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इंद्रधनुषी तितलियों की बारात-सा राग-रंग और उल्लास भरा पतझड़

अमेरिका में इन दिनों फाल या ऑटम का मौसम है, जिसे भारत में पतझड़ कहते हैं। यह सितम्बर से दिसम्बर तक रहता है। न्यूयार्क स्थित इथका का फाल बहुत मशहूर है। दुनिया भर से लोग इसे देखने आते हैं। चारों...

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अमेरिका में शुरू उत्सवों का सिलसिला

नवम्बर शुरू हो गया। हैलोविन की यादें छूट गईं। अब आने वाला है, थैंक्स गिविंग। ये दोनों त्योहार ही नहीं, दिसम्बर में तो क्रिसमस भी आ जाएगा और दिसम्बर खत्म होते-होते नववर्ष भी। एक तरह से इस देश के सारे महत्वपूर्ण त्योहार थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद एक साथ ही। जैसे अपने यहां पतझड़ के बाद वसंत और फागुन में होली आती है। एक महीने तक लगभग उत्सव का माहौल ही रहता है। वैसा ही तो यहां है। पूरे अमेरिका में लोग फाल या पतझड़ का इतंजार करते हैं। वे इसकी खूबसूरती को पूरे साल भर के लिए मन में कैद कर लेते हैं।

अमेरिका में इन दिनों फाल या ऑटम का मौसम है, जिसे भारत में पतझड़ कहते हैं। यह सितम्बर से दिसम्बर तक रहता है। न्यूयार्क स्थित इथका का फाल बहुत मशहूर है। दुनिया भर से लोग इसे देखने आते हैं। चारों तरफ लम्बे-ऊंचे पेड़, सिर से पांव तक फूलों से भरे हुए। लेकिन ये फूल नहीं, पत्ते हैं। इथका में फाल्स, सलेटी पहाड़ और कयुगा झील दर्शनीय स्थल हैं। दरअसल भारत के विपरीत पश्चिम में फाल या पतझड़ उल्लास और राग-रंग से भरा है। अक्तूबर में हैलोविन के बाद यहां त्योहारों-उत्सवों का सिलसिला न्यू ईयर तक चलता है।

दो हफ्ते पहले जब इथका, न्यूयार्क स्टेट्स, अमेरिका के एअरपोर्ट पर उतरी, तब सांझ घिर आई थी, घर पहुंचने के रास्ते भर एक ही चीज पर नजर टिकी रही , चारों तरफ लम्बे-ऊंचे पेड़, सिर से पांव तक फूलों से भरे हुए। पिछले दिनों जिनेवा, स्विटजरलैंड, में थी तो वहां भी ऐसे ही कुछ पेड़ देखे थे। लेकिन यहां अमेरिका में तो जैसे हर पेड़ रंगों से भरा है। खिला हुआ है, लेकिन ये फूल नहीं, पत्ते हैं। सारे पत्ते ही जैसे फूलों में बदल गए हैं। यह अमेरिका में फाल या ऑटम का मौसम है, यानि कि जिसे अपने यहां पतझड़ कहते हैं। सितम्बर से शुरू होकर यह दिसम्बर तक रहता है। कुछ लोग कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस बार फाल कुछ जल्दी आ गया है। इथका का फाल बहुत मशहूर है। दुनिया भर से लोग इसे देखने आते हैं। शायद पेड़ों को भी यह बात पता चल जाती है। इसीलिए पतझड़ से पहले हर पेड़, अपने पुराने पत्तों में तरह-तरह के रंग सजाकर सेलिब्रेट करना चाहता है। पीले रंग से सजा एक मध्यम आकार का पेड़ दूर से अमलतास लगता है, लेकिन यह अमलतास नहीं है। अमलतास में तो पीले फूलों से पेड़ भर जाता है लेकिन ये तो वसंती रंग के पत्ते हैं, पत्ते ही पत्ते। पूरी सड़क पर उड़ते इंद्रधनुषी तितलियों की बारात से लगते हैं, जो एक दिशा से दूसरी दिशा तक उड़ती, नाचती, गाती जा रही हैं। क्या पता उन्हें दुनिया के किस-किस देश की यात्रा करनी है। नया बसेरा बनाना है।

भारत के पतझड़ में पत्ते

एक अंतर जो भारत और यहां के परिवेश, वातावरण और प्रकृति में दिखता है, वह यह है कि अपने यहां पतझड़ के दौरान पेड़ों पर लगे पत्ते मुरझाने लगते हैं। पीले पड़ जाते हैं। और सूखते हुए नीचे गिर जाते हैं। पिछले साल जिन पत्तों के आगमन की खुशी मनी थी, अब वे निष्प्राण हो चुके हैं। पत्तों के गिर जाने के बाद हर पेड़ उदास और उजड़ा हुआ सा दिखता है। इन पत्तों पर पैर पड़े तो चरमराते हैं, जैसे रो रहे हों, दुःख मना रहे हों। जब भी पतझड़ के बारे में सोचती हूं अरसा पहले बाघों पर देखी एक डाक्यूमेंट्री याद आ जाती है। पतझड़ है। सूखे पत्तों से जंगल भरा है। एक बाघिन अपने शिशुओं को चलना सिखा रही है। अचानक एक बच्चा चलता है तो सूखे पत्ते की आवाज सुनाई देती है। मां पलटती है, गुस्से में देखती है और बच्चे को तेजी से एक तमाचा जड़ती है। कामेन्ट्रेटर बताता है कि मां इससे नाराज है कि बच्चे के चलते समय यदि आवाज होगी तो शिकार चौकन्ना हो जाएगा और भाग जाएगा। इसलिए बच्चे को ऐसे चलना है कि बिल्कुल आवाज न हो। मां बाकायदा बच्चों को ऐसे चलना सिखाती है। इस लेखिका ने बिल्ली को ऐसा करते देखा है। बिल्ली भी बच्चों को शिकार करना और बेआवाज चलना सिखाती है। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो पीटती है।

झड़ते हुए और सूखे पत्तों के बारे में कबीर का एक मशहूर दोहा भी है-पात झरंता यों कहे, सुनि तरुवरु वनराइ, अबके बिछड़े ना मिले, दूरि पडिंगे जाइ। यानि कि पतझड़ में झड़ने वाले पत्ता कहता है कि हे तरुवर सुनो अब जो बिछड़ रहे हैं, वे इतनी दूर चले जाएंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे। यह एक तरीके से दुःख और बिछड़कर कभी न मिलने की पीड़ा को बयान करता दोहा है। पतझड़ अपने यहा दुःख और पीड़ा से भरा है। जबकि पतझड़ से पहले अमेरिका में पेड़ जश्न मना रहे हैं तो अपने यहां पेड़ों की उदासी नजर आती है। इसीलिए आम तौर पर पतझड़ को वृद्धावस्था से जोड़ा जाता है।

पतझड़ के बाद वसंत की उम्मीद

फिर कुछ दिन बाद नजर जाती है कि धीरे-धीरे जो पेड़ पत्तों से खाली हो गए थे, सिर्फ तने और डालियां बची थीं, उन पर नरम-नरम कोंपलें फूटती हैं। पत्तों के शिशु रंग नजर आते हैं। वे चमक से भरे होते हैं। पता चल जाता है कि वसंत आने वाला है। कुमार विश्वास की एक कविता की पंक्ति है- ‘पतझड़ का मतलब है, फिर वसंत आना है’। ये पंक्तियां एक उदासी के आलम में बहुत आशा का संचार करती हैं। इसी तरह पतझड़ को बताते हुए भगवती चरण वर्मा कहते हैं-‘पतझड़ के पीले पत्तों ने , प्रिय देखा था मधुमास कभी, जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाता था हास कभी।’ पतझड़ के बाद वसंत का आगमन भारत में एक उल्लास का उत्सव है। वसंत का मतलब है जीवन के फिर से शुरू हुए अवसर का ज्ञान। वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। यह साहित्य और हिंदी फिल्मों का भी बहुत प्रिय विषय रहा है।

पश्चिम में फाल का उल्लास

लेकिन भारत के विपरीत पश्चिम में फाल या पतझड़ बहुत उल्लास और राग-रंग से भरा है। बहुत से त्योहार और उत्सव भी सितम्बर से लेकर दिसम्बर के इन महीनों में आते हैं। इकत्तीस अक्तूबर को हैलोविन भी फाल के दिनों में आता है। अपने यहां भी अब कुछ लोग इसे मनाने लगे हैं। भूत-प्रेत बने बच्चों के चित्र दिखाई देते हैं। पिछले दिनों बिहार के एक मशहूर नेता का एक चित्र भी हैलोविन मनाते छपा था। अभी-अभी इकत्तीस अक्तूबर को हैलोविन गुजरा है। सब डिपार्टमेंटल स्टोर हैलोविन को ध्यान में रखते हुए तरह-तरह के उत्पाद बेचते हैं। नए-नए टॉफी, चाकलेट्स के ब्रांड की बहार आ जाती है। कद्दू से बनाई तरह-तरह के डिजाइन की लालटेन तथा अन्य सामान बिकने लगता है। खरीददारी भी खूब होती है। तरह-तरह के डिस्काउंट्स भी दिए जाते हैं।

बच्चों की दुनिया में रंगभरी हैलोविन

बच्चे भी इस हैलोविन उत्सव में शामिल हो जाते हैं। एक तरफ आसमान में पेड़ों पर तरह-तरह के रंगों की बहार आई हुई है, तो दूसरी तरफ बच्चों की दुनिया भी हैलोविन के बहाने रंगों से भरी हुई है। इसमें बच्चे तरह-तरह की वेशभूषा बना, जैसे कि भूत , परी, राक्षस आदि, घरों से बाहर निकलते हैं। माता-पिता इन वस्त्रों को बहुत शौक से अपने-अपने बच्चों के लिए सिलवाते हैं। बच्चे इऩ्हें पहन-पहनकर लोगों के घर जाते हैं। वहां उऩका खूब स्वागत किया जाता है। वे उऩ्हें तरह-तरह की चाकलेट्स, टॉफी आदि खाने को देते हैं। अन्य अनेक व्यंजन भी होते हैं। बच्चे खूब आनंद मनाते हैं।

बहुत से लोग अपनी-अपनी गाड़ियों में ढेर सी टॉफी, चाकलेट्स आदि रखते हैं। बच्चों को सड़क पर बांटते चलते हैं। कई जगह अंदर से आती रोशनियों से समझ में आ जाता है कि बच्चे किसी के घर के अंदर त्योहार मना रहे हैं। ऐसे में लोग अपनी-अपनी गाड़ियों में उस घर के बाहर खड़े हो जाते हैं। जैसे ही बच्चे घर से बाहर निकलते हैं, वे बच्चों को पुकारते हैं। यह दृश्य देखकर अपने यहां की नवरात्रि याद आ गई। अपने यहां भी तो सप्तमी, अष्टमी और राम नवमी को इसी तरह, बच्चों खास तौर से कन्याओं की ढूंढ़ मची रहती है। अधिकांश लोगों की इच्छा रहती है कि कन्या, लांगुरा उनके ही यहां सबसे पहले आकर भोजन करें। इन दिनों बच्चों के पास उसी तरह से ढेर सा खाना और उपहार इकट्ठे हो जाते हैं जैसे कि पश्चिमी देशों में हैलोविन के दिन।

बुरी आत्माएं भगाने का उत्सव

दरअसल हैलोविन बुरी आत्माओं को भगाने का उत्सव है। संसार में हर जगह किसी न किसी रूप में अच्छी और बुरी आत्माओं के प्रति लोक विश्वास प्रचलित हैं। इस दौरान लगभग हर घर के बाहर तरह-तरह के डिजाइन से उकेरे हुए बड़े-छोटे ढेर से पीले-पीले कद्दू दिखते हैं। इन्हें विभिन्न तरीकों से तराशकर ऐसी आकृतियां बनाई जाती हैं, जिनमें से रोशनी बाहर जा सके। बुरी आत्माएं रोशनी से दूर भागती हैं, यह विश्वास भी दुनिया भर में है। कद्दू से बनी लाइट्स के बारे में यह भी कहा जाता है कि ये बुरी आत्माओं को भगाने के लिए हैं। इतिहास में जाएं, तो पता चलेगा कि कद्दू का इस तरह से प्रयोग स्काटलैंड और आयरलैंड के लोग करते थे। वे तरह-तरह की शाक-भाजियों पर डिजाइन बनाकर उन्हें लालटेन की तरह लटका देते थे। उन्हें ही देखकर अमेरिकियों ने यह सीखा। इन दिनों हर बाजार में बड़े-बड़े कद्दू और उनसे बना सामान मिलता है। यहां कद्दू की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है। कद्दू से बने तरह-तरह के व्यंजन भी मिलते हैं।

इथका फाल्स और सलेटी पहाड़

एक दोपहर इथका फाल्स या झरने की तरफ गई। इस झरने के बाहर मुख्य सड़क पर लिखा है कि यह हिम युग के बाद शुरू हुआ होगा। यानि कि बारह हजार साल से अधिक पुराना है। कितनी सभ्यताएं, कितनी पीढ़ियां, कितनी तरह के शासन, मौसम इस झरने ने देखे होंगे। झरना यहां से भी दिखता है , लेकिन नीचे उतर कर जाने और देखने में बहुत आनंद है। पानी की गति और आवाज, साथ ही झरने के ऊपर तरह-तरह के रंगों से भरे पेड़ किसी विशालकाय मुकुट की तरह लगते हैं। झरने के दोनों तरफ सलेटी रंग के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ हैं। इनसे भी पानी टपकता रहता है। सामने खड़े हुए पहाड़ों के बीच एक हूबहू गणेश जी जैसी आकृति दिखी। गणेश जी भी जैसे हमारे साथ-साथ अमेरिका की यात्रा पर चले आए। झरने के बिल्कुल नजदीक तक पहुंचने के लिए पहाड़ को छूते, सहारा लेते आगे बढ़ते हुए मन में ख्याल आ रहा था कि न जाने कब ये बने होंगे। आज इन्हें छूने और महसूस करने का सौभाग्य मिला। पहाड़ों के पास ही एक और चेतावनी लिखी है कि इऩ्हें न छुएं। अगर छू लिया हो तो हाथ धोएं, क्योंकि यहां पहले बंदूक की फैक्ट्री थी। इसलिए बहुत से जहरीले रसायन मौजूद हो सकते हैं। साथ ही पहाड़ों से बचकर चलें। वे गिर सकते हैं। नीचे उतरते हुए अचानक सामने से एक गोरी लड़की आई। वह नीचे झुकी और मेरे जूते का लेस बांधने लगी। मुझे पता भी नहीं चला कि जूते का फीता खुल गया है। उस लड़की ने महसूस किया कि कहीं इस रपटीले रास्ते पर गिर न जाऊं। कौन थी, क्या पता।

कार्नेल यूनिवर्सिटी और प्राचीन ओक ट्री

लौटते हुए कार्नेल यूनिवर्सिटी के परिसर से आए। पूरा परिसर पेड़ों के आकर्षक रंगों से सराबोर। यह आई वी लीग यूनिवर्सिटी है और दुनिया भर में मशहूर है। इस यूनिवर्सिटी के कई विभाग सौ साल से अधिक पुराने हैं। इसीलिए इथका को यूनिवर्सिटी टाउन भी कहा जाता है। रास्ते में सड़क के किनारे एक ओक ट्री दिखा। उसके बारे में पता चला कि यह चार सौ वर्ष पुराना है। लेकिन यूनिवर्सिटी ने इस बारे में यहां पर ऐसा कुछ नहीं लिखा है। अधिकारियों का मानना है कि लोगों को इस पेड़ की आयु के बारे में पता नहीं चलना चाहिए। इसे खतरा हो सकता है। कितना अच्छा तरीका है, अपने पुराने पेड़ों को बचाने और रख-रखाव का।

कयुगा झील में मेपल की परछाइयां

एक दिन कयुगा झील की तरफ भी गए। यह झील आकार-प्रकार में बहुत बड़ी है। चलते ही जाओ मगर खत्म नहीं होती। कहीं पेड़ों और घने जंगल के पीछे से झांकती, तो कहीं बिल्कुल सड़क तक चली आती। इसमें क्रूज भी चलते हैं। पूरे रास्ते सड़क पर पत्तों की रंग-बिरंगी कालीन बिछी हुई दिखीं। हमारी कार के साथ भागती सी। झील के किनारे बहुत से मकान भी हैं। बताया गया कि बहुत महंगे हैं, क्योंकि यहां सूरज देर तक रहता है। एक बड़े से गोल पार्क जैसे परिसर में पहुंचे। यह झील के पास जाने का रास्ता था। बहुत से झूले लगे हुए थे। मेपल के बीसियों वृक्ष। जितने लाल पत्ते पेड़ पर उतने ही नीचे। अद्भुत दृश्य। झील में इन पेड़ों के प्रतिबिम्ब बहुत आकर्षक लग रहे थे। बारिश थी, इसलिए भीड़ कम थी। चलते-चलते झील के पास पहुंचे। नीचे झुककर पानी को छुआ। प्रणाम किया। बेहद उजला और पारदर्शी पानी। बहुत सी जल मुर्गाबियां भी तैर रही थीं , जो हमें पास आते देख, दूर चली गईं। वे भी फाल और बारिश का आनंद ले रही थीं।

थैंक्स गिविंग : कृषि जीवन का लोकप्रिय उत्सव

थैंक्स गिविंग इस बार पच्चीस नवम्बर को है। जब दुनिया के कई देशों से लोग अमेरिका में बसने आए थे, तो यहां के स्थानीय लोगों ने उऩ्हें यहां होने वाली फसलों को उगाना सिखाया था। इसी को ध्यान में रखकर थैंक्स गिविंग मनाया जाता है। हालांकि दोनों वर्गों में खूब लड़ाई-झगड़ा और खून-खराबा भी हुआ। इसीलिए बहुत से लोग कहते हैं कि थैंक्स गिविंग इन सब बातों को याद करने के लिए है। जो भी हो कृषि जीवन का यह उत्सव अब अमेरिका के शहरी और ग्रामीण इलाकों दोनों में खूब लोकप्रिय है।

फाल को लेकर निर्मित हॉलीवुड फिल्में

फाल फिल्मकारों का भी बहुत प्रिय विषय रहा है। इस पर पचास मशहूर फिल्में बन चुकी हैं। इनमें से कुछ हैं- हैलोविन, बीटल जूस, होकस पोकस, द नाइटमेयर बिफोर क्रिसमस, द नोटबुक, द लेक हाउस,पी एस आई लव यू, अबाउट टाइम, घोस्ट, स्लीपलैस एट सिएटल आदि।

ऑटम के बारे में मशहूर क्वोट्स

*ऑटम इज ए सैकंड स्प्रिंग व्हेन एवरी लीफ इज ए फ्लावर।–अल्बर्ट कैमूस

*लाइफ स्टार्ट्स आलओवर अगेन व्हेन इट गेट्स क्रिस्प इन द फाल।–एफ. स्कॉट फिट्ज़गैराल्ड

*एवरी लीफ स्पीक्स ब्लिस टु मी, फ्लटरिंग फ्रॉम द ऑटम ट्री। -एमिली ब्रांट.

      - लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

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