सुरेश सेठ
अचानक अपना देश अपनी मूल समस्या के सामने आकर खड़ा हो गया है। भ्रष्टाचार, महंगाई, नौकरशाही और सेहत उपचार में सुधार या शिक्षा के नये क्षितिज खोलना बेशक अपने देश की आधारभूत समस्याएं हैं। लेकिन इनसे भी बड़ी एक और मूल समस्या इस युवा देश में युवकों को रोजगार देना है। बेशक पिछले दो वर्ष महामारी की असामान्य परिस्थितियों के कारण बहुत विकट थे। पहले बरस की शुरुआत पूर्णबंदी अथवा लॉकडाउन से हुई थी, इसके बाद अपूर्ण बंदी की स्थिति में भी जनजीवन असामान्य हो गया। कोरोना वायरस के रंग बदलने के कारण आर्थिक व स्वास्थ्य परिस्थितियां मृत्यु संवाहक रही। कोरोना महामारी की पहली और दूसरी लहर ने आर्थिक गतिविधियों को निस्पंद कर दिया। कहां तो विकास पथ पर गतिमान देश स्वत: स्फूर्त हो जाने के सपने देख रहा था, और कहां देश की विकास दर शून्य से भी बहुत नीचे चली गयी।
यहां औद्योगिक निवेश और कल-कारखानों की गति निस्पंद होती चली गयी। भीतरी, बाहरी व्यवसाय पर अवसाद और मन्दी के साये गहरा गये। देश की युवा पीढ़ी के लिए तो पहले ही शिक्षा अनुसार रोजगार की कोई गारंटी नहीं थी, अब निवेश और उत्पाद का ग्राफ यूं गिरा कि बड़े पैमाने पर मौजूदा रोजगार पर भी छंटनी और विस्थापन के साये मंडराने लगे। सरकार ने अपना दायित्व निभाने के नाम पर देशवासियों को भूख से न मरने देने की गारंटी तो दे दी, लेकिन उनकी शिक्षा और योग्यता के अनुसार उन्हें उचित काम देने की कोई गारंटी नहीं दी। शहरी बेकारी की समस्या तो पहले ही विकट थी और अपना समाधान पलायन में तलाश रही थी। अब उन्हें नयी नौकरियां तो क्या मिलनी थी, कामगारों की लगी-लगायी नौकरियां भी छूट गयीं। कभी श्रम विस्थापन की जो बहुत बड़ी समस्या देश विभाजन के समय पैदा हुई थी, वह उससे भी विकराल रूप धारण करके सामने आ गयी। जो निष्क्रमण पहले गांवों की आर्थिक दुरावस्था के कारण शहरों, महानगरों और औद्योगिक अंचलों में हुआ था, वह अब महानिष्क्रमण बनकर वापस गांवों की ओर लौटने लगा। आंकड़ों ने बताया कि श्रम शक्ति का यह विस्थापन इससे कहीं अधिक था, जितना इससे पहले भारत के सन् सैंतालीस के महाविभाजन में देखा था।
यह श्रम शक्ति उन्हीं अपने गांव-घरों की ओर लौट रही थी जिनकी आर्थिक दुरावस्था से आजिज आकर इन्होंने कभी शहरों और औद्योगिक विकल्प की ओर प्रस्थान किया था। अब वहां काम नहीं था, कल-कारखानों ने धुआं उगलना बंद कर दिया था। भूख और बेकारी के साथ बीमारी और महामारी के साये उन पर गहराने लगे थे। वे अपनी पैतृकधरा, गांवों की ओर न लौटते तो और क्या करते?
वे वापस लौटे तो पाया कि चाहे देश की कृषि क्षेत्र की सक्रियता ने ही देश को मृत्यु विभीषिका के विस्तृत प्रसार से बचाया था, लेकिन कृषि भी लघु अनार्थिक जोतों से घिरी, कृषि क्रांति से वंचित और रूढ़िवादी जीवन निर्वाह खेती थी। चन्द फसलों तक सिमटी पहली कृषि क्रांति ने उत्तरी भारत में जल्द दम तोड़ दिया था, और द्वितीय कृषि क्रांति करने का साहस देश का कोई कोना न जुटा पाया था। सरकार ने किसानों को नारे अवश्य दिये थे कि शीघ्र ही आपकी कृषि आय दोगुनी कर दी जायेगी, लेकिन फसल कीमतों के लिए न तो उन्हें स्वामीनाथन मॉडल दे पायी थी और न ही नियमित मंडियों में एमएसपी पर खरीद की गारंटी। छोटे किसान की आय क्या दुगनी होती, अब भी वह तो बमुश्किल जीवन निर्वाह खेती पर टिका था। अब इस ग्रामीण व्यवस्था पर लौटकर आये इन अतिरिक्त बंधु-बान्धवों के बोझ को कैसे उठा लेते? महामारी और महानगरों की आर्थिकता में अनिश्चय से चकराये हुए बन्धु-बान्धवों में से अधिकांश ऐसे रहे कि जो अब रोजी-रोटी के लिए महामारी के संक्रमण का दबाव घटने पर भी वापस जाने के लिए तैयार नहीं थे।
फिर भारत में रोजगार और काम का ढांचा ऐसा है कि नियमित-अनियमित, काम धंधा करने वाले दिहाड़ीदार, फड़ीवाले और रेहड़ी वाले अधिक हैं। महामारी के पहले झटके में ये सब लोग अपना काम खो बैठे, और अब संक्रमण का दबाव घटने पर अपने गांवों से शहरों की ओर लौटने को तैयार नहीं थे क्योंकि स्थिति सामान्य हो जाने के दावों के बीच रूस-युक्रेन युद्ध के तांडव से लेकर पर्यावरण प्रदूषण से जलवायु के असाधारण परिवर्तन ने ऐसा आपूर्ति का संकट पैदा कर दिया था कि थोक और फुटकल महंगाई ने अपनी वृद्धि के सभी रिकॉर्ड बनाये और कालाबाजारी ने बनावटी कमी पैदा कर दी।
नतीजा असाधारण मन्दी से जीवन का अभिशप्त होते जाना, निवेशकों का हतोत्साह और विकास दर का उम्मीद से कम रह जाना निकला। नौकरियों के द्वार इस विस्थापित जनशक्ति के लिए शहरों में पुन: उस प्रकार नहीं खुले। जिन्हें नौकरियां वापस मिलीं वह भी पहले से कम वेतन पर मिलीं। भला ऐसे में विस्थापित श्रम शक्ति अपनी सम्पूर्णता में कैसे लौट जाती? उन्हें तो अब अपने गांव-घरों के करीब ही रोजगार चाहिये था। सरकार ने लघु और कुटीर उद्योगों को जीवन दान देने की घोषणा तो कर दी। लेकिन केवल घोषणा ही।
उधर, स्टार्टअप उद्योगों को प्रोत्साहन देने और ‘स्किल इंडिया’ अभियान के द्वारा उन्हें नये कार्य कौशल में प्रशिक्षित करके रोजगार देने के बावजूद नतीजा टांय-टांय फिस्स निकला था। उम्मीद से कही कम उपलब्धि हुई और बेकारी के आंकड़े सुरक्षित सीमा रेखा से कहीं अधिक नजर आ रहे हैं। वैसे असली बेरोजगारी इससे कहीं अधिक है, क्योंकि इनमें पैतृक धंधों और खेती बाड़ी में लगे हुए अर्ध बेरोजगार और मनरेगा जैसी योजनाओं में लगे लोग शामिल नहीं थे।
बेकारी की यह समस्या देश की युवा पीढ़ी का मनोविज्ञान भी बदलने लगी। समाज सर्वेक्षकों ने बताया है कि इन बेकारों में बड़ी श्रम शक्ति ऐसी है जो अब किसी भी नौकरी को पाने के लिए न तो छटपटाती है और न ही तलाश के लिए द्वार-द्वार खटखटाती है। बल्कि उन्हें अब सरकार द्वारा प्रदत्त राहत और रियायत संस्कृति पर जीने की आदत हो गयी है। विश्व भर में सम्भवत: भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी अस्सी करोड़ जनता रियायती अन्न के सहारे अपना जीवन यापन करती है। इसके लिए अपेक्षित अन्न भंडारण एवं अनुदान जुटाना भारतीय प्रशासन के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है।
ऐसी विकट परिस्थितियों में पिछले दिनों जब भारत सरकार ने बेरोजगारी की समस्या से जूझने की कवायद के तहत दस लाख विभिन्न सरकारी विभागों की नौकरियां भरने, अथवा सेना में हर वर्ष चार वर्ष के लिए नौजवानों को भर्ती कर उनमें से एक-चौथाई को स्थायी नौकरी देने की घोषणा की, तब मूल बेकारी की समस्या अपनी संपूर्ण विकरालता के साथ सामने आ खड़ी हो गयी। अपने असंतोष और क्रोध का प्रदर्शन युवा पीढ़ी ने विस्तृत पैमाने पर राष्ट्रीय संपदा की हानि एवं हिंसा के साथ किया है। लेकिन बेकारी पर नवनिर्माण का दृष्टिकोण अपनाने की बजाय दलीय राजनीति होने लगी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे के सामने सीना ठोक कर खड़े होते नजर आये हैं।
समस्या से जूझने का यह उचित तरीका नहीं। यह समय उस भरोसे के निर्माण का है जिसमें युवा पीढ़ी को लगे कि उनका भविष्य सुरक्षित है। केवल सरकार और सेना क्षेत्र में ही नहीं, निजी क्षेत्र के देश के प्रति उत्तरदायी रवैये में भी यह आभासित हो।
आज गारंटी केवल उिचत काम देने की ही न मिले, बल्कि वह माहौल देने की भी मिले, जिसमें हर युवा इकाई अपने आपको दिशाहीन और असंरक्षित नहीं, बल्कि आजीवन सुरक्षित और संरक्षित पाये। अब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की ईमानदार भागीदारी इस दायित्व को संभाले, अगर देश को विकासशील रहना है तो।
लेखक साहित्यकार हैं।