ऐश्वर्य मोहन गहराना
भोजन मानव की मूलभूत नहीं, पंचभूत आवश्यकता है। रसोई चौपाल से लेकर फेसबुक तक सोशल मीडिया में छाई रहती है। फेसबुक की हिंदी पट्टी ने सिलबट्टा विमर्श में एक सप्ताह बिताया। पितृसत्ता, नारीवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद, बाजारवाद के बहाने ‘स्वाद आकांक्षा’ को भी डटकर आड़े हाथ लिया गया। ऐसा नहीं कि स्वाद रसिक केवल पितृसत्ता ही है। हम सबने स्वाद मातृसत्ता के हाथों ही जाना है। पितृसत्ता के कुछ अवशेषों को छोड़ दिया जाये तो आज प्रायः हर स्वाद रसिक स्त्री-पुरुष भोजन बनाना जानता है। परन्तु क्या पुरुषों का रसोई में प्रवेश स्त्री सत्ता को स्वीकार है? या पितृसत्ता रसोई में सहज है? दोनों प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। प्रथमतः भारतीय नारीवाद रसोई विरोध से शुरू होता है, रसोई भले ही छोड़ी जाए पर नारीवाद रसोई पर अपनी सत्ता नहीं छोड़ता। भले ही स्त्रियां नौकरियां कर रही हैं, रसोई में नौकर काम कर रहे हैं, भोजन में क्या और कैसे बनेगा का निर्णय लोकतान्त्रिक हो चुका है परन्तु घर की रसोई में पुरुष का प्रवेश ‘हाथ बांटने और बंटाने’ के रूप में ही परिभाषित होता है। पितृसत्ता और मातृसत्ता में अघोषित सहमति है कि पुरुष रसोई में बाहरी हस्तक्षेप है। पुरुष कितना ही बढ़िया खाना बनाता हो और अपनी पाक कला के प्रदर्शन पर प्रसन्न होता हो, मामला यही रहता है कि ‘रसोई में सहायता करता है।’ पुरुष का भी घर है, उसकी भी रसोई है, अपने घर का काम करना सहायता करना तो नहीं है।
घर के हर सदस्य को घर का काम करना है तो करना है, वो किसी की सहायता नहीं कर रहे। यह ठीक उसी प्रकार है कि कोई स्त्री नौकरी कर या बाजार हाट कर पुरुष की सहायता नहीं कर रही। उसे निर्णय लेने की स्वतंत्रता होती है। पुरुष को भी रसोई में निर्णय को स्वतंत्रता लेनी और मिलनी चाहिए। बात मात्र क्या बनने की नहीं, कैसे बनने की है। ‘ये आते हैं और दस चम्मच बिगाड़ जाते हैं’ जैसे हतोत्साहन नहीं चाहिए। यह स्थिति बदलनी चाहिए। पूर्णकालिक गृहिणी की भी समाज में स्वीकार्यता होनी चाहिए। मात्र गृहिणी और ‘कामकाजी’ गृहिणी से आगे बढ़ने के लिए मातृसत्ता को भी तो बदलना होगा। उपरोक्त आलेख भले ही पुरुष दृष्टिकोण से लिखा गया है पर रसोई को अगर आप अपना नहीं समझते तो इसे पढ़कर प्रसन्न न हों।
साभार : गहराना डॉट कॉम