तलाक में ‘सुकून’ की तलाश
भारतीय समाज में तलाक को विवाह के रिश्ते का अंत माना जाता है। यानी दंपति के जीवन में दु:खद घटना। लेकिन अकसर यह लंबे संघर्ष, भावनात्मक तनाव के बाद लिया गया अंतिम फैसला होता है- असहज रिश्ते से मुक्ति पाकर ‘सुकून’ की तलाश का, नयी शुरुआत का। जहां बदलते परिवेश में समाज को तलाक व तलाकशुदा लोगों के प्रति सोच बदलने की जरूरत है वहीं इन मामलों में कानूनी जटिलताएं कम करके बेहतरी की ओर बढ़ने के लिए, ठोस कानूनी सुधार आवश्यक हैं।
तलाक शब्द सुनते ही समाज में एक अजीब-सा माहौल बन जाता है— दुःख, असफलता और टूटे हुए रिश्तों की निराशा का माहौल। तलाक को अक्सर हार या कानूनी लड़ाई के लेंस से देखा जाता है। समाज और यहां तक कि कानून भी इसे ‘विवाह का टूटना’ मानकर चलता है। लेकिन क्या तलाक हमेशा एक अंत ही होता है? या क्या यह वास्तव में उस ‘सुकून’ की तलाश में लिया गया एक साहसपूर्ण कदम है, जो एक मृतप्राय रिश्ते में गुम हो चुका था? आज के बदलते सामाजिक परिवेश में, तलाक को सिर्फ ‘विच्छेद’ नहीं, बल्कि स्वयं की खोज और एक बेहतर जीवन की ओर बढ़ने के रूप में देखने की आवश्यकता है।
Advertisementटूटे रिश्ते की कीमत और सुकून की तलाश
कोई भी व्यक्ति विवाह का फैसला टूटने के लिए नहीं लेता। जब दो लोग अलग होने का निर्णय लेते हैं, तो यह अक्सर लंबे संघर्ष, भावनात्मक तनाव, और आपसी सम्मान के खत्म हो जाने के बाद लिया गया अंतिम फैसला होता है। कई मामलों में, पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं, और उनका घर एक युद्ध का मैदान। ऐसे रिश्ते में बने रहना दंपति व उनके बच्चों के लिए भी हानिकारक होता है।
इस असहज रिश्ते से मुक्ति पाना ही वह ‘सुकून’ है, जिसकी तलाश तलाक़शुदा व्यक्ति करता है। यह सुकून कलह से मुक्ति का, दिखावे से आजादी का और आत्म-सम्मान की बहाली का होता है। यह स्वीकार करने का साहस है कि ‘हार’ मान लेना ही कभी-कभी सबसे बड़ी जीत होती है।
सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव आवश्यक
दुर्भाग्य से, भारतीय समाज अभी भी तलाकशुदा व्यक्तियों को संदेह और दया की दृष्टि से देखता है। एक तलाकशुदा महिला को ‘कमजोर’ या ‘अधूरी’ और एक पुरुष को ‘लापरवाह’ समझा जाता है। यह रूढ़िवादी सोच है। हमें समझना होगा कि तलाक किसी की नैतिक विफलता नहीं है, बल्कि दो व्यक्तियों की असंगतता की स्वीकारोक्ति है। समाज को तलाकशुदा लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील और सहायक बनना चाहिए।
जटिलताओं की जड़ें और कानूनी चुनौतियां
जटिलताओं की जड़ें और कानूनी चुनौतियां भारत में तलाक की कानूनी प्रक्रिया को बोझिल और तनावपूर्ण बनाती हैं। आपसी सहमति से तलाक में धारा 13बी के तहत छह महीने की अनिवार्य ‘कूलिंग ऑफ’ अवधि, यद्यपि पुनर्विचार का अवसर प्रदान करने के लिए बनाई गई है, लेकिन अपरिवर्तनीय रूप से टूटे रिश्तों में अनावश्यक रूप से दुख और तनाव को बढ़ाती है। इस अवधि को माफ करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति (अनुच्छेद 142 के तहत) निचली अदालतों तक नहीं पहुंच पाती है, जिसके लिए एक स्पष्ट विधायी समाधान आवश्यक है। इसके अलावा, भारतीय तलाक कानून अभी भी मुख्य रूप से ‘दोष सिद्धांत’ पर आधारित हैं, जो क्रूरता या व्यभिचार जैसे किसी पक्ष के ‘दोष’ को सिद्ध करने पर जोर देता है। ‘विवाह का अपरिवर्तनीय टूटना’ को तलाक के एक स्वतंत्र आधार के रूप में औपचारिक रूप से शामिल न करना कानूनी प्रक्रिया को और अधिक कड़वाहटपूर्ण बनाता है। अंत में, भरण-पोषण, बच्चों की कस्टडी, और घरेलू हिंसा जैसे संबंधित मामलों के लिए विभिन्न अदालतों (परिवार न्यायालय, आपराधिक न्यायालय) में समानांतर रूप से एकाधिक मंचों पर मुकदमेबाजी का बोझ न्यायिक समय और पक्षों के आर्थिक संसाधनों की बर्बादी करता है।
नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मानसिक क्रूरता’ के आधार पर तलाक को मंजूरी देकर एक महत्वपूर्ण नज़ीर स्थापित की। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लंबे समय से अलग रहना और भावनात्मक संबंधों का समाप्त हो जाना, साथ ही एक पक्ष द्वारा लगाए गए गंभीर आरोप जो दूसरे पक्ष को मानसिक पीड़ा पहुंचाते हैं, क्रूरता के दायरे में आते हैं। इस निर्णय के तहत, कोर्ट ने ‘इर्रिट्रीवेबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज’ को तलाक का एक अलग आधार बनाने की भी सिफारिश की। इसके बाद, नवीन कोहली मामले के सिद्धांतों का प्रयोग करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में यह माना है कि जब विवाह पूरी तरह से टूट चुका हो और सुलह की कोई गुंजाइश न हो, तो वह संविधान के अनुच्छेद 142(1) में निहित अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करके तुरंत तलाक दे सकता है। इस असाधारण शक्ति का उपयोग करने का मुख्य उद्देश्य वैवाहिक मुकदमेबाजी को कम करना और दोनों पक्षों को गरिमा के साथ जीवन में आगे बढ़ने की अनुमति देना है। यह न्यायिक कदम कानूनी प्रक्रियाओं में लगने वाले अनावश्यक विलंब को कम करता है और पक्षों को वर्षों तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने से बचाता है।
नए अध्याय की ओर
तलाक के बाद का जीवन चुनौतियों से भरा होता है, लेकिन यह वास्तव में अनंत संभावनाओं के द्वार भी खोलता है। यह वह महत्वपूर्ण समय है जब व्यक्ति अपने भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए, अपने सपनों, कैरियर और व्यक्तिगत हितों पर फिर से ध्यान केंद्रित कर सकता है। जहां बच्चे शामिल हैं, वहां सबसे ज़रूरी है कि माता-पिता अपने मतभेद भुलाकर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखें और उनके लिए एक सहयोगात्मक वातावरण बनाएं। इस दौरान ‘पैरेलल पैरेंटिंग’ करना एक अच्छा तरीका है, जहां दोनों माता-पिता अपने-अपने तरीके से बच्चे की परवरिश करते हैं, लेकिन हमेशा सम्मानपूर्वक संवाद बनाए रखते हैं। दरअसल, इस सकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाना ज़रूरी है: तलाक एक अंत नहीं है, बल्कि यह उस यात्रा का अंतिम पड़ाव है जिसके बाद एक शांत, खुशहाल जीवन की शुरुआत होती है।
वास्तविक उदाहरण : ‘डिवोर्स मुबारक’ का जश्न
भारत में तलाक को अब एक दुखद अंत नहीं, बल्कि एक नई और आज़ाद शुरुआत के रूप में मनाया जाने लगा है। यह मानसिक स्वास्थ्य और आत्म-सम्मान को प्राथमिकता देने की बढ़ती सामाजिक चेतना को दर्शाता है। केरल में, एक ‘दिवोर्स कैंप’ का आयोजन किया गया, जहां तलाकशुदा, अलग हो चुकी या विधवा महिलाओं ने प्रकृति के बीच एक-दूसरे के साथ बंधन बनाया। यह पहल महिलाओं को सामाजिक लांछन से ऊपर उठकर, अपने दर्दनाक अनुभवों को साझा करने और अंततः ‘सोल सिस्टर्स’ बनकर भावनात्मक संबल प्रदान करने का एक बेहतरीन उदाहरण है। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक व्यक्ति ने दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से मुक्त होकर लौटी अपनी बेटी के तलाक को एक नई शुरुआत के रूप में मनाया। बैंड-बाजे के साथ बेटी का स्वागत किया, यह भावुक और शक्तिशाली कदम समाज को संदेश देता है कि तलाक कोई कलंक नहीं, बल्कि हिम्मत से लिया गया फैसला है।
पुरुषों के लिए भी, यह ‘आज़ादी’ उतनी ही मायने रखती है, जैसा कि असम के माणिक अली ने साबित किया, जिन्होंने तनावपूर्ण रिश्ते से कानूनी मुक्ति मिलने पर 40 लीटर दूध से नहाकर अपनी खुशी व्यक्त की। वहीं, हरियाणा के एक व्यक्ति ने तो ‘फ़्रीडम पार्टी’ ही आयोजित कर दी। ये सभी उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि तलाक अब एक तरह से ‘पुनर्जन्म’ है। यह लोगों को सिखाता है कि उनकी खुशी का स्रोत केवल एक रिश्ता नहीं, बल्कि उनकी अपनी आज़ादी, आत्म-सम्मान और आगे बढ़ने की अदम्य इच्छा है।
सरल समाधान के लिए नये कदम
नागरिकों के लिए कानूनी जटिलताओं को कम करके ‘सुकून’ की दिशा में बढ़ने के लिए, ठोस कानूनी सुधार आवश्यक हैं। इन सुधारों में मुख्य रूप से प्रतीक्षा अवधि में कटौती और छूट का स्पष्ट नियम शामिल है, जिसके तहत आपसी सहमति से तलाक में मध्यस्थता विफल होने और पूर्ण सहमति होने पर फैमिली कोर्ट को छह महीने की अवधि कम करने या हटाने की स्पष्ट वैधानिक शक्ति मिलनी चाहिए। इसके साथ ही, ‘विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने’ को सभी व्यक्तिगत कानूनों में तलाक का एक प्राथमिक और सम्मानजनक आधार बनाना चाहिए। यह बदलाव अदालतों पर ‘दोष सिद्ध करने’ के अनावश्यक बोझ को कम करेगा।
न्यायिक प्रक्रिया को गति देने और विरोधाभासी आदेशों को समाप्त करने के लिए, ‘एकीकृत फैमिली कोर्ट दृष्टिकोण’ अपनाना अनिवार्य है, जिसमें भरण-पोषण, कस्टडी और तलाक के सभी मामले एक ही अदालत और न्यायाधीश के समक्ष लाए जाएं। इसके अतिरिक्त, मुकदमेबाजी से पहले पेशेवर और प्रभावी मध्यस्थता को अनिवार्य करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सौहार्दपूर्ण समाधान, विशेषकर बच्चों से संबंधित संवेदनशील मुद्दों पर, निकालने में मदद करती है। दूर रहने वाले पक्षों को राहत देने के लिए, तलाक मामलों में ई-फाइलिंग और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसी तकनीक का व्यापक रूप से उपयोग करना चाहिए। यह सत्य है कि कानूनी जटिलताएं कभी भी न्याय का पर्याय नहीं हो सकतीं; वे केवल एक अनावश्यक सज़ा बन जाती हैं। ‘तलाक में सुकून की तलाश’ केवल एक भावनात्मक नारा नहीं है, बल्कि यह समय की मांग है कि हम अपने कानूनी ढांचे को मानवीय संवेदनशीलता और सामाजिक वास्तविकता के अनुरूप ढालें। सरकार और न्यायपालिका मिलकर इन सुधारों पर तत्काल विचार करें ताकि तलाक की प्रक्रिया लंबी कानूनी लड़ाई के बजाय एक गरिमापूर्ण अंत बन सके और दोनों पक्षों को सम्मानपूर्वक आगे बढ़ने का अवसर मिले।
तलाक केवल रिश्ते को खत्म करने की एक कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि व्यक्ति के लिए अपनी ‘अंदरूनी शांति’ को एक मूलभूत अधिकार के रूप में पुनः प्राप्त करने का साधन है। ‘सुकून’ तलाक के कागज़ों में नहीं, बल्कि उस नए जीवन की नींव में छिपा है जो व्यक्ति साहस और गरिमा के साथ बनाता है। जब तक हम तलाक को ‘अशुभ’ घटना मानते रहेंगे, तब तक हम उन लोगों को अकेला छोड़ते रहेंगे, जिन्हें वास्तव में सहयोग की सबसे अधिक आवश्यकता है। तलाक एक अंत नहीं, बल्कि उस यात्रा का अंतिम पड़ाव है, जिसके बाद एक शांत, खुशहाल और अधिक प्रामाणिक जीवन की शुरुआत होती है। -लेखक कुरुक्षेत्र विवि के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।
