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राजनीतिक विश्लेषण : हरियाणा कांग्रेस में पक रही सीएलपी लीडरशिप की ‘खिचड़ी’

रिपोर्टें आईं, बैठकें हुईं, लॉबिंग तेज़ रही... लेकिन 10 महीने बाद भी फैसला कागज पर अटका
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हरियाणा कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) का नेता कौन होगा? यह सवाल पिछले दस महीने से ‘दिल्ली दरबार’ और हरियाणा के सियासी गलियारों में घूम रहा है। पर्यवेक्षकों ने रिपोर्ट दे दी, कुछ विधायक खुलकर समर्थन जता चुके हैं, लेकिन हाईकमान अब तक चुप है। वजह- बंद कमरों में जो फुसफुसाहटें हो रही हैं, वे साफ इशारा करती हैं कि मामला सिर्फ नाम तय करने का नहीं, बल्कि पूरे समीकरण बदलने का है।

दिल्ली से जुड़े सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस आलाकमान के सामने सबसे बड़ी पहेली है- ‘हुड्डा नहीं तो कौन’। प्रदेश में पार्टी के 37 विधायकों में से दो दर्जन से ज्यादा हुड्डा के साथ हैं। लेकिन विरोधी गुट ने सीधे संदेश दिया है कि अगर हुड्डा को फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाया गया तो वे चुप नहीं बैठेंगे। सूत्र कहते हैं, हाल ही में एक गुप्त बैठक में एक वरिष्ठ एंटी-हुड्डा नेता ने दिल्ली में साफ शब्दों में कहा, ‘अगर हरियाणा फिर से सिर्फ एक चेहरे के इर्द-गिर्द चलेगा तो हम खुला विद्रोह करेंगे।’

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राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत, वरिष्ठ नेता अजय माकन और पंजाब में नेता प्रतिपक्ष प्रताप सिंह बाजवा ने आलाकमान को रिपोर्ट दी। भले ही, हरियाणा से एक लाइन का प्रस्ताव- यानी फैसला नेतृत्व पर छोड़ा, गया है। सूत्रों का कहना है कि यह बात भी नेतृत्व तक पहुंच चुकी है कि हुड्डा के पास नंबर हैं, लेकिन प्रदेश में पार्टी की मजबूती के लिए अब ‘एकमात्र’ चेहरा नहीं रख सकते। यह भी कहा गया है कि संगठन (प्रदेशाध्यक्ष) और विधायक दल के फैसले एक साथ नहीं किए जाएं, वरना ‘विस्फोट’ तय है। प्रदेश प्रभारी से लेकर राहुल की खुद की ‘एजेंसियों’ की रिपोर्ट महीनों से दराज में दबी हैं।

क्योंकि जिस दिन इसे लागू किया जाएगा, उसी दिन पार्टी में ‘खुला बंटवारा’ सामने आ जाएगा। दोनों ही पदों में पार्टी जातिगत संतुलन भी साधने की जुगत में है। लंबे समय से इन पदों पर जाट और एससी चेहरों को मौका मिलता आया है। अब कांग्रेस किसी नये प्रयोग पर भी मंथन कर रही है।

राहुल गांधी का ‘गुप्त प्लान’

कांग्रेस दफ्तरों में चर्चा है कि राहुल गांधी हरियाणा में पुराने समीकरण तोड़ने के मूड में हैं। जिलाध्यक्षों की लिस्ट में दिग्गजों को काटकर नये चेहरों को लाना उसी प्लान का हिस्सा था। एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राहुल चाहते हैं कि हरियाणा कांग्रेस किसी एक वर्चस्व से बाहर निकले। लेकिन इसके लिए उन्हें पहले सही चेहरा ढूंढना है। इसीलिए फैसला लेने में देरी हो रही है।

दिल्ली पहुंची यह रिपोर्ट भी

प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेताओं की ओर से दिल्ली दरबार को कई अंदरुनी रिपोर्ट भी सौंपी हैं। इन रिपोर्ट्स में यह बताने और जताने की कोशिश की गई है कि व्यक्ति विशेष के ‘वर्चस्व’ और ‘प्रभाव’ को कांग्रेस एकाध नहीं कई लोकसभा व विधानसभा चुनावों में देख चुका है लेकिन नतीजे उम्मीदों के हिसाब से नहीं आए। जिला व ब्लाक स्तर पर 11 वर्षों से संगठन नहीं बनने, नेताओं की गुटबाजी, जाति विशेष को अधिक महत्व मिलना जैसे कई अहम मुद्दे हैं, जो नेतृत्व के सामने फैसला लेने में बड़ी चुनौती बने हुए हैं।

सिटिंग-गेटिंग फॉर्मूला बना बोझ

टिकट वितरण में अपनाए गए ‘सिटिंग-गेटिंग’ फॉर्मूले ने भी पार्टी को नुकसान पहुंचाया। कई जगह पुराने चेहरों को ही दोहराने से कार्यकर्ताओं में निराशा रही। नेतृत्व के पास यह रिपोर्ट भी पहुंची है कि विधानसभा चुनावों में ‘बागियों’ ने बड़ा नुकसान पहुंचाया। एक दर्जन से अधिक सीटें कांग्रेस केवल अपनी ही पार्टी के बागियों की वजह से हार गई। इन नेताओं को मनाने की गंभीर कोशिशें भी नहीं हुईं। नये चेहरों को मौका देने के राहुल के फार्मूले की भी टिकट आवंटन में कदर नहीं हुई। बेशक, इसके लिए स्थानीय नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन नेतृत्व भी इसके लिए कम कसूरवार नहीं है। फैसलों को लटकाना और संतुलन नहीं बनाना- इन दोनों मोर्चों पर नेतृत्व की ही विफलता रही है।

नया ब्रेक : उपराष्ट्रपति चुनाव

चर्चाएं थीं कि सीएलपी लीडर और प्रदेशाध्यक्ष पर फैसला मानसून सत्र से पहले होगा। हरियाणा मामलों के प्रभारी बीके हरिप्रसाद ने भी इसकी पुष्टि की थी, लेकिन तभी उपराष्ट्रपति पद के उपचुनाव के ऐलान ने समीकरण बदल दिए। पार्टी सूत्रों के मुताबिक, पांच सांसदों वाले हरियाणा का हर वोट यहां निर्णायक है। इसीलिए कांग्रेस नेतृत्व ने तुरंत हरियाणा फाइल को ‘होल्ड’ पर डाल दिया।

बड़ी तस्वीर : गुटबाजी की पुरानी बीमारी

हरियाणा कांग्रेस में गुटबाजी नयी नहीं। भजनलाल के दौर से लेकर हुड्डा तक हर बड़े नेता के खिलाफ खेमा खड़ा होता आया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार आलाकमान खुद इसे ‘रीसेट’ करने की तैयारी में है।

अभी भी बने हुए हैं ये सवाल

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी, हुड्डा के सामने कोई नया चेहरा खड़ा करने का जोखिम लेंगे। अगर हुड्डा नहीं तो विपक्ष का ‘चेहरा’ कौन होगा। सबसे अहम यह है कि क्या हरियाणा कांग्रेस अपनी गुटबाजी को खत्म करके भाजपा से दो-दो हाथ करने की स्थिति में आ पाएगी। जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलता, हरियाणा कांग्रेस का नेतृत्व ‘दिल्ली दरबार की फुसफुसाहटों’ में ही उलझा रहेगा।

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