अब नजर नहीं आता सच दिखाने वाला सिनेमा
सिनेमा को मनोरंजन का सशक्त माध्यम माना जाता है। लेकिन, मनोरंजन का आशय सिर्फ मन बहलाव नहीं होता। प्रेम कहानियों, नाच-गाने और मारधाड़ के बाद फिल्म का सुखांत ही मनोरंजन नहीं होता। जीवन के यथार्थ, लोगों की पीड़ा और सच्चाई से रूबरू होना भी मनोरंजन का अहम हिस्सा है। सच दिखाने वाली फिल्मों की कहानियां ख़ास इसीलिए होती हैं, साथ ही ये अपनी या अपने आसपास की लगती हैं। इन फिल्मों में शोषण, अंधविश्वास और पाखंड पर चोट, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे सच दिखाने वाली ये फ़िल्में परदे से लोप हो गईं।
समानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बहुत गहराई से दिखाता रहा है। यह हिंदी सिनेमा का वह पक्ष है, जिसमें आम आदमी के जीवन की जद्दोजहद, असमानता और बदलाव को सही ढंग से दर्शाया जाता है। ऐसे सिनेमा को ‘आर्ट सिनेमा’ या ‘नया सिनेमा’ नाम भी दिया गया। फिल्मों के कथानक का यह चलन 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ और बाद में इसे हिंदी समेत हर भाषा के सिनेमा ने अपनाया। इसका मकसद जीवन के कठोर यथार्थ, समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों, महिलाओं और गरीबों की समस्याओं को सामने लाना रहा, जिससे दर्शक खुद को जुड़ा महसूस करे। इसकी यथार्थ परक कहानियां आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी होती हैं। मसलन गरीबी, बेरोजगारी, जातिगत भेदभाव, और स्त्री-पुरुष संबंध। ये फिल्में वास्तविक लोकेशनों पर शूट की जाती हैं और संवाद व किरदार स्वाभाविक होते हैं। ऐसी फिल्मों का निर्माण भी वास्तविक होता है। श्याम बेनेगल की फ़िल्में अंकुर, मंथन और भूमिका, मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ और ‘दुविधा’ के अलावा सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ के साथ मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे निर्देशक इस आंदोलन के अग्रणी रहे। इनकी फिल्मों में व्यावसायिकता की बजाय कलात्मकता, गहराई और सामाजिक प्रतिरोध देखने को मिलता है। पर, आज ऐसा सिनेमा लुप्त होने लगा। बरसों से ऐसी कोई फिल्म नजर ही नहीं आई।
Advertisementऐसी फ़िल्में जीवन का यथार्थ दिखाती है जैसे ‘अंकुर’ खेतिहरों और गरीब तबके की ज़िंदगी की सच्चाई दिखाती है। ‘उसकी रोटी’ और ‘माया दर्पण’ ग्रामीण भारत की समस्याओं को संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में समानांतर सिनेमा ने ही गंभीर दर्शकों को फिल्मों के ज़रिए आम आदमी की पीड़ा को लेकर सोचने पर मजबूर किया। महिलाओं और वंचित वर्गों की भूमिका, विद्रोह और स्वतंत्र पहचान को संवेदनशील तरीके से उजागर किया गया। समानांतर सिनेमा का मकसद दर्शक को यथार्थ के करीब लाना और सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव की चेतना को जगाना रहा है।
इन फिल्मों के किरदार और कथानक वास्तविक
इन फिल्मों में किरदार और कथानक बहुत वास्तविक व स्वाभाविक होते हैं। इसमें गैर-पेशेवर कलाकार होते हैं। समाज की सच्चाइयों को विषय वस्तु बनाकर, बदलाव और सवाल उठाए जाते हैं। नारी सशक्तिकरण, जातिवाद, अशिक्षा, शहरी-ग्रामीण भेद, आर्थिक विषमताएं ऐसे मुद्दे समानांतर सिनेमा की पहचान रहे हैं। सादगीपूर्ण कला निर्देशन, प्राकृतिक प्रकाश, लंबे शॉट्स, और धीमी गति की कहानी। सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल जैसे निर्माता-निर्देशकों ने इस धारा को स्थापित किया।
दमित और शोषित वर्ग पर फोकस
समानांतर सिनेमा ने फिल्म को सामाजिक बदलाव और जागरूकता का माध्यम बनाया। यथार्थ दिखाने की शैली ने भारतीय दर्शकों के साथ साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच तक वास्तविकता की गूंज पहुंचाई। इस प्रकार, समानांतर सिनेमा जीवन के यथार्थ को बिना बनावटीपन प्रस्तुत करता है। समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस करता रहा है। जबकि समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। यदि इसमें ‘अंकुर’ शामिल है, तो ‘हम साथ साथ हैं’ को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा।
ऐसी फिल्मों की नींव सौ साल पुरानी
भारतीय सिनेमा में यथार्थवादी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। साल 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म ‘सावकारी पाश’ बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर बनी फिल्म ‘दुनिया ना माने’ भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं बढ़ सकी। बता दें, 40 से 60 के दशक में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। चेतन आनंद ने 1946 में ‘नीचा नगर’ बनाई। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया।
ऐसी फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकारों में गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का काम किया। उनकी फिल्म ‘प्यासा’ को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा!
‘भुवन सोम’ से हिंदी में यथार्थ सिनेमा जन्मा
हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन सोम’ को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने ‘मृगया’ बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। जिसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। साल 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और ‘बंदिनी’ फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
बेनेगल और निहलानी बने सारथी
श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म ‘अंकुर’ बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। साल 1975 में बेनेगल ने ‘निशांत’ और 1976 में ‘मंथन’ बनाई। ‘मंथन’ को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनकी मंडी, कलयुग और ‘जुनून’ भी बेहद चर्चित रही। गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढ़े । निहलानी की 1981 में आई ‘आक्रोश’ को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। अर्धसत्य, विजेता, आघात, ‘पार्टी’ और ‘द्रोहकाल’ बनाई। मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर ‘सतह से उठता आदमी’ बनाई। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ और ‘अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर ‘मिर्च मसाला’ बनाई। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने ‘दिल से’ और ‘युवा’ बनाई तो नागेश कुकुनूर ने ‘तीन दीवारें’ और ‘डोर’ परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गांधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की ‘माय ब्रदर निखिल’ और ‘बस एक पल’ ने माहौल बदलना शुरू किया।