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फिल्मी दिवाली में प्रतीकों के जरिये बहुत कुछ कहने की परंपरा

पर्दे पर दीप पर्व
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फिल्मों में हर त्योहार का अपना अलग प्रसंग और संदर्भ है। होली जहां मस्ती के मूड, विलेन की साजिश के असफल होने और नायक-नायिका के मिलन का प्रतीक बनता है। जबकि, दिवाली का फ़िल्मी कथानकों में अलग ही महत्व देखा गया। जब फ़िल्में रंगीन नहीं थी, तब भी दिवाली के दृश्य फिल्माए गये। पर, वास्तव में दिवाली को प्रतीकात्मक रूप ज्यादा दिया गया। अधिकांश पारिवारिक फिल्मों में दिवाली मनाई गई, पर सिर्फ लक्ष्मी पूजन, रोशनी और पटाखों तक सीमित नहीं रही। दिवाली की रात फिल्मों के कथानक में कई ऐसे मोड़ आए जिनका अपना अलग भावनात्मक महत्व रहा है। आज भी यही परंपरा जारी है। यशराज, राजश्री जैसे बैनर्स की ज्यादातर फिल्मों में दिवाली जरूर मनाई जाती रही है।

फ़िल्मी कथानकों में दिवाली का त्योहार कुछ अलग है। होली या जन्माष्टमी के प्रसंग फिल्मों में धूम, मस्ती और कहानी में मोड़ का कारण बनते हैं, पर दिवाली कहानी का हिस्सा होते हुए, कई फिल्मों में प्रतीकात्मक और भावनात्मक अर्थ रखता है। रोमांटिक व पारिवारिक फिल्मों में त्योहार के दृश्य परिवार, भारतीय परंपरा और भावनात्मक पुनर्मिलन के प्रतीक रहे हैं। दिवाली के दृश्यों वाली और उस थीम को दर्शाने वाली कई यादगार फिल्में हिंदी सिनेमा के उस इतिहास में दर्ज हैं, जो ब्लैक एंड व्हाइट से आजतक फैला हुआ है। इस त्योहार को प्रतीकात्मकता और बदलते दृष्टिकोण के रूप में भी देखा गया। यही वजह है कि दिवाली के दृश्य कई बार घर वापसी, एकजुटता, नई शुरुआत और पारिवारिक मूल्यों के प्रतीक बने। नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं ‘तारे जमीं पर’ जैसी कुछ फ़िल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं। ऐसे में ‘जंजीर’ का प्रसंग अलग ही है, जिसमें नायक अमिताभ बच्चन बचपन में दिवाली के धमाकों के बीच अपने माता-पिता की हत्या होते देख लेता है और पूरी फिल्म में खलनायक को खोजता है। दरअसल, फ़िल्मी कथानकों में दिवाली को न केवल जश्न, बल्कि भावनाओं, मेल-मिलाप और पारिवारिक रिश्तों के गहरे प्रतीकों के साथ चित्रित किया गया। इस कारण यह त्योहार फिल्मों में भारतीय जीवनशैली और संवेदनाओं का अभिन्न हिस्सा बना।

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संबंधों में गर्माहट के भावनात्मक प्रतीक

2001 की फिल्म ‘कभी ख़ुशी कभी गम’ में दिवाली पूजन, घर की सजावट, पारिवारिक पुनर्मिलन दर्शाया गया जिसमें जया बच्चन अपने बेटे शाहरुख के लौटने का इंतजार बेहद भावुक तरीके से करती दिखाई देती हैं। यह दृश्य परिवार के पुनर्मिलन एवं भारतीय भावनाओं को दर्शाने वाली दिवाली के प्रतीक से जोड़ता है। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म ‘मोहब्बतें’ में दिवाली के मौके पर ‘जोड़ों में बंधन है’ गीत सुनाई देता है, जो पारिवारिक रिश्तों, रोशनी और उल्लास के उत्सव का अहसास कराता है। जबकि, ‘वास्तव’ में संजय दत्त दिवाली पर परिवार से जिस तरह मिलते हैं, वह सामाजिक-आर्थिक संघर्ष के बीच उत्सव की गर्माहट का प्रतीक हैं। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) ऐसी फिल्म रही, जो दिवाली पर रिलीज होकर सबसे ज्यादा सफल फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दिवाली के अवसर पर बॉक्स ऑफिस की मिसाल मानी जाती है।

उत्सव के साथ संवेदनशीलता भी

दिवाली पर फिल्मी गीत, घर-आंगन की साज-सज्जा, पूजा, पारिवारिक समागम और सामाजिक समरसता फिल्मों में भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। यही वजह है कि फिल्मों में हमेशा से दिवाली को बहुत खास और रंगीन अंदाज में दिखाया गया। क्योंकि, ये ऐसा त्योहार है जो हमेशा ही पारिवारिक मेलजोल, खुशी, भावनात्मक पुनर्मिलन और रोशनी के प्रतीकों के साथ प्रस्तुत किया जाता रहा है। इससे यह त्योहार सिनेमा के रूप में भारतीय संस्कृति की आत्मा दर्शाता है। लेकिन, दिवाली पहली बार परदे पर कब दिखाई गई, यह बताना जरा मुश्किल है। लेकिन, 1960 की फिल्म ‘जुगनू’ का गाना ‘मेरा तुम्हारा सबका यहां ...’ एक दिवाली दृश्य के उदाहरणों में गिना जाता है। ’90 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गीतों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई देने लगे। हम आपके हैं कौन (1994) में दिवाली पर परिवार के साथ ‘धिक ताना’ जैसे गाने से उत्सव और सामूहिकता का जश्न दिखाई दिया। जबकि, ‘चाची 420’ (1997) में पटाखों से दुर्घटना के सीन और बच्चों की सुरक्षा के जरिए दिवाली की रियलिटी की झलक दिखाई गई। ‘तारे ज़मीं पर’ (2007) फिल्म में दिवाली के मौके पर अकेलेपन और घर की याद की भावनाएं बयां की गईं, जिससे त्योहार का संवेदनशील पक्ष उजागर हुआ। ‘वास्तव’ (1999) में फिल्म का मुख्य किरदार अपने परिवार से दिवाली पर मिलता है और ‘पचास तोला सोना’ जैसा डायलॉग को त्योहार के अलग ही रंग से जोड़ता है। 2001 की फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ का गीत ‘आई है दिवाली सुनो जी घरवाली’ जैसे मस्तीभरे गाने के साथ आम लोगों की दिवाली भी दिखाई गई।

सामाजिक बदलाव की गहराई से प्रस्तुति

फिल्मों में दिवाली के बदलते सामाजिक अर्थों को समय के साथ बहुत गहराई और विविधता के साथ दिखाने के प्रयोग भी किए गए। पहले, ज्यादातर फिल्मों में दिवाली पारंपरिक, पारिवारिक आयोजन के रूप में मनती थी। लेकिन, हाल के दशकों में यह व्यक्तिगत बदलाव, घर वापसी, सामाजिक बदलाव और आंतरिक संघर्षों का प्रतीक बन गई। पारंपरिक से आधुनिक संदर्भों में सामाजिक विकास से तात्पर्य है, घर वापसी और आपसी मेल-मिलाप। यह भी कहा जा सकता है कि दिवाली का प्रतीक लंबे अरसे बाद घर लौटना, परिवार का मिलना और गिले-शिकवे दूर करने का बहाना भी बन गया। ‘कभी खुशी कभी गम’ में राहुल (शाहरुख़ खान) की घर वापसी दिवाली के मौके पर दिखाई जाती है, जिससे त्योहार परिवार और रिश्तों की शक्ति का वाहक बन गया। जबकि, ‘मोहब्बतें’ में यही भावनात्मक मोड़ लाता है। दिवाली पर पारिवारिक प्रसंग कई फिल्मों में कहानी में मोड़ लाता है जिसमें रिश्ते बदलते हैं, चरित्रों की सोच और भावनाएं नई दिशा की तरफ मुड़ती हैं। याद किया जाए तो राजश्री की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में कुछ ऐसा ही था।

सामाजिक चेतना व बदलाव का जरिया

आधुनिक फिल्मों में दिवाली केवल त्योहार तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्ममंथन, व्यक्तिगत बदलाव और सामाजिक चेतना का उपाय भी बनती दिखाई दी। ‘स्वदेश’ में फिल्म के नायक के भीतर यह उत्सव देश से जुड़ाव और बदलाव का प्रतीक बनता है। जबकि ‘तारे जमीं पर’ में अकेलापन, परिवार की चिंता और अंतत: स्वीकृति की भावना दिखाई दी। सामाजिक संदर्भ में इस फिल्म को देखा जाए, तो ‘वास्तव’ जैसी फिल्मों में दिवाली अपराध और सामाजिक सच्चाई से जुड़े दृश्यों पर भी केंद्रित है, जिससे यह सिर्फ खुशी नहीं, सामाजिक जटिलताओं का प्रतीक भी बनती है। पुराने समय की फिल्मों में साधारण पारिवारिक उत्सव और पूजा के छोटे सीन होते थे। जबकि, अब ये दृश्य भव्य पार्टियों, आधुनिकता और रिश्तों की जटिलताएं प्रस्तुत करते हैं। विशेष परिस्थितियों में दिवाली के प्रसंग ने ‘अनुराग’ या ‘वक्त’ जैसी फिल्मों में सामाजिक टूटन या त्रासदी की भूमिका भी निभाई, जिससे त्योहार में संवेदना और जीवन की सच्चाइयां दिखती हैं।

दरअसल, फिल्मों में दिवाली केवल रोशनी और उल्लास का ही उत्सव नहीं, बल्कि पुनर्मिलन, व्यक्तिगत विकास, सामाजिक विचार और संबंधों की विविधता का रूपक बनी है। समय के साथ दिवाली में सामाजिक बदलाव, भावनात्मक गहराई और समकालीन समाज के सवालों को भी फिल्मों में बखूबी से पिरोया गया। ’90 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गानों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई देने लगे। यह भी गौर करने वाली बात है कि नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं कुछ फिल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं।

पारिवारिक ताने-बाने संग पेश रीति-रिवाज

जहां तक दिवाली के प्रतीक और रीति-रिवाजों का सवाल है, तो फिल्मों में प्रतीकों और रीति-रिवाजों को अक्सर रंगीन, भावनात्मक और पारिवारिक भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया गया। इन दृश्यों में परंपरागत पूजा, दीपक-दीये, पटाखे, मिठाइयां, रंगोली और पारिवारिक मिलन जैसे त्योहार के मूल तत्व प्रमुखता से दिखाए जाते रहे हैं। दिवाली के प्रमुख प्रतीक के रूप में घर की सजावट में दीपक ‘कभी खुशी कभी ग़म’ में भव्य सजावट और दीयों की कतारें दिखाई दी। कई फिल्मों में महिलाएं और बच्चे मिलकर रंगोली बनाते दिखाई देते रहे। रंगीन और कलात्मक रंगोली घर के आंगन, प्रवेश द्वार और पूजा स्थल के पास बनाई जाती है। इसी तरह परिवार के सदस्यों के साथ लक्ष्मी-गणेश पूजन और आरती ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘कभी खुशी कभी ग़म’ में दिखाई दी। ‘चाची 420’ और ‘गोलमाल 3’ में फुलझड़ी और पटाखों से हल्के-फुल्के हादसे फिल्माए गए। ऐसे उत्सव पर परिवार के सामूहिक भोज का भी अपना अलग महत्व है। ऐसे दृश्य ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘मोहब्बतें’ के गानों में दिखाई दिए। दिवाली के मौके पर बिछुड़े परिवारों का मिलन, पुराने गिले-शिकवे दूर होना ‘कभी खुशी कभी ग़म’ और ‘वास्तव’ में दिखाया गया है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि फिल्मों में दिवाली सिर्फ रोशनी, दीपक, सजावट और पटाखों तक सीमित नहीं है। बल्कि, प्रतीकात्मक रूप से इन सभी प्रसंगों का अपना अलग ही महत्व है।

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