अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, दुष्चरित्रता पर सच्चरित्रता की और निराशा पर आशा की जीत का पर्व दीपावली भारतीय संस्कृति व सामाजिक दर्शन का मूल भाव दर्शाता है। पारंपरिक रूप से इस मौके पर लक्ष्मी पूजन के साथ खुशहाली की कामना समाज के हर वर्ग के लिए है जिसे बढ़ावा देने की जरूरत है। दूसरे पर्वों की तरह यह पर्व भी प्रकृति व सामाजिक परिवेश के प्रति दायित्व निभाने का संदेश लिये है। मसलन हम पारंपरिक उद्यमों से निर्मित सामान खरीदकर उन्हें संबल दें। वहीं यथा-संभव पर्यावरण-मित्र दिवाली मनाएं।
अठारहवीं सदी के शायर नज़ीर अकबराबादी ने लिखा है : हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का/हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का। दिवाली आम त्योहार नहीं है। यह हमारे सामाजिक दर्शन से जुड़ा पर्व है। भारत का यह सबसे शानदार त्योहार है, जो दरिद्रता और गंदगी के खिलाफ है। अंधेरे पर उजाले, दुष्चरित्रता पर सच्चरित्रता, अज्ञान पर ज्ञान की और निराशा पर आशा की जीत का पर्व। यह सामाजिक नजरिया है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ ‘अंधेरे से उजाले की ओर जाओ’ यह उपनिषद् की आज्ञा है। क्या ज्ञान की इस रोशनी का मतलब हम समझते हैं? दीपावली का वास्तविक संदेश है, अज्ञान को त्यागें और ज्ञान की रोशनी फैलाएं।
सबके जीवन में खुशहाली की कामना
दीपावली लक्ष्मी की पूजा का पर्व है। अर्थात हम समृद्धि के पुजारी हैं। समृद्धि का अर्थ है, जीवन में खुशहाली। पर यह खुशहाली तभी सार्थक है, जब वह पूरे समाज के लिए उपलब्ध हो। निजी तौर पर किसी एक व्यक्ति या एक समूह के लिए नहीं। यह विचार और सिद्धांत आज भी जीवन पर लागू होता है। इसका आशय है कि यह समृद्धि समावेशी होनी चाहिए। समाज के प्रत्येक वर्ग तक इस समृद्धि का लाभ पहुंचे। हम अपने परंपरागत पर्वों और उत्सवों की मूल भावना पर गौर करें, तो पाएंगे कि उनकी संरचना इस प्रकार की थी कि समाज का प्रत्येक वर्ग उस खुशी में शामिल था। इसी भावना को आज भी बढ़ावा देने की जरूरत है। दीपावली केवल एक पर्व नहीं है। कई पर्वों का समुच्चय है। इस दौरान पांच दिनों के पर्व मनाए जाते हैं। इन पांच दिनों में हमारी परंपरागत जीवन-शैली, खानपान और सामाजिक संबंधों पर भी रोशनी पड़ती है। हम अपने पारंपरिक उद्यमों को संरक्षण देते हैं, ताकि समाज के सभी वर्गों को उत्सव का लाभ मिले। यह भी कि हम अपने पारंपरिक उद्यमों को नहीं भूलें।
न बिसराएं सामाजिक दायित्व
सवाल है कि क्या अब हमारी दिवाली वही है, जो इसका मौलिक विचार और दर्शन है? अपने आसपास देखें तो आप पाएंगे कि इस रोशनी के केंद्र में अंधेरा भी है। यह मानसिक दरिद्रता का अंधेरा है। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले पटाखों को दागने में संयम बरतने के लिए हमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतज़ार करना पड़ रहा है। यह तो हमारी अपनी जिम्मेदारी थी। बेशक उत्सव का पूरा आनंद लें, पर उन सामाजिक दायित्वों को न बिसराएं, जो इन पर्वों के साथ जुड़े हैं। जिनका हमारे पूर्वजों ने पालन किया।
जैसे-जैसे दीपावली नज़दीक आती है, उत्तर भारत के आकाश पर कोहरे की परत गाढ़ी होने लगती है। माहौल में ठंड का प्रवेश होता है, जिसके कारण हवा भारी होने लगती है और वह तेजी से ऊपर नहीं उठती, जिसके कारण धुआं और गर्द ‘स्मॉग’ की शक्ल ले लेता है। ‘स्मॉग’ परंपरागत अवधारणा नहीं है, क्योंकि रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी हमारी गतिविधियां ‘स्मॉग’ बनने नहीं देती थीं। पर औद्योगिक विकास ने ‘स्मॉग’ को जन्म दे दिया है। सवाल है, ऐसे में हम क्या करें? इसका जवाब है, अपने दायित्वों का निर्वाह करें। पर क्या आप जानते हैं हमारे दायित्व क्या हैं? आपने भले ही न सोचा हो, पर हमारे समझदार पूर्वजों ने ज़रूर सोचा था। बेशक उन्होंने अपने समय के परिप्रेक्ष्य में सोचा था, और हमें आज के परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा।
पर्वों की बहुआयामी भूमिका
वर्षा ऋतु की समाप्ति के साथ भारतीय समाज सबसे पहले अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए पितृ-पक्ष मनाता है। उसके बाद पूरे देश में त्योहारों और पर्वों का सिलसिला शुरू होता है, जो अगली वर्षा ऋतु आने के पहले तक चलता है। जनवरी-फरवरी में वसंत पंचमी, फिर होली, नव-संवत्सर, अप्रैल में वासंतिक-नवरात्र, रामनवमी, गंगा दशहरा, वर्षा-ऋतु के दौरान रक्षा-बंधन, जन्माष्टमी, शिव-पूजन, ऋषि पंचमी, तीज, फिर शारदीय नवरात्र, करवाचौथ, दशहरा और दीपावली और छठ पूजा वगैरह। इन सभी पर्वों और उत्सवों की सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक भूमिका है, जिसे समझे बगैर इन्हें मनाने का कोई मतलब नहीं है।
स्वदेशी उद्यम-भावना को दें संबल
जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर विदेश (चीन आदि) में बने होंगे। हालांकि पिछले कुछ वर्षों की सामाजिक-चेतना ने स्वदेशी-सामग्री की ओर भी हमें प्रेरित किया है, पर ज्यादा बड़ा अंतर नहीं आया है। वैश्वीकरण की वेला में हमें इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। दीपावली के मौके पर बाजारों में भारतीय खिलौने भी कम होते जा रहे हैं। उनकी जगह चीन में बने खिलौने ले रहे हैं। भारतीय बाजार की जरूरतों को समझ कर माल तैयार करना और उसे वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराना व्यावसायिक सफलता है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की परम्परागत उद्यम-भावना कमजोर नहीं है। उसे उचित दिशा और थोड़ा सा सहारा चाहिए और जोखिमों से निपटने वाली मशीनरी भी।
बेशक आज मिट्टी के दीयों की उपयोगिता कम है। पर हमारे कारीगर अपने हुनर का इस्तेमाल करके कुछ नया भी तैयार कर सकते हैं। कुछ साल पहले तक बिसरा दिए गए कुल्हड़ आज नई शक्ल में बाजार में आ गए हैं। यह अपने परंपरागत कौशल के संरक्षण देने का एक तरीका हो सकता है। यह काम हमें ही करना होगा, इसके किसी निर्यातक देश का कोई उद्यमी हमें समझाने नहीं आएगा। दीपक बनाने वाले कुम्हारों के हाथ की खाल पर मिट्टी का काम करते-करते निशान पड़ गये हैं। उन्हें संरक्षण देना और उन्हें वैकल्पिक रास्ता दिखाना भी हमारी जिम्मेदारी है। खील, बताशे, खिलौने , दीये खरीदना धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व था, जिसे हमारे पूर्वजों ने व्यावहारिक शक्ल
दी थी।
कुदरत व पर्यावरण से जुड़े पावन अवसर
इन पर्वों के कम से कम तीन आयाम हैं। एक, प्रकृति और पर्यावरण, दूसरा समाज और संस्कृति और तीसरा आर्थिक-संबंध। हमारे सभी पर्व और उत्सव प्रकृति से गहरे जुड़े हुए हैं, जो ऋतुओं, खगोलीय घटनाओं और प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान और आभार व्यक्त करते हैं। ये उत्सव फसल चक्र का जश्न मनाते हैं, नदियों और पेड़ों आदि की पूजा करते हैं, और पर्यावरण के साथ सद्भाव में रहने के महत्व को सिखाते हैं। हम फसल, नदियों, पेड़ों और सूरज तथा चंद्रमा को प्रणाम करते हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह है कि वे हमारे जीवनाधार हैं।
समय के साथ प्रकृति के इन परिवर्तनों को चिह्नित करने और उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा विकसित हुई। धीरे-धीरे अनेक पर्व और त्योहार अस्तित्व में आए, जो मुख्यतः मौसम में होने वाले सालाना बदलाव और कृषि चक्र के परिचायक बने। ये न केवल कृषि कार्यों के नियोजन में सहायक सिद्ध हुए, बल्कि मानव ऊर्जा और उल्लास को भी बनाए रखने का माध्यम बने। जलवायु की दृष्टि से भारत अत्यंत विविधतापूर्ण क्षेत्र है। यहां मौसम, कृषि और उत्सवों के बीच एक गहरा त्रि-संयोग विकसित हुआ है, जो भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित ‘अनेकात्म में एकात्म’ का प्रतीक है।
पारंपरिक काम-धंधों से संबंध
हमारे सभी त्योहार पारंपरिक उद्यमों से जुड़े हैं, जो कृषि-समाज की विरासत है। पारंपरिक उद्यमों को तीन या चार मोटे वर्गों में बांट सकते है। पहला कृषि और उससे जुड़े उद्यम। दूसरे कारीगरी और दस्तकारी। और तीसरे सेवा से जुड़े काम। खेती और उससे जुड़े कामों में पशुपालन, बागवानी और वन-संपदा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े काम हैं। आटा चक्की, कोल्हू और परंपरागत खाद्य प्रसंस्करण इनमें शामिल है। इनके साथ बांस, रस्सी, कॉयर और जूट का काम भी जुड़ा है। दस्तकारी और कारीगरी के परंपरागत शिल्प के साथ हथकरघा उद्योग जुड़ा है जो रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हुआ करता था। इसके साथ रेशम, कालीन, दरी और ऊनी शॉल का काम है। ठप्पे की छपाई, रेशमी और सूती धागों को बांधकर तरह-तरह की चीजें बनाने की पटुआ कला। जेवरात और रंगीन पत्थरों का काम, मीनाकारी, पत्थर तराशने का काम, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, तांबे और पीतल के बर्तन यानी ठठेरों का काम, चमड़े का काम, लकड़ी के खिलौने और कारपेंटरी, परिधान निर्माण वगैरह।
अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबों की दशा सुधारने के बाबत उनकी उद्यमिता के बारे में एक अध्याय है। दुनिया के ज्यादातर देशों में छोटे और ऐसे पारंपरिक उद्यमियों की संख्या सबसे बड़ी होती है, जो सैकड़ों साल से चले आ रहे हैं। ज्यादातर नए हुनर किसी पारंपरिक हुनर का नया रूप हैं। भारत जैसे देश में गरीबी दूर करने में सबसे बड़ी भूमिका यहां के पारंपरिक उद्यमों की होगी। अक्सर उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव से पारंपरिक उद्यमों को धक्का लगता है, क्योंकि वे नए तौर-तरीकों को जल्द ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होते।
प्रकृति, पर्व और स्वास्थ्य
आयुर्वेद के अनुसार, त्योहारों में इस्तेमाल होने वाली कई चीज़ें हमारे लिए औषधीय उपयोग की होती हैं। वहीं प्रकृति में मौजूद हर चीज़ पारिस्थितिक संतुलन के लिए ज़रूरी है। ऐसी सभी चीज़ों का ज्ञान होना लाभदायक होता है। उन सभी चीज़ों की रक्षा करना और सचेत रूप से प्रकृति का संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है। लगभग सभी पर्वों में प्रकृति के प्रतीक रूप में पांच या सात तरह के पेड़ों के पत्ते, जिनमें आम, बरगद, पीपल वगैरह शामिल हैं। फिर पान और केले के पत्तों की भूमिका है। अक्षत, शहद, हल्दी, सिंदूर पाउडर (कुंकुम), सुपारी, गन्ना, चंदन, नारियल (श्रीफल), नई रुई (कपास) वगैरह केवल दिखावटी चीजें नहीं हैं, बल्कि घर में प्रकृति की उपस्थिति है। प्रत्येक पर्व के लिए तय सामग्री उस ऋतु में, स्वाभाविक रूप से उपलब्ध होती हैं। अतः उस ऋतु में, उस माह में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, इसका उचित मार्गदर्शन भी पर्वों के माध्यम से प्राप्त हो जाता है। हरेक ऋतु में, मानव शरीर, विशेष रूप से मेटाबोलिज्म अलग-अलग स्तर पर होता है। मसलन चातुर्मास (बरसात) के चार महीनों में वह शिथिल होता है, इसलिए चातुर्मास की संरचना ही इस बात का स्पष्ट मार्गदर्शन देती है कि इस अवधि में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। दीपावली शरद ऋतु का पर्व है, उसके साथ सर्दियों की शुरुआत होती है, तब हम अपेक्षाकृत भारी भोजन करने लगते हैं। इस दौरान शरीर में गर्मी पैदा करने वाले खाद्य पदार्थों को प्रोत्साहित किया जाता है।
दमकती रहे दस्तकारी
सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक मिट्टी और लकड़ी के खिलौने और बर्तन जीवन और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इन कलाओं को पूरी तरह खत्म होने से बचाना होगा। देश और विदेश में मिट्टी और लकड़ी के इन खिलौनों को संरक्षण देने वाले काफी लोग हैं। जरूरत है उन तक माल पहुंचाने की। दीपावली के मौके पर सड़कों के किनारे मिट्टी के खिलौने बेचने वालों की संख्या घटती जा रही है। इससे एक परंपरागत कौशल का अंत तो हो ही रहा है, साथ ही रोज़गार का संकट भी पैदा हो रहा है। ये खिलौने कुशल कारीगरों द्वारा पीढ़ियों से गढ़े जाते रहे हैं, जो देश की विशाल सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हैं। केंद्र सरकार ने हाल में इस कौशल को संरक्षण देने की दिशा में पहल की है। हरियाणा के झज्जर की मिट्टी को टैराकोटा खिलौनों में तराशकर दिल्ली के शिल्पकार दयाचंद राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। इस शिल्पकार ने अपने खिलौनों को ऑस्ट्रिया, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और ओमान आदि देशों में लगी प्रदर्शनियों में विदेशी पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करने का काम किया है। लकड़ी के खिलौनों का परंपरागत कौशल भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। अलबत्ता दक्षिण भारत के घरों में आज भी गोलू सजाने की परंपरा के कारण सौ-सौ साल पुराने खिलौने देखे जा सकते हैं। वाराणसी में लकड़ी के खिलौनों की कला से हजारों महिलाएं जुड़ी हैं। पश्चिम बंगाल का शहर कृष्णानगर भी अपने खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। असम के अशरिकांडी टैराकोटा खिलौने, राजस्थान, गुजरात और बिहार के घोड़े, हाथी, और गाड़ियों का अपना स्थान है, वहीं तमिलनाडु के तंजावुर के खिलौने वार्षिक गोलू उत्सव में प्रदर्शित किए जाते हैं। उत्तर भारत में ब्रज के इलाके में शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को टेसू और झांझी गीत हवा में गूंजते थे। लड़के टेसू लेकर घर-घर जाते थे और लड़कियां झांझी। अब बच्चे मोबाइल फोनों पर ज्यादा व्यस्त रहते हैं और ये परंपराएं पिछड़ती जा रही है।
दीपों की रोशनी और पटाखों की जरूरत
दीपावली पर रोशनी से खुशी का इज़हार होता है। कुछ लोगों का विचार है कि पटाखे छोड़ने से भी खुशी जाहिर की जाती है। पर इसकी सीमा क्या है? यह सवाल पिछले कुछ वर्षों से देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाके यानी दिल्ली-एनसीआर में पूछे जा रहे है। बढ़ते प्रदूषण के कारण सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों से यहां पटाखों पर रोक लगा रखी थी, पर इस साल वह रोक हटा दी गई है। चीफ जस्टिस और एक अन्य न्यायाधीश की बेंच ने यहां ग्रीन पटाखे जलाने की इजाजत दे दी है। साथ ही यह भी कहा है कि इन्हें केवल निर्धारित समय और स्थानों पर ही जलाएं। इनकी बिक्री का समय भी तय कर दिया गया है। अदालत ने कहा कि हमने पर्यावरणीय चिंताओं, त्योहारों के मौसम की भावनाओं और पटाखा निर्माताओं की आजीविका के अधिकार को ध्यान में रखा है। बहरहाल अभी लोगों को परंपरागत पटाखों और ग्रीन पटाखों का अंतर भी समझ में नहीं आता है। ग्रीन पटाखे, जिन्हें पर्यावरण को बचाने और मुश्किल में फंसे पटाखा उद्योग को सहारा देने के लिए बनाया गया है, पारंपरिक पटाखों की तुलना में 20 से 30 प्रतिशत तक कम पार्टिकुलेट मैटर (हवा में घुलने वाले छोटे कण) और 10 प्रतिशत कम गैसीय उत्सर्जन करते हैं। इनके शोर का स्तर भी चार मीटर की दूरी से 125 डेसिबल से कम होता है। हालांकि, विशेषज्ञ कहते हैं कि भले ही ये कम प्रदूषण फैलाते हों, लेकिन जब बड़ी संख्या में एक साथ जलाए जाएंगे, तो प्रदूषण को बढ़ाएंगे ही। इस बार दिवाली पिछले सालों की तुलना में कुछ जल्दी मनाई जा रही है। इस दौरान मौसम की स्थिति, जैसे तेज़ हवाएं प्रदूषकों को फैलाने में मदद कर सकती हैं। बहरहाल इस साल प्रदूषण की स्थिति क्या रहेगी, यह देखना होगा।
पर्यावरण-मित्र दिवाली मनाएं
यदि आप जिम्मेदार नागरिक हैं, तब आप पर्यावरण संरक्षण में मददगार हो सकते हैं। आप यथा-संभव पर्यावरण-मित्र दिवाली मनाएं। ऐसी जो घरों को धुंध और धुएं के बजाय खुशियों से भरे। पटाखों की तेज़ आवाज़ और धुआं दोनों नुकसानदेह हैं। सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी ज़हरीली गैसें सांस से जुड़ी समस्याएं पैदा करती हैं। आप दीये, मोमबत्तियां या लालटेन जलाकर भी जश्न मना सकते हैं। ये पारंपरिक प्रतीक हैं जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सकारात्मकता और शांति लाएंगे। हमारा सुझाव है कि प्लास्टिक और अन्य ज्वलनशील वस्तुओं की सजावट की जगह प्राकृतिक और बायोडिग्रेडेबल सामग्री का इस्तेमाल करें। बिजली की खपत कम करने और परंपरागत कारीगरों की मदद करने के लिए बिजली की लड़ियों के बजाय मिट्टी के दीयों का इस्तेमाल करें। रासायनिक रंगों के बजाय चावल के आटे, फूलों या हल्दी से बनी रंगोली सजाएं। कपड़े, कागज़ या पत्तों से हाथ से बने तोरण आज़माएं। उपहार देने हैं, तो इनडोर पौधे, त्वचा को स्वस्थ रखने वाले ऑर्गेनिक उत्पाद, हस्तनिर्मित मोमबत्तियां और जूट या कपड़े के बैग दें। परंपरागत दस्तकारों के बनाए मिट्टी या लकड़ी के खिलौने भी उपहार में दे सकते हैं। सफाई के लिए रासायनिक एजेंटों के बजाय, नींबू, सिरके और बेकिंग सोडा से बने प्राकृतिक क्लीनरों का इस्तेमाल करें। कृत्रिम रासायनिक सुगंधों के बजाय परंपरागत इत्र, लैवेंडर या चंदन के तेलों का उपयोग करें।
-लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।