कोरोना की दूसरी लहर के इस असाधारण संकट में भी यह देश नवरात्रों में देवी पूजन को नहीं भूला। निश्चय ही अपने-अपने घर के अंतरंग कोने में मातृशक्ति का यह पूजन जिंदगी से उखड़े हुए भयभीत लोगों को जीवन जीने की संकल्प शक्ति दे गया होगा। मौत के बढ़ते अंधेरों में जीने का अदम्य साहस दे जाती है नये भारत की उभरती हुई अपराजेय महिला शक्ति। टीकाकरण अभियान में आशा कार्यकर्ताओं, नर्सों और महिला डाक्टरों का पेश रहना। गहन चिकित्सा केंद्रों में पुरुष डाक्टरों के कंधे से कन्धा भिड़ाकर महिला डाक्टरों का अनथक श्रम न जाने कितना इस नये वायरस से हांंपते हुए मरीजों को बदले युग की आक्सीजन दे गया होगा।
बेशक सामाजिक से राजनीतिक फलक तक आज देश में अपना स्थान लेती हुई महिला शक्ति नारी सशक्तीकरण और नारी स्वातन्त्र्य का अहसास देती है। शिक्षा जगत और प्रतियोगी परीक्षाओं में पुरुषों को छकाती हुई औरत एक नये युग की कहानी लिख रही है। भारतीय विदेश सेवा से लेकर भारतीय सुरक्षा सेवा तक महिलाओं के लिए अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के दरवाजे खुल जाना क्या एक नये माहौल का संदेश नहीं। फ्रांस से राफेल विमान को एक भारतीय महिला पायलट ने जब अम्बाला की हवाई पट्टी पर उतारा, या दूर अमेरिका में भारतीय मूल की अन्तरिक्ष वैज्ञानिक ने मंगल ग्रह पर नये जीवन की खोज में उपग्रह उतार दिया तो लोग गर्वित हुए ही होंगे कि इसे निर्देशित कर उतारने वाली एक महिला थी।
सदियों से इस देश में महिलाओं को एक गौण सहचरी के रूप में जाना गया। उन्हें कोमलांगी, घर स्वामिनी और परिवार प्रतिष्ठा संरक्षक मान कर तय घेरों में कैद करने का प्रयास किया जाता रहा। नवरात्रों के दिनों में उसके मां रूप का पूजन आज से नहीं, बरसों से हो रहा है।
लेकिन वह केवल मां ही नहीं, जीवन के संकट पथ पर पुरुष के कंधे से कंधा भिड़ाकर चलने वाली सहयात्री भी है, यह आजकल के इस कोरोना पीड़ित काल में बहुत शिद्दत से महसूस किया जा रहा है। निश्चय ही संघर्ष काल में औरत असाधारण धीरता, एकनिष्ठ समर्पण और बलबुद्धि में पुरुष से किसी भी दृष्टि से कम नहीं। पिछले दिनों भारतीय सेवा में उनके वजूद को स्वीकार कर उन्हें स्थायी कमीशन भी दे दिया गया। यह भी माना गया कि युद्धरत टुकड़ियों में उन्हें जाने की इजाजत देनी ही होगी।
अब भारत की शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश ने भी कह दिया कि भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख स्तम्भ न्यायालय में अभी तक कोई महिला मुख्य न्यायाधीश क्यों नहीं बनी? भारतीय हाईकोर्टों में 661 जज हैं, उनमें से महिलायें केवल सत्तर क्यों? शीर्ष अदालत ने कहा कि महिला वकीलों को घरेलू जिम्मेदारियों का हवाला देकर जज बनने से इनकार नहीं करना चाहिए। उन्हें जल्द जज बनना चाहिए, तािक वरिष्ठता क्रम में अपना स्थान पाकर वह मुख्य न्यायाधीश बन सकें। निश्चय ही उनकी इस संदर्भ में सहभागिता अहम है, क्योंकि उनकी योग्यता पुरुषों से कम नहीं। महिलाओं ने बार-बार अपनी योग्यता से समय की दीवार पर लिखे इस सत्य को प्रमािणत किया है।
डिजिटल भारत में अपने इंटरनेट ज्ञान से उन्होंने पूरे देश को चौंकाया है, इसके अतिरिक्त आर्थिक सर्वेक्षण बताते हैं कि लघु-मध्यम उद्योगों में जिस निवेश कल्पना से हम नये भारत का निर्माण करना चाहते हैं, उसमें अभी तक महिला उद्यमियों की प्राप्तियां कुछ कम नहीं रहीं।
लेकिन महिलाओं की योग्यता और शक्ति का यह प्रशस्ति गायन झूठा पड़ जाता है, जब देखते हैं कि आज भी इस देश के पुरुष समाज द्वारा महिलाओं को कमतर आंकने की प्रवृत्ति कम नहीं हुई। कामकाजी लड़कियों के अपहरण और बलात्कार की घटनायें आज भी हिला देती हैं। अभी राजपुरा, पटियाला के एक गांव में एक औरत ने एक के बाद दूसरी लड़की को जन्म दे दिया तो पति महोदय ने तेजाब फेंक उसे झुलसा दिया, क्योंकि वह लड़के का जन्म चाहते थे, लड़की का नहीं।
कोरोना के इस असाधारण महाकाल में व्यथित कर देने वाले आंकड़े पूछते हैं कि इसमें पुरुषों की जगह महिलायें क्यों अधिक बेरोजगार हुईं? बेशक निजी कंपनियों में शीर्ष स्थानों पर महिलायें भी नजर आने लगी हैं, लेकिन उनका वेतन पुरुष उच्चाधिकारियों से कम क्यों रहता है? इक्कीसवीं सदी की महिलाओं के सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में प्रगतिशीलता के बहुत से नारे लगाये जाते हैं। परन्तु संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की पहली रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि बेशक बातें हम नारी स्वातन्त्र्य की करते हैं, लेकिन अभी तक उन्हें ‘माई बाडी इज़ माई ओन’ का अहसास भी नहीं दे सके। क्या इनके इलाज का, यौन संबंधों पर निर्णय उनका अपना नहीं होता। औरतों को अभी तक शारीरिक स्वायत्तता नहीं मिली और इसी के चलते लैंगिक भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा मिलता है।
इस महामारी के दौरान जहां उनके साथ विभिन्न प्रकार के अपराध बढ़े हैं, उन्हें उचित चिकित्सा व देखभाल मिलना कठिन हुआ है। हर क्षेत्र में नारियों ने अपनी योग्यता को प्रमाणित किया है, लेकिन पुरुष समाज अभी भी उन्हें भोग्या मानकर प्रयुक्त होने वाली वस्तु क्यों मानता है? कोरोना महामारी के इस दूसरी लहर में जब बिना किसी लिंग भेद के संक्रमण में रिकार्ड तोड़ वृद्धि हुई, आपातकालीन चिकित्सा में पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले प्राथमिकता क्यों दी जाती है? बदलते हुए युग बोध में जहां नारे महिला-पुरुष समानता बोध के लगते हैं, एेसा क्यों है कि पुत्ररत्न की प्राप्ति को एक सौभाग्य सूचक मांगलिक उत्सव माना जाता है और पुत्री के जन्म की सूचना पर मिठाई बंटती कम ही देखी जाती है।
क्यों अब यह समय नहीं आ गया कि जब कोरोना की एक के बाद एक लहर ने देश की अर्थव्यवस्था को उधेड़ कर रख दिया है। बेकारी में आशातीत वृद्धि हुई है और महंगाई बेलगाम हो रही है। ऐसे समय में आर्थिक नवनिर्माण के लिए एक सामूहिक लड़ाई लड़नी पड़ेगी, पुरुष और नारी का भेद किये बिना। इस लड़ाई में नारी एक कमजोर कड़ी रहेगी, इस पूर्वाग्रह के साथ हम आसन्न संकट के मुकाबले के लिए अपनी रणनीति बनाने का हठ करते रहेंगे, तो अपनी इस अधूरी लड़ाई से पूर्ण विजय की उम्मीद नहीं रख सकते।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।