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पर्स के साथ चलती है एक महिला की दुनिया

समाज में महिला को परिवारों की देखभाल करने वाली माना जाता है यानी जो फ़ूड, उपचार के लिए ज़िम्मेदार है। पर्स में शायद-कि-काम-आ-जाये चीज़ों को लेकर चलना यही भूमिका ज़ाहिर करता है। यह उस समाज का लक्षण है, जो...
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समाज में महिला को परिवारों की देखभाल करने वाली माना जाता है यानी जो फ़ूड, उपचार के लिए ज़िम्मेदार है। पर्स में शायद-कि-काम-आ-जाये चीज़ों को लेकर चलना यही भूमिका ज़ाहिर करता है। यह उस समाज का लक्षण है, जो महिलाओं से बहुत अधिक मांग करता है, लेकिन उनकी असाधारण अनुकूलन क्षमता का साक्षी भी है। महिलाएं बैग में केवल अपने काम की चीज़ें डालने का साहस करें।

महिलाएं अपने टोट बैग यानी अपने पर्स से बड़े थैले में वास्तव में क्या चीज़ें लेकर चलती हैं? लिपस्टिक, पेप्पर स्प्रे (मनचलों से सुरक्षा हेतु), दो स्नैक्स, टैम्पोन (पीरियड में उपयोगी वस्तु), तीन-चार टिश्यू ...। पुरुषों की जेबों में फ़ोन और बटुए के अतिरिक्त शायद और कुछ नहीं होता, जबकि इसके विपरीत महिलाएं अपने पर्स में पूरी दुनिया लेकर चलती हैं। बैग केवल एक्सेसरीज नहीं होता बल्कि वहनीय संग्रह होता है, जिम्मेदारियों, तैयारी व थोड़े से जादू का।

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प्रेम, डर व दूरंदेशी का परिणाम!

पर्स के अंदर की चीज़ें शायद अव्यवस्थित प्रतीत हों, लेकिन ऐसा है नहीं। यह प्रेम, डर व दूरंदेशी का परिणाम है जो वस्तुओं में परिवर्तित हो गया है। हर शायद-कि-काम-आ-जाये वस्तु महिला सिर्फ अपने लिए लेकर नहीं चलती है बल्कि हर उसके लिए जो इसकी कद्र करना जानती है। लेकिन महिलाएं ऐसा क्यों करती हैं? चूंकि शायद-कि-काम-आ-जाये धरती पर रहने के लिए उन्हें ऐसा ही बनाया गया है। शायद कि कोई बीमार पड़ जाये, शायद कि बच्चा रोने लगे, शायद कि कार खराब हो जाये। पर्स का फैशन से संबंध कम है, पूर्वविवेक से अधिक है। केयर प्रदान करने का एक अदृश्य पाठ्यक्रम जो ज़िप के अंदर बंद है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में शायद-कि-काम-आ-जाये पर्स का संबंध चीज़ों से नहीं है, वह महिला के मानसिक बोझ को प्रतिबिम्बित करता है, जिसे वह रोज़ उठाये फिरती है।

सांस्कृतिक पटकथा का प्रतीक

शोधकर्ता बताते हैं कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति ही अक्सर अनुमानित देखभाल करने वाली होती है; वह न केवल ज़रूरतों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं बल्कि उनकी भविष्यवाणी भी करती हैं। बैंड-ऐड उस खरोंच के लिए है जो अभी लगी नहीं, स्नैक्स उस भूख के लिए जिसे अभी तक किसी ने स्वीकार नहीं किया है और टिश्यू उन आंसुओं के लिए हैं जो अभी निकले नहीं। ऐतिहासिक तौरपर महिलाओं को परिवारों की देखभाल करने वाली बना दिया गया, जो फ़ूड, उपचार व सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं। शायद-कि-काम-आ-जाये चीज़ों को लेकर चलना इसी भूमिका को ज़ाहिर करता है- अनुमानित खतरों से बचने का मनोवैज्ञानिक शेष। इसके बावजूद मनोवैज्ञानिक सचेत करते हैं कि जो स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रतीत होती है वह अक्सर सांस्कृतिक पटकथा का नतीजा होती है। ‘द सेकंड शिफ्ट’ में समाजशास्त्री एर्ली होशचाइल्ड बताते हैं कि आधुनिक, समतावादी घरों में भी महिलाओं को ‘अदृश्य श्रम’ का बोझ उठाना पड़ता है। पर्स इसका विस्तार बन जाता है- एक भौतिक याद यानी कि समाज अब भी उम्मीद करता है कि महिलाएं दूसरों की आपात स्थितियों का प्रबंधन करें।

उद्योग का आधार

सम्पूर्ण उद्योग इस विचार पर टिका हुआ है कि महिलाओं को हमेशा तैयार रहना चाहिए। कॉस्मेटिक्स, फैशन व लाइफस्टाइल ब्रांड्ज ने ज़िम्मेदारी को वहनीय में पैक करने की कला में महारत हासिल कर ली है। ट्रैवल परफ्यूम विश्वास का वायदा करती है, कॉम्पैक्ट पाउडर चेहरे को सुरक्षित रखने का दावा करता है, फोल्डएबल फ्लैट्स हील्स से राहत देने के नाम पर मार्किट किये जाते हैं। इनमें से कोई भी चीज़ लक्ज़री के रूप में नहीं बेचीं जाती। यह सुरक्षाकवच के तौरपर बेचीं जाती हैं। तैयारी भी खरीदने की वस्तु बन जाती है, चमकदार पैक में लिपटी हुई और हैंडबैग में करीने से रखी हुई। उम्मीदें लचीलेपन को भी बाज़ार में बदल देती हैं, जो सशक्तिकरण प्रतीत होता है, वह अक्सर पर्दे में दबाव होता है। तो शायद-कि-काम-आ-जाये पर्स सिर्फ आदत या पसंद नहीं है। यह सांस्कृतिक रचना है, जिसे परम्परा व विज्ञापन ने आकार दिया है, पहचान को तैयारी और ज़िम्मेदारी को उपभोग से जोड़कर।

‘सॉरी, मेरे पर्स में जगह नहीं’

सवाल यह है कि हर किसी की आपात स्थितियों का बोझ ढोने का सामना महिलाएं कैसे करें? सबसे पहले तो अपने बैग में वह चीज़ें डालने का साहस करें जो केवल उनके लिए हों। चॉकलेट का टुकड़ा जो आप किसी के साथ शेयर नहीं करती हैं, परफ्यूम या लिपस्टिक का वह शेड जो आपको मुख्य किरदार होने का अहसास कराये। दूसरा है, सीमा निर्धारित करना, जैसे ‘सॉरी, नहीं, मेरे पर्स में आज जगह नहीं है’ कहना।

शायद-कि-काम-आ-जाये पर्स बेकार की चीज़ नहीं है, सांस्कृतिक कलाकृति है, जो महिलाओं के जीवन की कहानी बयान करता है- उनकी ज़िम्मेदारी, उनकी दूरंदेशी और उनका कमाल। पर्स के अंदर रखा हर टिश्यू, स्नैक्स या सेफ्टी पिन उस समाज का लक्षण है, जो महिलाओं से बहुत अधिक मांग करता है, लेकिन साथ ही महिलाओं की असाधारण अनुकूलन क्षमता का साक्षी भी है। -इ.रि.सें.

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