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बालमन को मजबूत बनाने के साथ दें लचीलेपन की सीख भी

बाल दिवस : 14 नवंबर
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बच्चों द्वारा खुद का जीवन समाप्त करने के बढ़ते वाकये परिवार व समाज को भयभीत करते हैं। ऐसी दुखद घटनाएं अभिभावकों को हर कदम सोच-समझकर उठाने, चेतने की ओर इशारा करती हैं। पैरेंट्स उनकी मनःस्थिति व व्यवहार के बदलाव की निगरानी रखें। बच्चों की जिंदगी में एक्टिवली शामिल हों, संवाद करें व निराशा का घेरा तोड़ें। उन्हें भावनात्मक रूप से मजबूत व लचीला बनाएं।

बीते दिनों में छत्तीसगढ़ के रामानुजगंज नगर में दस साल के बच्चे द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेना हैरान-परेशान करने वाली घटना रही। पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले नाबालिग के अभिभावक घटना के समय घर पर नहीं थे। भाई-बहनों के साथ खेलते-खेलते बच्चा अचानक घर के भीतर गया और अपनी जान दे दी। उस समय मेरठ में भी तेरह वर्षीय छात्र की आत्महत्या का ऐसा ही मामला सामने आया था। किसी बात पर अभिभावकों से नाराज होने के चलते बच्चे ने यह कदम उठाया तो रामानुजगंज के मामले में माता-पिता यह सोचकर ही व्यथित हैं कि बच्चे ने ख़ुदकुशी का रास्ता आखिर चुना ही क्यों? बाल दिवस के अवसर पर अभिभावक बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाने की सोचें। समय के साथ आ रहे बदलावों को रोकना कठिन है। अपने बच्चों को मन की मजबूती का पाठ पढ़ाएं। साथ ही उनके बदलते व्यवहार को लेकर सजग भी रहें ताकि माता-पिता के पास केवल सवाल ना रह जाएं।

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भय के घेरे में परिवार-समाज

नयी पीढ़ी का जीवन समाज के लिए अनमोल होता है। केवल आंकड़ों तक ना समेटी जा सकने वाली ये घटनाएं अनुभूतियों के मोर्चे पर बेहद दुखदायी हैं। यही वजह है कि बच्चों की आत्महत्या के बढ़ते वाकये हर परिवार को डराने लगे हैं। छोटी-छोटी बातों पर बच्चे सुसाइड कर रहे हैं। यह अप्रत्याशित व्यवहार भयभीत करने वाला है। ऐसी असामान्य घटनाएं हर किसी को असहज कर जाती हैं। इनसे जुड़े सवाल अभिभावकों के मन को उम्रभर कचोटते हैं। ऐसे दुखद समाचार अभिभावकों को भी हर कदम सोच-समझकर उठाने, समय रहते चेतने की ओर इशारा करते हैं। यूं भी किसी मासूम द्वारा ऐसा कुछ कर जाने के बाद तो कुछ किया ही नहीं जा सकता। जरूरी है कि अभिभावक जीवन सहेजने के इस मोर्चे पर हर पल डटे रहें। बच्चों की मनःस्थिति पर ध्यान देते रहें। उनके व्यवहार के बदलाव पर ध्यान दें। उनकी बातों में आये नकारात्मक रुख और शिकायतों पर गौर किया जाए। महज समझाने के बजाय पैरेंट्स व्यावहारिक ढंग से बच्चों के बिखरते मन को संभालें।

अच्छी दिनचर्या से जोड़ें

सबसे बड़ी चिंता यह है कि इन घटनाओं के पीछे छिपे कारणों को स्पष्ट रूप से समझना मुश्किल होता जा रहा है। अभिभावक हों या शिक्षक, बच्चों के मन की थाह लेना कठिन हो गया है। कुछ समय पहले अहमदाबाद के एक स्कूल में दसवीं की छात्रा हंसते हुए कक्षा से बाहर निकली और स्कूल की चौथी मंजिल से अचानक छलांग लगा दी। घटना का सीसीटीवी फुटेज सोशल मीडिया पर भी वायरल हुआ। आमजन को हैरान-परेशान करने वाला यह मामला बच्चों की मनःस्थिति को समय रहते समझने की ओर इशारा करता है। इसके लिए बच्चों की दिनचर्या पर ध्यान दें। बच्चा अगर खुद तक ही सिमटकर रहने लगा तो सबसे पहले उसका रूटीन सुधारें। सधा-संतुलित रूटीन हर तरह के तनाव को संभालने-सहने में मदद करता है। आत्महत्या की अधिकतर घटनाओं में देखने में आता है कि बच्चे दूसरों से कटकर रहने लगते हैं। उनका रूटीन बिगड़ जाता है। निष्क्रिय जीवनशैली अपना लेते हैं। ऐसे में फिजिकली एक्टिव रहने के लिए योग-कसरत की क्लास ज्वाइन करवाना या अपने साथ सैर पर ले जाना शुरू करें। उन्हें दोस्तों-सहपाठियों के साथ खेलने को प्रेरित करें। उनके दोस्तों को घर पर बुलाएं। स्कूल के कार्यक्रमों में भागीदारी करने को कहें। उनकी हॉबीज को बढ़ावा दें। बच्चों के साथ बैठकर खाना खाएं व उनका मन टटोलने का प्रयास करें। अहम यह है कि बिगड़े रूटीन को लेकर कोई उलाहना ना दें। बच्चों की जिंदगी में एक्टिवली शामिल होकर जीवन से दूर करने वाली मानसिकता का घेरा तोड़ें। इसका सबसे पहला कदम उनकी जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव लाना ही है।

अडेप्टेबिलिटी सिखाएं

वर्तमान में सोशल मीडिया की छवि से लेकर आमजीवन तक, हमउम्र बच्चों से तुलना और दबाव की स्थितियां बालमन को अनगिनत उलझनों के घेरे में ला रही हैं। बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए बड़ों का सजग और बालमन का आत्म-जागरूक होना जरूरी है। देखने में आता है कि बच्चों के बौद्धिक विकास को अहम मानने वाले हमारे सामाजिक-पारिवारिक माहौल में उन्हें भावनात्मक रूप से सशक्त बनाने को लेकर नहीं सोचा जाता। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं समझाती हैं कि स्कूल परिसर हो या आस-पड़ोस का परिवेश, बच्चों को मानसिक और भावनात्मक रूप से सबल बनाना आवश्यक है। इस मजबूती के लिए अडेप्टेबिलिटी की सोच जरूरी है। मन-मुताबिक सब कुछ करने-पाने की सोच बच्चों को स्कूल, परिवार या दोस्तों के परिवेश में सहजता से नहीं ढलने देती। अभिभावक बच्चों के व्यवहार को थोड़ा लचीला बनाएं। अडेप्टेबिलिटी जरूरी लाइफ स्किल है। परिस्थितियों के अनुसार खुद को सैटल करने की समझ तनाव से बचाती है। ऐसा हुआ तो क्या होगा? वहां गया तो क्या होगा? जैसी बातों से जुड़े अनचाहे डर को दूर रखती है। जिद के बजाय थोड़ा सा खुद को बदल लेने से अपनेआप में भरोसा बढ़ता है। मासूमों के मन को निराशा नहीं घेरती है। किसी से पीछे रह जाने का भय नहीं रहता। अमेरिका के ताज़ा सर्वे के मुताबिक 10 में से 5 बच्चे आमतौर पर निराशा से घिरे रहते हैं। इन बच्चों को लगता है कि वे जिंदगी में कुछ कर नहीं पाएंगे। वहीं 5 में से 1 बच्चे ने माना कि उसे आत्महत्या का खयाल आता है। पैरेंट्स को समझना होगा कि अडेप्टेबिलिटी की सोच बच्चों को हर हाल में कोई राह निकाल लेने की हिम्मत देती है। इसीलिए अभिभावक नयी पीढ़ी को परिस्थितियों और लोगों के व्यवहार के प्रति थोड़ा फ़्लेक्सिबल बनाएं।

विशेषज्ञों की लें सहायता

मासूमियत के इस पड़ाव पर बच्चे ही पैरेंट्स भी तनाव, डिप्रेशन, एंग्जाइटी और दूसरी कई तरह की मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियों को सही ढंग से नहीं समझ पाते। बड़े भी बच्चों के उलझन भरे इमोशन्स को सही तरीके से मैनेज करने का रास्ता नहीं निकाल पाते। ऐसे में घुटन और भटकाव के घेरे में आत्महत्या के विचारों का जोखिम बढ़ जाता है। ऐसे में अभिभावक तुरंत प्रोफेशनल हेल्प लें। बहुत से बच्चे अपने अभिभावकों से खुलकर बात करने में सहज नहीं होते। कई बार तो उनके मन में शिकायतें ही मम्मी-पापा या परिजन के व्यवहार को लेकर होती है। थेरेपिस्ट, साइकोलॉजिस्ट या फिर काउंसलर के सामने बच्चे बेहिचक अपना मन खोल पाते हैं। इसीलिए पैरेंट्स मानसिक स्वास्थ्य की संभाल से जुड़े विशेषज्ञों का मार्गदर्शन लें।

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