महामारी का सबब बन सकते हैं बर्फ से निकलते ‘दैत्य’
ग्लेशियरों में मौजूद बैक्टीरिया या वायरस जीवन के चिन्ह माने जाते हैं लेकिन इनसे बीमारियां-महामारियां पैदा करने का जोखिम भी जुड़ा है। जलवायु परिवर्तन या मानवीय हस्तक्षेप से यदि बर्फ पिघले तो अनुकूल वातावरण पाकर ये सूक्ष्मजीव पुन: सक्रिय या जीवित हो सकते हैं। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि वे मनुष्यों को संक्रमित कर सकते हैं। एक शोध के दौरान अलास्का की हजारों साल पुरानी बर्फ पिघलाने के बाद वायरस जीवित हुए भी। तेजी से ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है जिसमें पड़े संक्रामक सूक्ष्मजीवों का सक्रिय होना संकटकारी है। इस दिशा में अनदेखी से हजारों साल पुरानी महामारियों के वापस आने की आशंका है जो इंसानी जीवन के लिए तबाही का सबब बन सकती है।
अभी हमें नहीं मालूम कि हमारी पृथ्वी से परे इस ब्रह्मांड में कहीं और जीवन है या नहीं। लेकिन तमाम उपग्रहों, अंतरिक्ष वेधशालाओं और रेडियो संकेतों की छानबीन के बाद विज्ञानियों का मत है कि मंगल ग्रह या कहीं और धरती से परे जीवन की कोई संभावना सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया या वायरस) आदि के रूप में हो सकती है। मुमकिन है कि जिन ग्रहों-उपग्रहों पर बर्फ और पानी का तनिक भी अस्तित्व हो, वहां ऐसे सूक्ष्मजीव मिल सकते हैं जो जीवन पनपा सकें। नमी, गर्म मौसम और वायुमंडल में ऑक्सीजन सरीखी गैसें- जिंदगी पैदा करने के लिए यही सब कुछ तो चाहिए। जरूरत इतनी सी है कि इन सूक्ष्मजीवों को (अगर वे पृथ्वी से बाहर कहीं हैं, तो) किसी तरह सक्रिय यानी जीवित किया जा सके। पर हमारी पृथ्वी को जीवन के स्पंदन से भरने वाले बैक्टीरिया या वायरस की शक्ल वाले इन सूक्ष्मजीवों (माइक्रोऑर्गेनिज्म) की एक भूमिका और भी है। इनका दूसरा पहलू असंख्य बीमारियों और महामारियों को पैदा करने से जुड़ा है।
Advertisementसूक्ष्मजीवों के पुनर्जीवन में मौजूद जोखिम
पानी, हवा और जमीन के दृश्यमान माहौल से अलग पृथ्वी की अतल गहराइयों, बर्फ की कंदराओं और चट्टानी दरारों तक में मौजूद सूक्ष्मजीवों को अगर मौका मिले तो शायद वे पूरी कायनात को ही पलट कर रख दें। कोविड महामारी के दौर से ही ऐसी आशंकाएं सिर उठा रही हैं। इधर अमेरिका के कोलोराडो बोल्डर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अलास्का (आर्कटिक) की 40 हजार साल पुरानी बर्फ (पर्माफ्रॉस्ट- मिट्टी, बर्फ और चट्टानों का मिश्रण) के कुछ नमूनों को क्या पिघलाया, वे यह देखकर हैरान रह गए कि हजारों साल तक बर्फ में फंसे और जमे रहे सूक्ष्मजीव धीरे-धीरे जीवित हो गए। हालांकि सूक्ष्मजीवों का यह पुनर्जीवन कोई अच्छी खबर लेकर नहीं आया है। माना जा रहा है कि किसी साइंस-फिक्शन हॉरर फिल्म की तरह, ये प्राचीन संक्रामक सूक्ष्मजीव किसी जानवर पर आश्रित होकर अगली मानव महामारी का कारण बन सकते हैं। यह नई सूचना दशकों से प्रचलित उस मान्यता को स्थापित करते हुए प्रतीत हो रही है, जिसमें यह चेतावनी दी जाती रही है कि धरती की गहरी परतों में कैद प्राचीन बर्फ को छेड़ा न जाए क्योंकि इसके अंजाम बहुत बुरे हो सकते हैं। न तो उसकी खुदाई की जाए और न ही ऐसे हालात पैदा किए जाएं, जिससे यह खुद-ब-खुद पिघलने लगे।
छह माह चले प्रयोगों के निष्कर्ष
अलास्का में पृथ्वी की सतह से 350 फुट नीचे जिस इलाके से कोलोराडो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने नए नमूने जमा किए हैं, वहां 1960 के दशक में भी खुदाई की गई थी। ‘पर्माफ्रॉस्ट सुरंग’ के रूप में विख्यात इस जगह पर अति प्राचीन समय के विशालकाय जानवरों की हड्डियां जस की तस मौजूद हैं। यहां से लिए गए सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया से समूह) के नमूनों को पानी के बीच 39 से 54 फॉरेनहाइट तापमान रखकर जगाने की कोशिश की गई। छह महीने तक चले प्रयोगों के बीच पाया गया कि शुरुआत में इन बैक्टीरिया समूहों की बढ़वार बेहद धीमी थी, लेकिन इन्हीं में से कुछ ने अपने इर्दगिर्द एक पतला, चिपचिपा पदार्थ बनाना शुरू कर दिया। इस पदार्थ को बायोफिल्म के रूप में जाना जाता है, जो वायरस और बैक्टीरिया की रक्षा करता है और उन्हें फैलने में मदद कर सकता है। विज्ञानियों ने इसका नतीजा यह निकाला कि गर्म और नम माहौल देने पर बर्फ में सदियों तक जमे रहे सूक्ष्मजीव कुछ ही महीनों में जीवित और सक्रिय हो सकते हैं। यही असली खतरा है। पर्यावरणविद् और मौसम विज्ञानी जलवायु परिवर्तन के नतीजे में पृथ्वी के ध्रुवों पर जमी बर्फ को तेजी से पिघलते हुए देख रहे हैं। ऐसे में बैक्टीरिया और वायरस के रूप में जो असंख्य सूक्ष्मजीव सदियों से बर्फ की कैद में सोते रहे हैं, वे अचानक बर्फ पिघलने पर वहां से छिटककर धरती पर फैल सकते हैं और एक नई तबाही मचा सकते हैं। खतरा अवास्तविक नहीं है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं का मत है कि बर्फ में दबे और सोते हुए बैक्टीरिया सदियों तक पोषक तत्वों, गर्मी या प्रकाश के बिना जीवित रह सकते हैं। ऐसे सूक्ष्मजीवों को मृत मानना एक गलती हो सकती है। बल्कि सदियों के अंतराल के बाद भी ये अभी भी ऐसे मज़बूत जीवन को आश्रय देने में सक्षम हैं जो कार्बनिक पदार्थों को तोड़कर नए सिरे से पैदा हो सकता है।
अलास्का की बर्फ पर वैज्ञानिक चेतावनी
संकट यह है कि करीब 55 लाख वर्ग मील में फैला अलास्का (आर्कटिक) का यह बर्फीला इलाका वर्ष 1979 के बाद से पृथ्वी के किसी और इलाके के मुकाबले तीन से चार गुना ज्यादा तेजी से गर्म हुआ है। जलवायु परिवर्तन के कारण अभूतपूर्व तरीके से पिघल रही आर्कटिक की बर्फ के बारे में एक अनुमान यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का भी है। इस एजेंसी के मुताबिक पृथ्वी की सतह पर मौजूद इस इलाके के पर्माफ्रॉस्ट का दो-तिहाई हिस्सा वर्ष 2100 तक पिघलकर गायब हो सकता है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से हमारे ग्रह को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसें कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन निकलती हैं, जिससे समस्या और बढ़ जाती है। अमेरिका के एक अन्य विश्वविद्यालय- एमआईटी के शोधकर्ताओं का आकलन बताता है कि दुनिया के पर्माफ्रॉस्ट में 1,500 अरब टन कार्बन है - जो वर्तमान में वायुमंडल में मौजूद कार्बन की मात्रा से लगभग दोगुना है। यह भी बर्फ के पिघलते ही मानव सभ्यता की मुसीबतों में कई गुना बढ़ोतरी कर सकता है।
रोगाणुओं के संक्रमण पर वैज्ञानिकों की राय
पर्माफ्रॉस्ट से फूट पड़ने वाले वायरसों की आशंकाओं को लेकर कुछ ही समय पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की मुख्य वैज्ञानिक एंड्रिया हिनवुड ने एक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि अभी यह कहना मुश्किल है कि इन घटनाओं से हमें कितना चिंतित होना चाहिए। इसकी एक अहम वजह यह है कि अभी तक किसी प्राचीन वायरस से किसी महामारी के व्यापक प्रसार का जोखिम कम माना जाता है। लेकिन रोगाणुओं का फिर से उभरना केवल एक सैद्धांतिक खतरा नहीं है। इस बारे में मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथ कैरोलिना के शोधकर्ता डगलस जॉनसन का मत है कि एक प्राचीन वायरस पुनः सक्रिय होकर मनुष्यों को संक्रमित कर सकता है। वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पहले तथाकथित ‘ज़ॉम्बी वायरस’ के एक पुराने प्रकार को पुनर्जीवित किया था। हालांकि अभी तक एकाध मामलों को छोड़कर ज्यादातर पुनर्जीवित हुए वायरस केवल अमीबा को ही संक्रमित कर पाए हैं। इसकी वजह यह है कि ऐसे पुनर्जीवित वायरस नई परिस्थितियों में जीवित रहने के हिसाब से बहुत नाज़ुक होते हैं। लेकिन कुछ उदाहरण हैं, जो इसके संकट को जाहिर करते हैं। जैसे वर्ष 2016 में भीषण गर्मी के कारण साइबेरियाई इलाके में पर्माफ्रॉस्ट पिघला, तो वहां सदियों से बर्फ में जमे एक बारहसिंगा का शव बाहर आ गया। इस बारहसिंगा की मौत एंथ्रेक्स जीवाणु के प्रकोप से हुई थी। बाहर आए बारहसिंगा के शव में मौजूद एंथ्रेक्स के जीवाणुओं ने 2016 में इलाके में मौजूद बारहसिंगाओं और कई मनुष्यों को संक्रमित कर बीमार कर दिया था। इसी तरह 2019 ने आर्कटिक समुद्री बर्फ में पिघलन की घटना से उत्तरी प्रशांत महासागर में मौजूद ऊदबिलावों ने फ़ोसीन डिस्टेंपर वायरस के उभार का खतरा पैदा कर दिया। माना गया कि प्राकृतिक बर्फ अवरोध के नष्ट होने से इस वायरस की संवाहक सील मछली अन्य समुद्री स्तनधारियों के साथ संपर्क में आ गई। वर्ष 2022 में, फ्रांसीसी शोधकर्ताओं ने साइबेरियाई पर्माफ्रॉस्ट से एक अज्ञात वायरस को पुनर्जीवित किया। इनमें सबसे पुराना वायरस 48,500 साल पहले का था और अमीबा को संक्रमित करने में सक्षम था।
प्राचीन वायरसों के प्रति इम्यूनिटी का अभाव
प्राचीन वायरसों का सामने आकर हम इंसानों के लिए इस तरह खतरा बन जाने की एक मुख्य वजह है। कारण यह है कि हजारों साल तक निष्क्रिय पड़े रहे इन सूक्ष्मजीवों (वायरस) से मानव प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) का कोई संपर्क नहीं रहा। इससे इंसानों में इनके खिलाफ इम्युनिटी पैदा नहीं हो पाई या फिर इनसे बचाव के लिए कोई उपाय नहीं बन पाया। हालांकि प्राचीन वायरसों की वापसी के लिए बर्फ का जलवायु परिवर्तन के कारण पिघलना ही अकेली वजह नहीं है। आर्कटिक में शिपिंग और खनन आदि बढ़ती औद्योगिक गतिविधियां भी लोगों को पर्माफ्रॉस्ट से फूट निकलने वाले सूक्ष्मजीवों के संपर्क में लाती हैं। जैविक कारकों के अलावा पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से कई और दिक्कतें पैदा होती हैं। जैसे ऐतिहासिक शीत युद्ध युग के दौरान शीत भंडारण गृहों में रखे गए रसायनों की लीकेज, भारी धातुओं और रेडियोधर्मी कचरे के विकिरण से भी पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो सकती हैं। साथ ही, जलवायु परिवर्तन समूचे पारिस्थितिकी तंत्र में वे बदलाव ला सकता है, जिनसे विभिन्न पशु-प्रजातियों के बीच नए किस्म की अंतःक्रियाओं के चलते जूनोसिस यानी जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाली बीमारियों के फैलने की रफ्तार बढ़ सकती है।
आशंकाओं के बीच कुछ फायदे भी
असल में, वैज्ञानिक वर्षों से चेतावनी देते रहे हैं कि पर्माफ्रॉस्ट में अज्ञात बैक्टीरिया और वायरस मौजूद हैं, जिनके मानव स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। स्वीडन के उमेओ विश्वविद्यालय की माइक्रोबायोलॉजिस्ट बिरगिट्टा इवेनगार्ड ने 2016 में दावा किया था कि वैसे तो हमें पूरी तरह यह मालूम नहीं है कि वहां क्या दबा है। लेकिन यह भानुमती का पिटारा हो सकता है। इनमें से कुछ सूक्ष्मजीवों में पहले से ही एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो चुकी होगी, क्योंकि उन्हें कठोर परिस्थितियों के अनुकूल होना पड़ा है। इनमें से कुछ प्रजातियां पूरी तरह से नई हो सकती हैं। इसलिए उन्हें जगाने या फिर पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अलबत्ता, एक बात ऐसी है जो बर्फ में दबे सूक्ष्मजीवों की खोज-खबर लेने के लिए प्रेरित करती है। असल में, सूक्ष्मजीवों का अध्ययन करने से विशेषज्ञों को वहां (पर्माफ्रॉस्ट में) मौजूद चीज़ों की बेहतर समझ मिलती है। प्राचीन बैक्टीरिया संक्रमण का कारण बन सकते हैं, लेकिन यह चिकित्सा उपयोग के लिए नए एंटीबायोटिक्स विकसित करने में भी मदद कर सकता है। आर्कटिक की मिट्टी में पाया जाने वाला एक जीवाणु तेल रिसाव को साफ़ करने में भी मदद कर सकता है।
जलवायु परिवर्तन से खुली वायरसों की राह
पुराने वायरसों का फिर से सिर उठाना, वायरसों का म्यूटेशन (उत्परिवर्तन), और नए अनजाने वायरसों का अचानक हमला बोल देना- यह एक ऐसी पहेली है जिसने हाल के दो-तीन दशकों में चिकित्सा और विज्ञान जगत के लिए नई चुनौती पैदा की है। पूरी दुनिया में ऐसे सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह महज संयोग है कि जैसे-जैसे हमारा चिकित्सा तंत्र हर मर्ज के सटीक इलाज के दावे की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे नए-नए वायरसों की फौज आक्रामक ढंग से हमले करने लगी है। या फिर यह प्रकृति का कोई प्रकोप है जो संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण अपने बचाव के लिए इंसानों के खिलाफ अपने पैंतरे दिखा रही है। या कहीं इसके पीछे उन ढके-छिपे वायरसों की कोई कहानी तो नहीं है जिस पर अभी तक किसी की नजर नहीं गई, लेकिन जलवायु परिवर्तन से पैदा ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण उन वायरसों के उद्भव की एक राह खुल गई है। मामला दिलचस्प होने के साथ-साथ काफी संगीन भी है क्योंकि कुछ ऐसे खुलासे हुए हैं जो साबित कर रहे हैं कि बर्फीले ग्लेशियरों में कई जाने-अनजाने वायरसों के पूरे खानदान मौजूद हैं। इनमें से एक मामला पश्चिमी तिब्बत पठार में मौजूद ग्लेशियर का है, जहां अमेरिकी विज्ञानियों के दो दलों ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी और लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं की टीमों) ने 1992 और 2015 में किए गए अध्ययन के बाद वहां की बर्फ में पंद्रह हजार साल पुराने वायरसों की मौजूदगी का दावा किया। इस दावे से संबंधित एक शोध रिपोर्ट पांच साल पहले 2020 के आरंभ में कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी द्वारा संचालित बायो आर्काइव डाटाबेस में प्रकाशित की गई थी। रिपोर्ट में बताया गया कि तिब्बती ग्लेशियर की बर्फ को करीब 50 मीटर (164 फुट) गहराई तक ड्रिल करने के बाद वहां पाए गए 33 में से 28 ऐसे वायरस समूहों की मौजूदगी मिली, जिन्हें पहले कभी नहीं देखा गया है। कहा गया कि ये वायरस ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते बर्फ पिघलने से पूरी दुनिया में हजारों साल पहले की महामारियों को वापस ला सकते हैं।
अलास्का की बर्फ में संक्रामक सूक्ष्मजीव
हालांकि पहले एक आशंका यह भी जताई जाती रही है कि नए सूक्ष्मजीव (वायरस) पृथ्वी से बाहर के हो सकते हैं और हो सकता है कि वे उल्का पिंडों के जरिए पृथ्वी पर पहुंचे हों। लेकिन आर्कटिक, साइबेरियाई और हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ की अतल परतों में की गई ड्रिलिंग से अंदरूनी बर्फ की परतों में मिले सुप्त सूक्ष्मजीवों ने किसी बाहरी प्रवेश की आशंकाओं को कम कर दिया। बल्कि अलास्का के बेहद ठंडे इलाके- टुंड्रा इलाके में हुई एक खोज ने बर्फ के दैत्यों के कारनामे उजागर कर दिए। इस इलाके में दूसरे विश्व युद्ध के समय मृत हुए सैनिकों के शव दफनाए गए थे। विज्ञानियों ने इन शवों की जांच की तो पता चला कि उनमें 1918 के भीषण स्पेनिश फ्लू के अवशेष मौजूद थे। साइबेरिया की बर्फ में भी इसी तरह दफनाए गए शवों में बुबोनिक प्लेग और चेचक जैसे संक्रमणों के अवशेष पाए गए। अमेरिका की स्पेस एजेंसी – नासा के विज्ञानियों ने भी जब अलास्का की बर्फ को खंगाला तो वहां उन्हें वूली मैमथ के दौर का कार्नोबैक्टीरियम प्लीस्टोकेनियम नामक जीवाणु कैद मिला जो साबित करता है कि अनजान और अदृश्य जगहों से कभी भी, कोई भी अनजान वायरस अचानक प्रकट हो सकता है और सभ्यता को संकट में डाल सकता है।
अनदेखी पड़ सकती है भारी
यूं वायरसों-बैक्टीरिया से इंसान की जंग को अब दवाओं और वैक्सीनों जैसे काफी हथियार मिल गए हैं, लेकिन लापरवाहियों की लंबी फेहरिस्त, संकट की अनदेखी, उत्परिवर्तन और अनजाने वायरसों के अचानक उभर आने की स्थितियों में सारे प्रबंध धरे रह जाते हैं- कोरोना वायरस के किस्से ने यह साबित कर ही दिया है। यह भी एक घोर लापरवाही है कि पर्यावरणविद् जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग आदि मानव जनित समस्याओं को लेकर सचेत कर रहे हैं, लेकिन उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा। ऐसे में यदि बर्फीले ग्लेशियरों की बर्फ तेजी से पिघली और ढके-छिपे वायरसों ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया तो कहना मुश्किल है कि पृथ्वी पर इंसानी आबादी को सुरक्षित बचा लिया जाएगा। इस मामले में नवंबर 2020 में साइंस पत्रिका साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित रिपोर्ट को चेतावनी की तरह लेना चाहिए। रिपोर्ट में लिखा गया कि पृथ्वी पर जिस तेजी से बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, उससे भविष्य में अनजान खतरों का सामना करना पड़ेगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक बर्फ की गहराइयों में न जाने कितने वायरस और बैक्टीरिया दबे हो सकते हैं जो बर्फ पिघलने से बाहर आए तो कोरोना वायरस से बड़ा खतरा हो सकता है। उपाय यही है कि इस बर्फ को पिघलने से रोकने के लिए कदम उठाए जाएं। विशेषज्ञ सलाह यह है कि एक सक्रिय, विज्ञान-सम्मत नजरिया अपनाते हुए आर्कटिक में पर्माफ्रॉस्ट की पिघलन और पशु आबादी की निरंतर निगरानी की व्यवस्था बने। चूंकि ‘एकल स्वास्थ्य’ दृष्टिकोण प्रेरित रणनीति यह मानती है कि मनुष्यों, पशुओं और पर्यावरण का स्वास्थ्य आपस में जुड़ा हुआ है। इसलिए विभिन्न वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहयोग की बेहद जरूरत है। आखिर में ग्लोबल वार्मिंग की रोकथाम भी जरूरी है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना पर्माफ्रॉस्ट की पिघल दर धीमा करने और प्राचीन सूक्ष्मजीवों और अन्य खतरों को दूर रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। - लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।