क्षमा शर्मा
राजीव गांधी जब सत्ता में आए थे तो देश में कंप्यूटर की चर्चा चल पड़ी। नब्बे के दशक के बाद जिसे अपने देश में नव पूंजीवाद, लिब्रलाइजेशन और भूमंडलीकरण का दौर कहा जाता है। उस दौरान, देखते-देखते कंप्यूटर जीवन के हर क्षेत्र में छा गया।
हालांकि, तब भी बहुत से लोग जरूरत से ज्यादा तकनीक के नौकरियों में प्रवेश के खिलाफ थे। उनका मानना था कि अपने देश में जनसंख्या बहुत ज्यादा है। हम हूबहू यूरोप या अमेरिका की तरह नहीं चल सकते। कंप्यूटर के जरूरत से ज्यादा उपयोग से बड़ी संख्या में नौकरियां चली जाएंगी। ऐसा हुआ भी। यह तक देखा गया कि दस-दस लोगों की नौकरियों का काम एक कंप्यूटर ने संभाल लिया।
इसी दौरान नौकरियों में कॉन्ट्रेक्ट का प्रचलन शुरू हुआ। लोगों की पक्की नौकरियां खत्म होने लगीं। लेकिन वक्त और तकनीक का पहिया कभी रुकता नहीं है। कंप्यूटर और मोबाइल दो ऐसी तकनीक हैं, जिन्होंने न केवल शहरों, बल्कि दूरदराज के गांवों में भी जीवन बदल दिया। फोन कहां किसी-किसी के घर में होता था, अब वह अपने देश में बहुसंख्यक लोगों के हाथ में है। बल्कि ऐसा समय भी आया जब बूढ़ों, युवाओं, बच्चों के लिए तकनीक और गैजेट्स को भगवान बताया जाने लगा। बच्चों की पत्रिकाएं तक यही सिखाने लगीं कि बच्चे भी अधिक से अधिक तकनीक का इस्तेमाल करें। हालांकि, जल्दी ही इसके दुष्प्रभाव भी दिखाई देने लगे। अधिक देर तक कंप्यूटर और मोबाइल के प्रयोग से युवाओं और बच्चों में वे रोग होने लगे, जिन्हें वृद्धावस्था के रोग कहा जाता था। इसके अलावा, पोर्न के आसानी से उपलब्ध होने के कारण महिलाओं के प्रति अपराधों में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई।
इन दिनों जब अपने देश में युवा बहुसंख्यक हैं तो अक्सर पूछा जाता है कि आखिर मिलेनियल्स को क्या चाहिए। दरअसल तो पूछने वाले ये जानते भी हैं। कौन नहीं जानता कि युवाओं को शिक्षा, रोजगार और जीवन में स्थायित्व चाहिए, लेकिन देखा गया है कि ये बातें ही पूरी नहीं हो रहीं। जीवनशैली के बदलाव और हर बात को ‘टू मिनट नूडल्स’ जैसा आसान समझने के कारण युवाओं के जीवन की तकलीफें भी बढ़ी हैं। मामूली असफलता को झेलने का धैर्य भी जैसे गुजरे जमाने की बात हो गई है।
पिछले तीन दशक में जिस बालीवुड को युवाओं का आदर्श बताया गया था, जिनकी जीवनशैली, रिश्तों-नातों से अखबार भरे रहते थे, आजकल जैसी खबरें रोज दिख रही हैं, उन्हें जानकर ये मिलेनियल्स या युवा ठगा-सा महसूस भी कर रहे हैं। जीवन में जिन्हें आदर्श की तरह देखा, जिन जैसा बनने की कोशिश की, उनमें से बहुत से ऐसे निकले, जिनकी जीवनशैली तो किसी काम की नहीं। वहां तो तरह-तरह के अपराध और नशे का कारोबार है। ऐसे में ये युवा या मिलेनियल्स क्या करें, कहां जाएं। किस रास्ते पर चलें जो जीवन ठीक से चल सके।
कोरोना जैसी महामारी के समय तक आते-आते हम देख रहे हैं कि लिब्रलाइजेशन ने जिस रोजगार और समृद्धि के सपने दिखाए थे, वे तो अब कहीं नहीं रहे। पहले तो नौकरी मिलना मुश्किल। मिल भी गई तो जीवनभर की नौकरी तो क्या, अगले दिन की नौकरी का भरोसा नहीं रहा। इसीलिए ऐसी घटनाओं की बाढ़-सी आ गई है कि कुछ लड़कों ने सोचा कि अब नौकरी तो मिलने से रही, इसलिए वे रेल की पटरियों पर लेट गए और खत्म हो गए। किसी युवा की दिल के दौरे या ब्रेन हैमरेज से मृत्यु हो गई। कोई ऑफिस पहुंचा, उसे निकाले जाने का पत्र थमा दिया गया तो वह घर ही नहीं लौटा। एक लड़की की नौकरी चली गई तो वह छत से कूद गई। इनके रोते-बिलखते माता-पिता को देखकर आंखें भर आती हैं। क्या माता-पिता ने यही दिन देखने के लिए इन बच्चों को पढ़ाया-लिखाया था।
वे युवा जो तरह-तरह के कोर्स कर रहे हैं, एमबीए या इंजीनियरिंग की पढ़ाई में लगे हैं, एमए, बीए कर रहे हैं। माता-पिता का अच्छा-खासा पैसा खर्च हुआ है, आज वे परेशान हैं कि क्या करें। दुनियाभर में जिस तरह से नौकरियां जा रही हैं, लोग विदेशों से भारत की तरफ लौट रहे हैं, ऐसे में इन्हें पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी मिलेगी भी या नहीं। अपना भी कुछ काम करें तो इसके लिए पैसा कहां से आएगा। मान लीजिए कुछ शुरू भी करें, तो चलने की क्या गारंटी। फिर इन दिनों ऑनलाइन खरीददारी बढ़ने के कारण बहुत से व्यवसाय या तो नष्ट हो गए हैं या नष्ट होने के कगार पर हैं। जिस तकनीक को भगवान बताया गया था, वह हर रोज रोजगार को हड़प रही है।
हालांकि, यह भी सच है कि आज के विश्वग्राम के दिनों में तकनीक से अलग रहकर भी अपनी ढपली नहीं बजाई जा सकती। ऐसे में जब लोग बहुत मासूम बनकर पूछते हैं कि युवा परेशान क्यों हैं, वे अपने भविष्य की तरफ क्यों नहीं देखते। आखिर आने वाला कल सुनहरा ही होगा। सच बात है। अगर चारों ओर अंधेरा देखेंगे तो अंधेरा ही दिखेगा। मगर, उस अंधेरे के बाद जो रोशनी की किरण नजर आती है, रात के बाद सवेरा होता है, वह सवेरा भी तो दिखना चाहिए।
जिस तरह कार्पोरेट सिर्फ अपने मुनाफे को देखता है, उसे किसी की रोजी-रोटी या जीवनयापन की चिंता नहीं होती। इन दिनों सरकारों ने भी न केवल युवाओं बल्कि बहुत-सी समस्याओं से मुंह मोड़ लिया है। आखिर ये युवा भी वोटर हैं। राजनीतिक दल अतीत में इन्हें लुभाने के तरह-तरह से प्रयास भी करते रहे हैं। मगर, इन दिनों जब युवाओं को सबसे अधिक भरोसा देने की जरूरत है, कोई उनकी समस्याओं पर बात नहीं कर रहा है।
आने वाले दिनों में अगर इन युवाओं की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो न केवल इनके जीवन को खतरा है, बल्कि सरकारों को इनकी नाराजगी भी झेलनी पड़ सकती है। जिस तरह से बेरोजगारी का मुद्दा युवाओं के बीच सिर उठा रहा है, अगर जल्दी से जल्दी उस पर ध्यान नहीं दिया गया तो मुश्किल हो सकती है। अतीत से यदि सबक लें तो युवाओं की नाराजगी दुनियाभर की सरकारों को भारी पड़ती रही है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।