देश में अतीत में अंगदान से जुड़े कई उदाहरण व आदर्श मौजूद हैं लेकिन अंगदान की दर विदेशों के मुकाबले बहुत कम है। मृत्यु के बाद दूसरों के शरीर के लिए काम आ जाने वाले अंगों को दान देने वालों की संख्या बहुत मामूली है। दरअसल अंगदान के प्रति हमारे समाज में संकोच, अशुचि-भाव और भय बहुत गहरे हैं। जागरुकता की कमी के अलावा इसके पीछे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक और संस्थागत व प्रशासनिक जटिल कारण भी हैं।
यह सोचने वाली बात है कि जिस देश में परोपकार के लिए अपनी हड्डियों तक का दान दे देने वाले महर्षि दधीचि हुए हैं और अपनी जान की परवाह न करते हुए कवच और कुंडल का दान कर देने वाले अंगराज कर्ण हुए हैं, उस देश में आखिर ‘अंगदान-महादान’ सिर्फ एक नारा ही क्यों है? सचमुच अफसोस की बात है कि इतिहास में दानियों से भरे पड़े देश भारत का अंगदान के मामले में दुनिया में सबसे निचला स्थान क्यों है? दरअसल इसका उत्तर सिर्फ अंगदान के प्रति जागरुकता की कमी भर नहीं है बल्कि इसके पीछे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक और संस्थागत व प्रशासनिक जटिल कारण भी हैं।
पौराणिक आदर्श बनाम वास्तविकता
मौजूदा हकीकत यह है कि मृत्यु के बाद दूसरों के शरीर के लिए काम आ जाने वाले अंगों को दान देने वालों की संख्या ऊंगलियों पर गिनने लायक है। दरअसल अंगदान के प्रति हमारे समाज में संकोच, अशुचि-भाव और भय बहुत गहरे हैं। जैसा कि हम सब अपनी पौराणिक कथाओं में पढ़ते हैं कि महर्षि दधीचि ने देवताओं को दानवों से रक्षा करने के लिए अपनी हड्डियों का दान दे दिया था ताकि उनसे बनने वाले धनुष से वक्रासुर नामक राक्षस का वध किया जा सके। लेकिन आज किसी व्यक्ति के ‘ब्रेन-डेड’ हो जाने के बाद उसके परिजनों से उसके अंगों का दान करवाने के लिए हामी भरवाना बेहद कठिन है। इसलिए आदर्श हमारे चाहे जितने बड़े हों, वास्तविकता में हम उनके कहीं आसपास भी नहीं फटकते।
डरने की वजह
दरअसल अंगदान से डरने की सबसे बड़ी वजह मृत्यु से जुड़े मिथक और मनोवैज्ञानिक भय हैं। इसके चलते लोग चाहते हैं कि मृत्यु के बाद भी उनके शरीर को पूरा रखा जाए। यह भी धारणा है कि मृत्यु के बाद शरीर को चीरना महापाप है। एक नहीं अनेक मिथक हैं जिस कारण भारत के लोग फिर वह चाहे जिस धर्म या समुदाय से नाता रखते हों, अंगदान करने से घबराते हैं। इन मान्यताओं और विश्वासों के कारण ही लोग मर जाने के बाद भी अपने परिजनों के अंगों का दान नहीं करते।
ब्रेन-डेड के प्रति समझ का अभाव
भारत में अगर लोग अपने किसी परिजन के ब्रेन-डेड हो जाने के बाद भी उसके शारीरिक अंगों का दान करने से कतराते हैं, तो इसके पीछे एक बड़ी वजह ब्रेन-डेड की अवधारणा को सही से न समझ पाना भी है। जबकि दुनिया के ज्यादातर देशों में अंगदान का सबसे बड़ा स्रोत ब्रेन-डेड मरीज ही होते हैं। जबकि भारत में ऐसे लोगों को ‘अभी जीवित है’ मानकर उसके अंगों के दान से पीछे हट जाते हैं। भारत में ज्यादा से ज्यादा लोग अगर किसी मरीज के हृदय की धड़कन चल रही हो और वैज्ञानिक रूप से भले उसकी ब्रेन-डेथ हो चुकी हो, फिर भी उसे मरा नहीं समझते। कहीं न कहीं मन में उम्मीद बाकी रहती है कि शायद ब्रेन-डेड व्यक्ति दोबारा जीवित हो जाए। दरअसल अंगदान के मामले में सबसे बड़ी बाधा यही भावुक स्थिति है।
कुछ अस्पताल भी अनिच्छुक
भारत में अंगदान को लेकर सिर्फ यहां के लोग ही नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर हमारे यहां के अस्पताल भी इसके प्रति उदासीन रहते हैं। यही वजह है कि अंगदान को लेकर अस्पतालों में भी बड़ी धीमी और कई बार नकारात्मक प्रक्रिया देखने को मिलती है। क्योंकि आधुनिक अंगदान की वैज्ञानिक-प्रशासनिक प्रक्रिया है, इसलिए अगर अस्पताल इस प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका नहीं अदा करेंगे, तो उसे व्यावहारिक कर पाना संभव नहीं। सबसे पहले तो अस्पतालों में ब्रेन-डेड की ठोस घोषणा बहुत मुश्किल से होती है। फिर अस्पतालों में ट्रेंड ट्रांसप्लांट को-आर्डिनेटर का भी अभाव होता है और अगर किसी दूसरे अस्पताल से अंग प्राप्त करने की बात हो तो वहां से जरूरत की जगह तक अंग के पहुंचने के लिए साफ सुथरा, निर्बाध और सटीक रास्ता नहीं होता।
भारत में जीवित अंगदान दाता
वैसे 2023-24 की एक वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5,651 पुरुष और 9,784 महिलाएं ही जीवित अंगदान दाता थीं और साल 2024 में देश के अंदर 18,911 लोगों को अंग प्रत्यारोपण किये गये। भारत में मृत दाताओं का औसत प्रति दस लाख की आबादी में 0.5 है। जबकि भारत में अकेले हर साल 63 हजार लोगों को गुर्दा प्रत्यारोपण की ही जरूरत होती है और लगभग 22 हजार लोगों को हर साल लिवर प्रत्यारोपण की जरूरत होती है। लेकिन देश में अंगदान की चेतना और रुचि न होने के कारण ज्यादातर लोगों की जान बिना प्रत्यारोपण के ही चली जाती है।
विदेशियों में अंगदान की आदत
दूसरे देशों का इतिहास भले अंगदान देने वाले महापुरुषों से भरा न पड़ा हो लेकिन वहां भारत के मुकाबले बहुत बड़ी संख्या में ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों द्वारा उनके अंगों का दान करने की परंपरा है। सबसे ज्यादा स्पेन में प्रति 10 लाख की आबादी में 50 ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों द्वारा उनके अंगों को दान दे दिया जाता है। इसी तरह कोरिया में 39.96, जापान में 14.53 का अंगदान होता है। कुल मिलाकर भारत में जहां प्रत्यारोपण की दिन पर दिन जरूरतें बढ़ती जा रही हैं और प्रति 10 लाख लोगों में हमारे यहां सबसे ज्यादा अंग प्रत्यारोपण की जरूरत है। लेकिन भारत में अंग का दान देने वाले लोग मुट्ठीभर भी नहीं हैं। हम सिर्फ ऐसे मौके पर बार-बार ऐतिहासिक नामों का ही अतीत गुणगान करते रहते हैं। हकीकत में अंगदान से काफी दूर रहते हैं।
ग्रीन कॉरिडोर की भूमिका
कई बार जब ऐसे अंगदान सफल हुए हैं, तो उसमें बड़ी भूमिका ट्रांसपोर्टेशन के लिए बनाये गये ग्रीन कॉरिडोर की भी रही है। जबकि सामान्य तौरपर हिंदुस्तान के सभी छोटे, बड़े और मझोले नगर ट्रैफिक जाम का शिकार रहते हैं। ऐसे में अगर किसी मरीज के परिजन उसके अंगों का दान कर भी देते हैं, तो वे अगर दूसरी जगह पहुंचने हैं, तो वहां तक पहुंचने में बहुत दिक्कत होती है। भारत के कुछ ही राज्यों मसलन तमिलनाडु, तेलंगाना और महाराष्ट्र में ही ट्रांसप्लांट के लिए ग्रीन कॉरिडोर पर ध्यान दिया जाता है। देश के इन्हीं प्रांतों में सबसे ज्यादा ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों द्वारा उनके अंगों का दान किया जाता है। साल 2023 के आंकड़े देखें तो तमिलनाडु में 595, तेलंगाना में 546 और महाराष्ट्र में 426 और गुजरात में 421 ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों ने काम लायक उनके अंगों को दान दिया था। अन्य राज्यों में कर्नाटक भी एक महत्वपूर्ण राज्य है जहां 2023 में 471 ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों ने उनके अंगों का दान दिया, बाकी शेष भारत के सभी प्रदेशों में कुल 1099 ब्रेन-डेड लोगों के परिजनों ने ही उनके अंगों का दान किया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में यह कितनी बड़ी समस्या है। जबकि देश में 2023 में डोनर्स यानी ऐसे जीवित लोग जिन्होंने अपने परिजनों के लिए अपने अंगों का दान दिया, उनकी संख्या 15,435 थी और कुल मृत लोगों के शरीर के अंगों के दान की संख्या 2935 थी।
-इ.रि.सें.

