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देवभूमि और दानवी हसरतें

पहाड़ों में हालिया मानसूनी आपदा के संबंध में हिमालय सिद्ध अक्षर से बातचीत
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देवभूमि से यदि तबाही का संदेश आए तो तय है कि प्रकृति-देवी रुष्ट है। सदियों से साधु-संतों की साधना स्थली रही हिमालयी पर्वत शृंखला में बसे हिमाचल-उत्तराखंड से मानव कल्याण के ही संदेश आए। उच्च ऊर्जा स्रोत व आध्यात्मिक भूमि में स्थित बड़े तीर्थस्थल जन-जन की आस्था के प्रतीक रहे हैं। इस बार मानसूनी प्रवाह में जन-धन की व्यापक क्षति से व्यथित हिमालय में दशकों साधना करने वाले हिमालय सिद्ध अक्षर ने अपने आहत मर्म के उद्गार कुछ यूं व्यक्त किए।

देवभूमि में हाल की अभूतपूर्व त्रासदी ने हमें आत्ममंथन को बाध्य किया कि हमें पहाड़ों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। यह भी कि संसार में कुछ स्थान आध्यात्मिक व धार्मिक निमित्त ही होते हैं। जब उसे देवभूमि कहते हैं तो उसे देवी-देवताओं के लिये संवारना भी जरूरी है। उसी के अनुरूप कारोबार, बाजार व व्यवहार की व्यवस्था होनी चाहिए। होटल हों या रिट्रीट सेंटर- उस संस्कृति के अनुरूप ही बनें।

सारी दुनिया में विभिन्न धर्मावलंबियों ने ऐसा ही किया है। उदाहरण के लिये वेटीकन सिटी को लें तो उसका परिवेश एक आध्यात्मिक नगरी के रूप में तैयार किया गया है। इसी तरह मक्का-मदीना को देखिए वहां पर लोग सिर्फ धार्मिक कार्यों के लिये ही जाते हैं। वहां सीमेंट फैक्ट्री, लिकर या क्लब का लाइसेंस मांगने कोई नहीं जाता। इतना सब कुछ होने के बावजूद एक रिच इंड्रस्टी की आधारभूमि भी बनी हुई है वेटीकन सिटी। आम आदमी सोचता है कि कहां आ गया मैं स्वर्ग में। हमारा हिमाचल बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन विकृत व्यावसायिक पर्यटन ने इसके मूल-स्वरूप से खिलवाड़ किया है। जिसकी अनुमति पहाड़ का परिवेश नहीं देता है। देवभूमि, विशेषकर इसके पहाड़ी इलाके सिर्फ अध्यात्म की राजधानी बनने योग्य ही हैं।

बची रही पहाड़ की मर्यादा

अब मनाली को ही लें, करीब चार हजार होटल हमने बना दिए हैं। अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि चार हजार होटल बनाने के लिये प्राकृतिक व्यवस्था का कितना अतिक्रमण किया गया होगा। कहने को कोई कह सकता है कि ये मेरी जमीन है। लेकिन जब होटल बनाओगे तो मिट्टी की स्थिति बदलेगी और पेड़ काटे जाएंगे। पहाड़ का स्ट्रक्चर हिलेगा। एक पहाड़ की संवेदनशील स्थिति में चार हजार होटल होना एक बड़ा नंबर है। वहीं दूसरी तरफ दया का तर्क है कि प्राकृतिक आपदा से होटल उद्योग ठप हो गया है। उनसे जुड़े बीस-तीस हजार लोगों की रोजी-रोटी का संकट है। लेकिन सवाल पर्यटकों के पहाड़ की संस्कृति के विरुद्ध आचरण का भी है। उसका व्यवहार सीखा-सिखाया तो नहीं होता जो पहाड की कल्चर व मर्यादा के अनुरूप हो। कुछ दिन मौज-मस्ती के लिये आया व्यक्ति प्रकृति के मूल व्यवहार में हस्तक्षेप तो करता है लेकिन आपदा के वक्त खिसक लेता है। जैसा कि हम मानते हैं कि देवभूमि है तो देवता है... तो जब हमारा आचरण प्रकृति के विरुद्ध होता है तो देवता की भी किसी बात पर नाराजगी तो हो सकती है। जो किसी बड़ी परेशानी का कारण बन सकता है।

उद्दंडता का दंड

हमें एक सांकेतिक कथा सुनायी जाती है- शिवजी द्वारा गणेश जी को उद्दंडता का दंड देने की। यह महज एक सांकेतिक कथा है। कोई पिता अपने पुत्र के साथ ऐसा नहीं कर सकते, खासकर देव तो बिल्कुल नहीं। सांकेतिक निहितार्थ यह हैं कि कोई भी मर्यादा से परे जाएगा तो फिर उसका नुकसान होगा ही।

कमोबेश यह स्थिति हिमाचल और उत्तराखंड की है। ऐसी स्थिति हरिद्वार-ऋषिकेश से लेकर चारधाम तक की है। ये देवभूमि देवताओं की भूमि। इस 140 करोड़ के पूरे देश में इन दोनों राज्यों के पहाड़ी क्षेत्र के लोगों की आबादी एक करोड़ के आसपास होगी। एक जैसे ही चार-पांच पहाड़ होंगे। इस पूरे इलाके को स्प्रीचुअल राजधानी को डेडिकेट कर दिया जाए। इसके विपरीत यदि अन्य कार्य होंगे तो नुकसान होगा। यहां समृद्ध मिनरल का खजाना है। प्राकृतिक खेती हो सकती है। हर्ब्स जीविका का आधार बन सकते हैं। उसके अनुरूप जीवन से ही ये पहाड़ संरक्षित रहेंगे। यहां पब व डिस्को कल्चर अवॉइड किया जाना चाहिए। अब देखिए चंडीगढ़ इतना सुंदर सिटी है। इसे आप डांस की सिटी बना दें। यूथ की सिटी बना दें। ऐसे में देवी-देवताओं के स्थान को डिस्को का केंद्र बनाने की कोई सेंस नहीं बनती। आगे मर्यादा की बात करें और पीछे से विलासिता, तो यह नहीं चलेगा।

आम आदमी सरकार सारा दोष सरकार को दे देता है। उसने ये नहीं किया, वो नहीं किया। फिर यह राजनीति का मुद्दा बन जाता है। लेकिन हमने पहाड़ की अस्मिता को बचाने के लिये क्या किया...।

देवभूमि और विकास की प्रकृति

पहाड़ों में विकास के गणित की विडंबना देखिए कि हमने कथित विकास में हजार करोड़ का इनवेस्टमेंट किया और चार हजार करोड़ का नुकसान हो गया। तो ये कैसा विकास हुआ... कुदरत का संदेश यही है कि जो जगह आपने मंदिर को दे दी, उस जगह में कॉमर्शियल बिल्डिंग मत बनाओ।

हिमाचल व उत्तराखंड देवभूमि कही जाती हैं। बसों में लिखा भी होता है कि देवभूमि में आपका स्वागत है। लेकिन पहाड़ों में लौकिक समृद्धि से जुड़ी चीजें करना विकास नहीं हो सकता। सेंसिबल बात करें। ऊर्जाओं के साथ बात करें। एक तरफ हम देवभूमि की बात करें और दूसरे तरफ विकृति मौज-मस्ती की। स्प्रीचुअल राजधानी के विचार का बहुत बड़ा दायरा है। हमारे सामने हेल्थ टूरिज्म का विकल्प है। बशर्ते प्रकृति के अगेंस्ट न हों। स्प्रीचुअल कंस्ट्रक्शन प्लानिंग से भी किया जा सकता है। इसे कायदे से करने की जरूरत होगी। संवेदनशील पहाड़ों में सीमेंट फैक्ट्री बन रही हैं। किसी ने नहीं सोचा कि खनन व प्रदूषण आदि अन्य प्रक्रियाओं से प्रकृति को कितना नुकसान हुआ होगा। किसी को आइडिया नहीं कि पहाड़ की जड़ें कहां हैं, कहां नहीं और इसके दरकने का कोई समाधान नहीं है। पानी कहां से आ रहा है, कहां जा रहा। कुछ जगहों को ऐसी रहने दें जो आधुनिकता व विकास की विसंगतियों से दूर रह सकें।

दुनिया में कई जगहें ऐसी हैं, जो सिर्फ और सिर्फ अध्यात्म व धर्म की जगहें हैं। तमाम मन की शांति की अच्छी चीजें बनी हैं। विश्व के लोगों की आत्मिक शांति के लिये बनी हैं। जहां लोग तमाम मनो-कायिक रोगों से ठीक होते हैं। यदि उचित प्रबंधन व दूरदर्शी नजरिया हो तो दस गुना आय हो सकती है। आज जल प्रलय से उपजी त्रासदी का ठीकरा ग्लोबल वॉर्मिंग के सिर फोड़ा जाता है। दुहाई कि ये सब ग्लोबल वॉर्मिंग की देन है। ये तो सोचें कि यदि चार बिल्डिंग की जगह हम चार सौ बिल्डिंग बना दें तो ग्लोबल वॉर्मिंग आएगी ही। हमने इतने सारे पेड़ काट दिए। सदियों से नदी के साथ पेड़ होते थे। व्यास नदी के बहाव के साथ दोनों किनारों पर पेड़ होते थे। जिससे वे किनारों की मिट्टी को पकड़ सकें। हाईवे बनाने के नाम पर सारे उड़ा दिए। हाईवे बना दिए मगर मिट्टी को कौन पकड़ेगा। कुदरत का इंतकाम देखिए कि तीस अगस्त को टूटे हाईवे पर काम किया फिर दो सिंतबर की बारिश ने निर्माण को फिर उड़ा दिया। पहाडों का अपना सिस्टम है। मानवीय हस्तक्षेप ज्यादा पसंद नहीं है।

अवैज्ञानिक विकास की घातकता

विडंबना देखिए कि हाईवे के नाम पर 90 डिग्री पर पहाड़ काट दिए गए। चीन व ताइवान के विकास के मॉडल को देखिए। वहां भी पहाड़ के साथ सामंजस्य से सड़कें बनी, लेकिन 45 डिग्री के साथ। कितनी संवदेनशील इंजीनियरिंग यूज की गई। फलतः मलबा तेजी से नीचे नहीं आएगा। जबकि पहाड़ों को 90 डिग्री पर काटने-पीटने से सीधा मलबा नीचे गिरेगा। हाईवे बनाने के दौरान इतनी ब्लास्टिंग की गई कि हिमाचल के लोगों ने ऐसा जिंदगी में नहीं देखा। पहाड़ों में ऐसे काम होगा तो पहाड़ कैसे बचेगा। मंडी में हाणुगी मंदिर वाली बेल्ट में किस निर्ममता से पहाड़ों को काटा गया है। इससे करोड़ों करोड़ों लागत से बने हाईवे को नुकसान ही पहुंचेगा।

पहाड़ को सम्मान देकर हो विकास

हमें पहाड़ों को सम्मान देकर विकास करना चाहिए। जिनके लिये कथित विकास किया जा रहा है, वे ही मर रहे हैं। कई जगहों पर घर के घर, बर्तन, जानवर बह गए। कई जगह बड़ी संख्या में लोग मिट्टी में दब गए। इन्हीं के लिये विकास करने का वायदा था। जब जीवन खतरे में हो तो विकास क्या करेगा। पानी का सैलाब खेत खलिहानों को बहा ले जाता है। जब जमीन पहाड़ से चली जाती है तो फिर नहीं मिलती। सरकार भी जमीन नहीं दे पाती। सरकार के पास कोई प्रावधान नहीं है जमीन देने का। तो अपनी जमीन आम आदमी के लिये स्वप्न बनकर रह जाती है। जीवनभर वापस नहीं आती। लाखों लोग भय-असुरक्षा में जी रहे हैं। उनकी मानसिक स्थिति खराब है। ये क्या हो गया.. ये दैवीय प्रकोप क्यों.. किससे सांत्वना लें। पीड़ितों की पैसे की मांग है। स्वाभिमानी लोगों को हालात ने याचक बना दिया। सरकार राहत के नाम पर कुछ मदद कर भी दे तो क्या गारंटी कि अगले साल अतिवृष्टि में खेत-खलिहान नहीं जाएगा।

डेथ बैड पर बैठे हैं

पूरा कुल्लू नदी के साथ बसा है। भुंतर एअर पोर्ट से जब आप हाईवे पर चलें तो पंद्रह-बीस हजार मकान नदी के साथ बने हुए हैं। ऐसी क्या गारंटी है कि कल बादल नहीं फटेगा और मकान नहीं जाएगा। सही मायने में ये डेथ बेड पर बैठे हैं। जो भी जमीन नदी के दायरे में है तो उड़ेगी जरूर। उत्तराखंड में सौ मीटर की दूरी पर निर्माण का नियम बना है। लेकिन नियम नये निर्माण वालों के लिये, मानने तो पुराने निर्माण वालों ने हैं,, जिन्होंने उसमें अपने जीवन की पूंजी लगा दी।

दरअसल, सही समय पर प्राकृतिक परिवेश की रक्षा होनी चाहिए। हमने नदियों में कितने कटे पेड़ों को बहते देखा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम आध्यात्म की जगह पर व्यापार की सोच रहे हैं। लोगों को समझना होगा कि प्रकृति के अनुकूल कार्यों से ज्यादा तरक्की होगी। पहाड़ विरोधी नीतियों से नुकसान होगा। आध्यात्मिक पर्यटन हेतु आवागमन के लिए सस्ती दर पर फ्लाइट व्यवस्था करें। नये रोड बनाने की बजाय पुराने रोड ठीक कर देते तो पहाड़ बचते। सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जतायी है कि हालात ऐसे रहे तो हिमाचल नक्शे में कहां नजर आएगा। हिमाचल हो या उत्तराखंड- ये पहाड़ ही तो हैं। पहाड़ गए तो फिर क्या..फिर कहां सुंदरता रहेगी। जीवन में दुख आएगा ही।

आध्यात्मिक साधना स्थली

पहाड़ एक आध्यात्मिक भाव का नाम है। हम सही जगह गलत काम कर रहे हैं। हम स्नान की जगह में भोजन खाने लगे तो गड़बड़ तो होगी। प्राचीन काल से देवभूमि एक आध्यात्मिक साधना की स्थली रही है। उसमें कथित डेवलपमेंट से होने वाले नुकसान के प्रति हमें सचेत होना होगा। अन्यथा कल्पना से परे नुकसान होगा। इस बार मॉनसूनी कहर में हम देख चुके हैं। व्यापक जन हानि के साथ, इस बार नुकसान पंद्रह से दो हजार करोड़ से अधिक हो सकता है। ऐसा ही नुकसान 2023 में भी हुआ था। तब मनाली में न बिजली थी न इंटरनेट। और चारों तरफ हा-हाकार। तब पुल के पुल उड़ा दिए। तब 2023 में भी हिमाचल देश से कटा रहा। तय मानकर चलिए कि हिमाचल का असर पंजाब पर भी होगा, डॉट जुड़े हैं। आप ऊपर नहीं संभालेंगे तो पानी टूटेगा। पानी का तीव्र बहाव नहीं देखता कि कौन बच्चा है और कौन बूढ़ा। हमारी तरफ से सांत्वना है। भारत सबके साथ है। दक्षिण भारत से भी राहत सामग्री भेजी जा रही है। लेकिन एक बात तय है कि हमने हिमालय की रक्षा न की तो नुकसान होगा।

जापान से सीखें

जापान भी तो है। वहां कितनी किस्म के प्राकृतिक संरचनात्मक खतरे हैं। लेकिन वो खुद को कितनी अच्छी तरह प्रोटेक्ट कर के चल रहा है। उसने फिलहाल अपनी रक्षा कर रखी है। निर्माण के नियम सख्त हैं। हर व्यक्ति ईमानदारी से पालन करता है। पेड़ों को गले लगाने के विचार को जापान ने पूरी तरह विकसित कर लिया है। पहाड़ों के साथ बात करना, नंगे पैर चलना आदि प्रयासों को नये-नये नाम दिए गए हैं। प्रकृति के अनुकूल संस्कृति बनायी है। हम कुछ करते ही नहीं। हम अपनी प्राचीन संस्कृति का दावा करते हैं। पेड़ की पूजा करते हैं फिर जमकर काटते हैं। इस बार की बाढ़ में भारी मात्रा में बहती कटी लकड़ी वनों के साथ क्रूरता को दर्शाती है।

ताइवान की अनुकरणीय पहल

ताइवान में वन विरासत की रक्षा पूरी साइंस के साथ की जाती है। नेशनल फोरेस्ट के एलीशन क्षेत्र में हजारों साल पुराने पेड़ों की रक्षा की गई। वहां पेड़ों के संरक्षण के नियम हैं, चलने के नियम, क्या लाएंगे और क्या नहीं, परमिशन लेकर आना होता है। सुरक्षा के लिये सेना लगी है। पूरा पहाड़ पेड़ों से कवर है। वे पर्यटन से खूब पैसा भी कमाते हैं। नाम है एलीशन क्षेत्र। वहां तीन हजार वर्ष पुराने साइप्रस, ताईचोंग वलो लैंड कैंफर पेड़ हैं। हजार हजार साल पुराने पेड़ हैं। इससे ज्यादा रक्षा नहीं की जा सकती। जबकि ताइवान वॉलकैनो बेल्ट पर बसा है, कभी भी ज्वालामुखी फट सकता है। वहां तमाम गर्म पानी के स्रोत हैं। हर दूसरी-तीसरी स्ट्रीट में गर्म पानी। होटलों व घरों में सल्फरिक पानी की सप्लाई होती है। वैज्ञानिक आधार है, कोई अंधविश्वास नहीं फैलाया जा रहा है। घरों तक जाता है गर्म पानी। टैक्स लगता है। लोग खुशी से पैसे देते हैं।

प्रकृति के अनुकूल तलाशें आय के साधन

सवाल है जिस हिमाचल में सेब बेचकर करोड़ों कमा सकते हैं, वहां सीमेंट क्यों बेचना है। माउंटनेरिंग के संस्थान खोले जा सकते हैं। कितने हर्ब हैं हमारे पास। गुच्छी मशरूम व सेफरन की दुनियाभर में मांग होती हैं। उत्तराखंड मे खेती बंद करके लोग निकले हुए हैं। पूरा उत्तराखंड खाली है। अपने काम करें। तमाम मिनरल पहाड़ में हैं। संजीवनी बूटी यहीं थी। सुंदर-मीठा पानी है, पैकेजिंग करके दुनिया को दे सकते हैं। ये छोड़ कर मैदानों की तरह व्यवसाय करेंगे तो फिर तो नुकसान होगा।

अपसंस्कृति और पर्यटन

मनुष्य चिरकाल से मुक्त रहा है। लेकिन हम आज वेस्टर्न लाइफ स्टाइल का अंधानुकरण कर रहे हैं। दुनिया में मौज-मस्ती की अलग जगहें बनायी गई हैं। वहां आनंद लें। यदि हिडंबा में दर्शन को जाएं तो वहां स्कर्ट का काम नहीं। ऐसे ही शर्ट व जींस का भी काम नहीं। यदि परंपरागत धोती कुर्ता पहन लें तो हमारी तरफ से रिस्पेक्ट है। ड्रेस हमारी संस्कृति बताती है। यदि हम साधना या आस्था में हों, तो उस समय ड्रेस उसी प्रकार की होगी। आज यूथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जुड़े हैं। कपड़े कैसे भी पहनें, तकनीक जीवन है। लेकिन जो आस्था के स्थल हैं, वहां मनुष्य से बड़ी कोई अन्य शक्ति है। वो शक्ति मनुष्य से सौ गुना अधिक शक्तिशाली है। विज्ञान से हमारा प्रयोग कुछ बड़ा है। आंख बंद करने का काम नहीं। कुछ बड़ा है हम उसकी अनदेखी न करें।

 

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