प्रदीप सरदाना
बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते कहते। जैसे ही पंडित शिवकुमार शर्मा के निधन का समाचार मिला तो ये पंक्तियां सहसा याद हो आयीं। साथ ही याद हो आए वे पल जब इन दिग्गज संगीतज्ञ का संतूर वादन सुना या जब इनसे मुलाकात हुई।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऐसे कुछ ही बड़े संगीतज्ञ हैं जिन्होंने फिल्मों में भी संगीत दिया और उसमें सफल भी रहे। हालांकि संगीत इतिहास में उनका नाम फिल्म संगीत के लिए नहीं, संतूर वादन के लिए अमर रहेगा। चाहे फिल्मों में हरिप्रसाद चौरसिया के साथ शिव-हरि की जोड़ी के रूप में दिया उनका संगीत भी उत्कृष्ट था लेकिन संतूर के तो वह पितामह बन गए हैं।
जम्मू में संगीतज्ञ पंडित उमा दत्त के यहां 13 जनवरी, 1938 को जन्मे शिवकुमार को उनकी 5 बरस की उम्र से पिता ने तबला वादन और गायन की शिक्षा देनी शुरू कर दी थी। अपनी 13 बरस की उम्र तक शिव एक अच्छे तबला वादक के साथ अच्छे शास्त्रीय गायक भी बन गए। लेकिन तभी पिता ने उनसे कहा कि तुम तबले की जगह अब संतूर सीखो। शिव के लिए यह ऐसे था जैसे हाई स्कूल पास छात्र को फिर से नर्सरी में दाखिला लेना पड़े। अपने पिता के इस आदेश से शिव विचलित तो हुए लेकिन पिता का संतूर प्रेम और सपने देख वह उनके सामने नतमस्तक हो गए।
असल में सन् 1940 के दशक में संतूर जम्मू-कश्मीर के सीमित क्षेत्र में लोक संगीत और सूफियाना संगीत के दौरान ही इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन उमा दत्त ने उन दिनों संतूर पर शोध करना शुरू किया तो उन्हें लगा कि यह साज बहुत ही खूबसूरत है, इसके साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत को जोड़ दिया जाये तो यह दुनिया का दिल जीत सकता है। फिर क्यों न उनका योग्य पुत्र शिव ही अपने कर कमलों से यह पहल करे।
जब शिवकुमार ने सौ तारों वाला संतूर थामा तो वे संतूर के होकर रह गए। चार बरसों में ही शिवकुमार संतूर वादन में पारंगत होने के साथ स्वयं भी उसके साथ अभिनव प्रयोग करने लगे। तभी पिता-पुत्र को लगा कि संतूर को जम्मू-कश्मीर से बाहर ले जाना है तो किसी महानगर में इसकी प्रस्तुति देनी होगी।
बस यही सोच जेब में 500 रुपये रख शिव मुंबई आ गए, जहां 1955 में सिर्फ 17 बरस की आयु में उन्होंने संतूर वादन का अपना पहला सार्वजनिक कार्यक्रम किया तो उसे दिग्गज फ़िल्मकार वी. शांताराम की बेटी मधुरा शांताराम ने भी देखा। उन्हें उनका संतूर वादन बहुत पसंद आया और शिव और संतूर का जिक्र पिता से किया। तब शांताराम ने शिवकुमार को बुलाकर संतूर सुना तो वह काफी खुश हुए। उन दिनों शांताराम अपनी फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ बना रहे थे। शांताराम ने तब फिल्म के एक गीत दृश्य में शिव का संतूर वादन रख दिया। इससे ‘झनक झनक पायल बाजे’ संतूर के सुर संजोने वाली देश की पहली फिल्म हो गयी।
शिवकुमार की ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ तब आया जब उनकी मुलाक़ात बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया से हुई। उसके बाद इन दोनों की मित्रता इतनी प्रगाढ़ हुई कि उसे बरसों बाद अब विधाता ने ही अलग किया है। अन्यथा शिव-हरि की यह जोड़ी 55 साल तक साथ रही। पहले 1967 में इनका एक म्यूजिक एलबम ‘कॉल ऑफ द वैली’ आया, जिसमें इनके संतूर और बांसुरी के साथ बृज भूषण काबरा के गिटार की जुगलबंदी थी।
फिल्मों में शिव-हरि को स्वतंत्र संगीतकार की जोड़ी के रूप में पहला मौका फ़िल्मकार यश चोपड़ा ने फिल्म ‘सिलसिला’(1981) से दिया। इस फिल्म में शिव-हरि ने सफलता का नया इतिहास लिखा। इसके बाद इस जोड़ी ने यश चोपड़ा के साथ फासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा और डर के साथ रमेश तलवार की ‘साहिबान’ जैसी फिल्मों में संगीत देकर उस दौर के कुछ बड़े संगीतकारों को मात दे दी। इतनी सफलता के बाद भी इनका फिल्म संगीत से मोह भंग हो गया। लेकिन मंच पर शिव के संतूर का जादू देश में ही नहीं विश्वभर में चलता रहा। इनके संतूर के नए प्रयोगों से संतूर नयी पीढ़ी को भी गज़ब का सुकून देता रहा।
हालांकि उनके जीवन के अंतिम दो बरस घर की चारदीवारी में ही गुजरे। जानी-मानी शास्त्रीय गायिका और पंडित जसराज की पुत्री दुर्गा जसराज से बात हुई तो वह शिवकुमार के निधन से बेहद दुखी थीं। दुर्गा कहती हैं, ‘कोरोना के दो साल के बाद वह पहली बार अब 15 मई को हरिप्रसाद जी के साथ भोपाल में अपनी प्रस्तुति देने जा रहे थे। लेकिन 10 मई को सुबह वह स्नान घर में मूर्च्छित होकर ऐसे गिरे कि फिर हमेशा के लिए सो गए।’
पंडित शिव कुमार ने एक बार कहा था, ‘मैंने संतूर वादन के दौरान कई बार अपने हाथों में ईश्वर के होने का अहसास महसूस किया है। प्रभु ने मुझे स्वयं चुना कि मैं संतूर को दुनिया भर में ले जा सकूं।’ संतूर वादन की अपनी अनुपम प्रतिभा के कारण ही उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार के साथ पद्मश्री और पद्मविभूषण से भी नवाजा गया। अब उनके बड़े पुत्र राहुल तो उनकी इस संतूर यात्रा को जारी रखेंगे ही।