बंदिशों और टीस के बीच कसमसाता अफगान सिनेमा
अफगानिस्तान का अब अपना कोई मूल स्वरूप नहीं रहा। इस देश पर तालिबानी संगठन का कब्जा है। दुनियाभर में इस देश को लेकर कई तरह की चर्चा है। वैदेशिक रिश्तों को लेकर ऐसी चिंता स्वाभाविक है, पर कोई यहां की संस्कृति, सभ्यता और यहां के सिनेमा को लेकर बात नहीं कर रहा। कई सालों से ये देश आतंकवाद ग्रस्त रहा, इसलिए ये समझा जाता है, कि यहां मनोरंजन के लिए सिनेमा जैसा कोई माध्यम शायद ही जीवित हो! लेकिन, ऐसा नहीं है। यहां भी सिनेमा की अपनी मजबूत जड़ें हैं, जिसके पास अपने ज्यादा बेहतर किस्से-कहानियां हैं।
बरसों से अफगानिस्तान के लोग कई तरह की पीड़ाओं से जूझ रहे हैं। उनकी कहानियों में दर्द का हिस्सा ज्यादा और मनोरंजन कम है! यही वजह है कि इस देश के सिनेमा कल्चर को लेकर कम ही बातचीत होती है। अफगानिस्तान में जिस तरह से आतंकवादी संगठन ने कब्ज़ा किया, वहां का फिल्म उद्योग तहस-नहस हो गया। लेकिन, फिर भी वे अफगानी फिल्मकारों की सोच को नहीं दबा सके। इतने दबाव और हिंसा के बाद भी आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान में बनी ज्यादातर फिल्में तालिबानी कट्टरपंथ के खिलाफ थीं! दरअसल, ये उनका सिनेमाई गुस्सा है। क्योंकि, तालिबानियों के सत्ता में आते ही वहां की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति एक तरह से खत्म हो गई। दुनिया में सिनेमा के मामले में भारत सबसे समृद्ध है। सालों से भारत में बना सिनेमा ही अफगानिस्तान के लोगों का भी मनोरंजन कर रहा है। इस देश में भारतीय फिल्मों का बाजार सालों से सजा है।
Advertisementभारतीय फिल्मों और कलाकारों की लोकप्रियता
अफगानी लोगों ने भारत की फिल्मों और कलाकारों को इतना आत्मसात कर लिया कि वे इन्हें अपने लगने लगे। अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान के साथ माधुरी दीक्षित और कैटरीना कैफ भी वहां बेहद लोकप्रिय हैं। अफगानिस्तान और भारत के रिश्ते भी बहुत गहरे रहे हैं। दोनों देशों की संस्कृति और सभ्यता भी कहीं न कहीं जुड़ी है। शायद भारतीय फिल्मों के प्रति इसी आसक्ति का ही असर है कि रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ पर 1957 में पहले बंगाली में तपन सिन्हा और बाद में 1961 में हिंदी में हेमेन गुप्ता सहित कई निर्देशकों ने सफल फिल्में बनाई। अफगानिस्तान में 2007 में हॉलीवुड की फिल्म ‘द काइट रनर’ बनी। उससे पहले 1975 में फीरोज खान ने धर्मात्मा, मुकुल आनंद ने 1992 में ‘खुदा गवाह’ और कबीर खान ने 2006 में ‘काबुल एक्सप्रेस’ फिल्म बनाई।
अफगानिस्तान में निर्मित फ़िल्में
1968 में जब अफगानिस्तान में फ़िल्में बननी शुरू हुई, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों पर वृत्तचित्र और समाचार फ़िल्में बनाई गयी। नए दौर में अफगान कलाकारों को लेकर काबुल में बनाई गई पहली फीचर फिल्म थी ‘लाइक ईगल्स’ जिसमें जहीर वैदा और नाजिया ने अभिनय किया था। इसके बाद अफगान फिल्मकारों ने ‘एज’ नाम से तीन भाग वाली फिल्म बनाई थी। इसमें स्मगलर, शूटर्स और ‘फ्राइडे नाइट’ शामिल थे। इस दौर की दो अन्य फिल्में ‘विलेज ट्यून्स’ और ‘डिफिकल्ट डेज’ हैं। इन सभी फिल्मों को ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया था। इस युग के फिल्म कलाकारों में खान अका सोरूर, रफीक सादिक, अजीजुल्लाह हदफ, मशाल होनारयार और परवीन सनतगर शामिल थे। अस्सी के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान में निर्मित पहली रंगीन फिल्में थी रन अवे (फरार), लव एपिक (हमासा ए इशग), सबूर सोल्जर (सबूर सरबाज), ऐश (खाके स्टार) और ‘लास्ट विशेज’। ये फिल्में तकनीकी रूप से उतनी कुशल नहीं थी लेकिन अफगानी जिंदगी के साथ तालमेल बैठाती थीं।
तालिबान की मार
1996 में जब तालिबानियों ने सत्ता में दखल देना शुरू किया व सिनेमाघरों पर हमले किए गए। कई फिल्में जला दी गईं। सिनेमाघर बंद कर दिए गए जो बाद में रेस्तरां बन गए। कुछ खंडहर हो गए। अफगान फिल्मकार के. हबीबुल्लाह अली ने तालिबानियों से फिल्मों का विनाश रोकने के लिए हजारों फिल्मों को छुपा दिया। साल 2002 में तालिबान आतंक के बाद पहली फिल्म ‘टेली ड्रॉप’ बनाई गई। इससे पहले 1995 में यहां फिल्म ‘ओरजू’ बनी थी। साल 1996 में यहां सिनेमा गतिविधियां बंद हो गई।
अमीर के शुरुआती कदम
अफगानिस्तान में सबसे पहले सिनेमा लाने का श्रेय वहां के राजा (अमीर) हबीबुल्ला खान (1901-1919) को दिया जाता है। उन्होंने दरबार में प्रोजेक्टर से कुछ फिल्में दिखाई थी। उन्होंने काबुल के पास पघमान में 1923 में एक मूक फिल्म का प्रदर्शन भी किया । लेकिन, अफगानिस्तान में सिनेमा का निर्माण अस्त-व्यस्त रहा। साल 1946 में बनी ‘लव एंड फ्रेंडशिप’ को पहली फीचर फिल्म माना जाता है। उसके बाद ज्यादातर डाक्यूमेंट्री ही बनी। वर्ष 1990 में छिड़े गृहयुद्ध और 1996 में तालिबान शासन के बाद वहां फ़िल्में बनाना व देखना प्रतिबंधित कर दिया।
‘ओसामा’ से दुनिया में बनी पहचान
जहां तक अफगानी फिल्मों की दुनिया में पहचान बनने का सवाल है, तो वह थी 2003 में बनी सिद्दिक बर्मक की फिल्म ‘ओसामा!’ इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह समेत कई फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड मिले। इस फिल्म ने 39 लाख डॉलर का कारोबार किया था। इसके बाद 2004 में आई अतीक रहीमी की फिल्म ‘अर्थ एंड एशेज (खाकेस्तार-ओ-खाक) का वर्ल्ड प्रीमियर 57वें कांस फिल्म फेस्टिवल के ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ खंड में हुआ। यह 13 साल की लड़की (मरीना गोलबहारी) की कहानी है, जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए लड़का बनकर ओसामा नाम से काम करती है। उसके परिवार में कोई मर्द नहीं बचा था। वह मां के साथ एक अस्पताल में काम करती थी, जिसे बाद में तालिबान ने बंद कर दिया। औरतों के काम करने पर रोक लगा दी और लड़कों को पकड़कर इस्लामी ट्रेनिंग कैंप भेजने लगे। एक दिन ओसामा को भी पकड़ लिया गया। वहां राज़ खुलने पर उसे यातनाएं दी व एक बूढ़े के साथ उसकी जबरन शादी करा दी जाती है।
‘गोल चेहरे’ : सिनेमा बचाने की जद्दोजहद
इसके बाद जिस फिल्म की चर्चा होती है, वह थी 2011 में आई ईरानी फिल्मकार वाहिद मौसेन की फिल्म ‘गोल चेहरे!’ यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी। जिसमें लोगों ने जान पर खेलकर तालिबान के हमले से कई फिल्मों के दुर्लभ प्रिंट बचाए थे। एक उन्मादी सिनेमा प्रेमी अशरफ खान गोल चेहरे नाम का एक सिनेमा हॉल चलाते थे, जिसे तालिबानियों ने जलाकर दिया था। वे इस हॉल को फिर शुरू करना चाहते हैं। सत्यजीत राय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से सिनेमा हॉल का उद्घाटन होता है। लेकिन, जैसे ही फिल्म शुरू होती है, तालिबानी हॉल को बम से उड़ा देते हैं। अशरफ खान को मार देते हैं और सभी फिल्मों को जला देने का फतवा देते हैं। लेकिन, एक डॉक्टर रुखसारा दुर्लभ फिल्मों को बचाने में कामयाब हो जाती है। एक बार फिर गोल चेहरे सिनेमा हॉल बनता है और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से ही उसका उद्घाटन होता है। फिल्म का ये कथानक हिंदी फिल्मों को लेकर अफगानियों की दीवानगी बताता है। लम्बे समय बाद दुनिया में यहां की फिल्मों की चर्चा मोहसिन मखमलबफ की 2001 में आई फिल्म ‘कंधार’ से हुई। 20 से ज्यादा फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म दिखाई गई। इसके बाद 2003 की फिल्म ‘ऐट फाइव इन द आफ्टरनून’ भी चर्चा में आई। फिल्म की कहानी एक अफगान लड़की पर केंद्रित थी, जो परिवार की इच्छा के खिलाफ स्कूल जाती है, अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने का सपना भी देखती है। अतीक रहीमी की 2004 में आई फिल्म ‘अर्थ एंड एशेज’ का मूल नाम ‘खाकेस्तार ओ खाक’ था। यह फिल्म अफगानिस्तान में चल रहे गृहयुद्ध से हुए विनाश में मनुष्यता खोजने की सिनेमाई कोशिश है। फिल्म में दादा और पोते की आंखों के दृश्य ही फिल्म की असली ताकत है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी बमबारी से बर्बाद हुए देश को लैंडस्केप की तरह फिल्माया गया था।