जगमति सांगवान
हरियाणा में लंबे इंतजार के बाद लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई पंचायतों के चुनाव अब हो सकते हैं। अभी भी हाईकोर्ट ने नए नियमों से चुनाव करवाने को सशर्त मंजूरी दी है। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रवि शंकर झा व जस्टिस अरुण पल्ली ने हरियाणा सरकार का नए नियम के तहत चुनाव कराने का आग्रह तो मान लिया है मगर शर्त लगाई है कि नए नियमों के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई जारी रहेगी। यानी अगर सरकार नए नियमों के तहत चुनाव कराती है और हाईकोर्ट इन नियमों को अमान्य करार देता है तो चुनाव रद्द माने जाएंगे और दोबारा करवाने पड़ेंगे। दूसरा विकल्प सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में उस फैसले के खिलाफ याचिका लगाने का होगा। चुनाव को दो चरणों में करवाने की भी सरकार ने मंशा जाहिर की है। यह अंतरिम मंजूरी संवैधानिक और प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से कानून सम्मत नहीं कही जा सकती क्योंकि यह महिलाओं को पचास फीसदी सीटों पर चुनाव लड़ने से वंचित करती है। यदि यही करना था तो पूरे प्रदेश को डेढ़ साल तक चुने हुए प्रतिनिधियों से वंचित क्यों रखा गया?
महिला संगठनों ने तो उसी समय यह आवाज उठाई थी कि जिसे महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण बताया जा रहा है वह असल में पुरुषों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है, जिसकी हमारा संविधान इजाजत नहीं देता। चुनाव में देरी का एक कारण कोरोना वायरस तो दूसरी तरफ बड़ा कारण हरियाणा सरकार द्वारा 2020 में पंचायती राज द्वितीय संशोधन अधिनियम पास करवाना है। इसमें महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। आरक्षण के प्रावधानों को जिस प्रकार लागू करने का हरियाणा सरकार ने नोटिफिकेशन किया उसके खिलाफ 15 अप्रैल, 2021 को हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। ऐसी करीब 13 याचिकाएं हाईकोर्ट में लगी हुई हैं। ये याचिकाएं इस आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं बल्कि आरक्षण के प्रावधान को लागू करने की जिस प्रकार की प्रक्रिया एक्ट में अपनाई गई है उसके खिलाफ हैं। दरअसल, संशोधित एक्ट को गलत तरीके से दर्ज करते हुए महिलाओं को सिर्फ 50 प्रतिशत सीटों पर ही चुनाव लड़ने की इजाजत दी गई है। जबकि संविधान की आरक्षण को लेकर भावना यह है कि आरक्षण एक न्यूनतम संख्या निर्धारित करता है इसके अलावा अगर आरक्षित कैटेगरी के उम्मीदवार सामान्य कोटा में भी चुनाव लड़ना चाहें तो उन्हें रोका नहीं जा सकता। वर्तमान संशोधन 2021 ऐसा करता है।
हरियाणा की सरकारों व नौकरशाहों का पहले भी ऐसा रवैया रहा है। वर्ष 2006 में तत्कालीन सरकार द्वारा स्कूल अध्यापिका-अध्यापक स्तर पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था। उसे लागू करने में भी खास यही प्रवृत्ति दिखाई गई थी। यानी वास्तव में पुरुषों के लिए 67 प्रतिशत का प्रावधान किया गया था जबकि उस विभाग में पहले ही 44 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही थीं। फिर प्रभावित मेरिटोरियस महिलाएं व सैकड़ों परिवार हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुए थे। हाईकोर्ट ने आरक्षण को इस प्रकार लागू करने के तरीके को संविधान की आरक्षण की मूल भावना के खिलाफ करार दिया था परंतु उन परिवारों का अच्छा-खासा पैसा, शारीरिक ऊर्जा व चैन बेवजह ही खर्च हुए थे।
वर्ष 2020 में वही सीन सामने आता है। 2020 में जब पंचायती राज कानून द्वितीय संशोधन में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण एक्ट में आया तो उसमें इस पहलू को और गौर से देखने की कोशिश की गई क्योंकि आशंका थी। पहले भी हरियाणा सरकार शिक्षा की योग्यता जैसी अलोकतांत्रिक शर्त लगा कर आधे से ज्यादा अशिक्षित व कम शिक्षित नागरिकों को चुनाव लड़ने के अयोग्य करार देकर स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक प्रणाली पर कुठाराघात कर चुकी है। इस प्रकरण में भी हू-ब-हू वही घटित हुआ है। क्योंकि महिलाओं को जो आरक्षण दिए जा रहे हैं ये कोई महिलाओं की बराबरी के एहसास की वजह से नहीं बल्कि इसमें इस मुद्दे का दोहन करने का मंसूबा हावी है। वरना यह कैसे कि महिलाओं की भलाई व बराबरी के नाम पर उन्हें ही सांसत में डालने वाले लोगों की न उस समय शिक्षक भर्ती मामले में चिन्हित करके कोई जवाबदेही सुनिश्चित की गई और न ही अब पंचायती स्तर पर आरक्षण के मसले पर।
वहीं मीडिया ने भी पूरे मसले को ऐसे पेश किया है जैसे कि कोर्ट में याचिकाएं स्वयं आरक्षण के खिलाफ लगी हों जबकि हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। वैसे इस पहलू को बार-बार मीडिया ने उठाया कि चुनाव लेट होने से ग्रामीण विकास प्रभावित हो रहा है इसके लिए वह साधुवाद के पात्र हैं। परंतु आरक्षण की इस संवैधानिक प्रक्रिया के उल्लंघन के गंभीर विषय को बहस में लाने में विफलता रही है। असल में आरक्षण जैसे छोटे-छोटे कदमों से महिला समानता जैसे बड़े लक्ष्य को हासिल करने में तभी मदद मिलेगी जब हम सभी नागरिक संवैधानिक मूल्यों-मान्यताओं की संगति में एक बड़ी जद्दोजहद से गुजरते हुए निखरते चलें।