजें सीखने को प्रेरित करें। तकनीक से जोड़ते हुए उसका संतुलित उपयोग करने का भाव जगाएं। मौजूदा दौर में कृत्रिम सुविधाओं से अटते संसार में बच्चों के भीतर छुपी रचनात्मक प्रतिभा को निखारने का प्रयास बहुत आवश्यक हो चला है। क्लासरूम में तयशुदा पैटर्न पर चलने के बजाय बच्चों को नया और बेहतर सोचने के लिए मोटिवेट करना जरूरी है । इतना ही नहीं, शिक्षक ही बच्चों को सकारात्मक प्रतिस्पर्धा की ओर मोड़ सकते हैं। ऐसा होने पर बच्चे ना तो बेहतर प्रदर्शन करने पर दिशाहीन होंगे और ना ही पीछे रह जाने पर उनका मन डिगेगा। स्पष्ट है कि ऐसा प्रेरणादायी माहौल बनाने के लिए बच्चों के मन और सोच की दिशा को समझना जरूरी है। इसके लिए शिक्षकों का सहज व्यवहार बहुत जरूरी है। औपचारिकता अध्यापकों को बच्चों के मन के करीब नहीं ला सकती। शिक्षकों और बच्चों का सहज जुड़ाव उनकी प्रतिभा और विचार की दिशा को समझने में मददगार बनता है। बालमन में नई चीज़ों को समझने और कुछ नया करने की दिलचस्पी जगाता है। अमेरिकी लेखक मार्क वैन डोरेन के अनुसार ‘शिक्षण की कला खोज में सहायता करने की कला है।’

जीवन संवारने का पाठ भी

हमारे यहां शिक्षकों और बच्चों में बहुत औपचारिकता भी देखने को मिलती है। यह बात क्या, कैसे और क्यों सीखना है की यात्रा में बाधा बनती है। असल में शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि वह बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि मन-जीवन संवारने वाले अच्छे संस्कार भी दे। शिक्षकों का काम स्कूली पाठ्यक्रम पूरा करवाना भर नहीं। चर्चित लेखक और स्पोर्ट्स राइटर बॉब टाल्बर्ट के मुताबिक ‘बच्चों को गिनती सिखाना ठीक है, लेकिन उन्हें क्या गिनना है यह सिखाना सबसे अच्छा है।’ ऐसे में जिंदगी से जुड़ा पाठ पढ़ाना, बच्चों के व्यवहार और विचारों को तराशना भी टीचर्स की जिम्मेदारी है। बालमन को समझते हुए बच्चों से सकारात्मक ढंग से जुड़ने से इस जिम्मेदारी को निभाना आसान हो जाता है। आपसी समझ की इस बुनियाद पर नयी पीढ़ी के भविष्य की इमारत खड़ी होती है। जीवन को संवारने की राह पकड़ने के मार्ग पर चलते हुए बच्चों को जिंदगी के हर पहलू से जुड़ी सीख सहजता से दी जा सकती है।

संबल बनें शिक्षक

स्कूलों में हर तरह की पारिवारिक पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं। हर बच्चा अपने आप में खास होता है। इसीलिए शिक्षकों को संवेदनशीलता के साथ बच्चों को समझना चाहिए। शिक्षकों की बातों का ही नहीं बर्ताव का भी बच्चों पर गहरा असर होता है। कहते भी हैं कि ‘क्लासरूम की चार दीवारें हो सकती हैं, लेकिन शिक्षक के प्रभाव की कोई सीमा नहीं होती। यही वजह है कि पढ़ाने-सिखाने के दायित्व का निर्वहन बहुत सधेपन और संवेदनशीलता से होना चाहिए। टीचर्स को अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए बच्चों की भावनाओं को समझने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हर बच्चे का संबल बन सकें। कई बार बच्चों के नकारात्मक व्यवहार और सीखने के प्रति उदासीनता की वजह उनके घर का माहौल भी होता है।

इसीलिए क्लास में दो-तरफा संवाद जरूरी है। ताकि बच्चे भी अपनी बातें साझा कर सकें। इस सार्थक संवाद के लिए भी बच्चों के साथ संजीदगी से व्यवहार करना जरूरी है। इतना ही शिक्षकों का यह सहज और संवेदनापूर्ण जज्बा बच्चों को सफलता या असफलता के दौर में भी संभाल सकता है। उनकी सीखने-समझने की क्षमता पर भरोसा बनाये रखता है। ऐसा व्यवहार हर बच्चे के मन में यह भावना जगाता है कि वह अपने क्लासरूम और स्कूल का अहम हिस्सा है।

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