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जी हां, वह जनता ऐसे ही आती है

तिरछी नज़र
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असल में जनता कहीं जाती नहीं है। वह बस ऐसे आती नहीं है। अपने काम धंधे में लगी रहती है, रोटी कमाती रहती है, खटती रहती है, कुढ़ती भी रहती है। लेकिन फिर अचानक वह उठ खड़ी होती है।

वो दिनकरजी ने कहा है न कि सिंहासन खाली करो कि अब जनता आती है। वह जनता ऐसे ही आती है जैसे वह नेपाल में आई है। नेपाल में वह पहले भी आई थी, कोई बीसेक साल पहले और इसी तरह आई थी। फैज साहब ने भी कहा है कि न कि जो दरिया झूम के उठ्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे। जनता जब आती है तो फौज-पुलिस कुछ भी उसे रोक नहीं पाती। तोप-तमंचे धरे रह जाते हैं। नेपाल की जनता जब बीसेक साल पहले ऐसे ही आई तब सचमुच के राजा को सचमुच का सिंहासन खाली कर भागना पड़ा था। अभी कहीं सिंगापुर-विंगापुर में बैठा वह राजा अपना सिंहासन वापस लेने के सपने देख ही रहा था, मंसूबे बना ही रहा था, तिकड़म भिड़ा ही रहा था, रणनीति बना ही रहा था कि जनता फिर आ गयी। जबकि उसके इस तरह आने के बारे में किसी ने सोचा नहीं था।

असल में जनता कहीं जाती नहीं है। वह बस ऐसे आती नहीं है। अपने काम धंधे में लगी रहती है, रोटी कमाती रहती है, खटती रहती है, कुढ़ती भी रहती है। लेकिन फिर अचानक वह उठ खड़ी होती है। जैसे उसकी अभी-अभी नींद खुली हो और वह चली आती है राज महलों की तरफ दरबारों की तरफ और सिंहासन खाली होने लगते हैं और शासक भागने लगते हैं।

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वैसे ही जैसे बीसेक साल पहले नेपाल से राजा भागा था, पिछले ही दिनों बंगलादेश से शेख हसीना भागी थी और थोड़ा और पीछे जाएं तो श्रीलंका के राजपक्षे बंधु भागे थे। अब नेपाल से फिर शासक भागे हैं। यह तो कुछ वैसा ही हो गया जैसे घड़ी की सूई फिर घूमकर वहीं आ गयी हो। जो बीस-तीस साल, पचास साल या फिर सौ साल तक सिंहासन पर जमे रहने के मंसूबे बनाते रहते हैं, ख्वाब देखते रहते हैं, सपने बुनते रहते हैं और कई बार तो घोषणाएं भी कर डालते हैं कि हम पचास साल कहीं नहीं जाने वाले, अचानक वे सिंहासन छोड़कर भागने लगते हैं। हमारे आसपास वाले तो बहुत ही भाग रहे हैं। अगर बीसेक साल पहले के नेपाल को छोड़ दो तो अभी भी यह तीसरी भागमभाग है। पहले श्रीलंका, फिर बंगलादेश और अब नेपाल।

नहीं आगे जाने की जरूरत नहीं है। नहीं डर की बात नहीं है। तीन के बाद सिलसिला वैसे भी रुक ही जाता है। हमारे यहां तीन की गिनती पर स्टॉप हो जाता है। कसमें तीन ही खायी जाती हैं, जैसे तीसरी कसम थी और अक्सर चांस भी तीन ही मिलते हैं। तीन एक तरह से फाइनल होता है। तो भैया हमारे पड़ोस में तीन तख्तापलट हो चुके। तीन क्रांतियां हो चुकीं। तीन सिंहासन खाली हो चुके हैं। पर सवाल यही है कि तीन का नियम जनता पर लागू होता है या नहीं।

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