Tribune
PT
About Us Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

संकीर्णता की राजनीति को नकारे विवेकशील मतदाता

विश्वनाथ सचदेव महाराष्ट्र, झारखंड और देश के अलग-अलग हिस्सों में कोलाहल भरा चुनाव-प्रचार थमने के बाद मतदान हो चुका है। प्रचार के शोर का क्या और कितना असर मतदान के नतीजों पर पड़ता है, यह अनुमान लगाना भी सहज नहीं...
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement
विश्वनाथ सचदेव

महाराष्ट्र, झारखंड और देश के अलग-अलग हिस्सों में कोलाहल भरा चुनाव-प्रचार थमने के बाद मतदान हो चुका है। प्रचार के शोर का क्या और कितना असर मतदान के नतीजों पर पड़ता है, यह अनुमान लगाना भी सहज नहीं है, लेकिन मतदान की तारीख पास आते-आते राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के प्रचार में आया परिवर्तन बहुत कुछ कह जाता है। इन चुनावों में हमने देखा कि प्रचार की शुरुआत में तो भले ही मुद्दों की कुछ बात हुई हो, अंत तक आते-आते बात सांप्रदायिकता तक पहुंच ही गयी। वैसे आम-चुनाव के परिणाम आने के बाद ही देश की राजनीति को समझने का दावा करने वाले यह कहने लगे थे कि जब भी सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को यह लगने लगेगा कि उनकी लोकप्रियता में कुछ कमी आ गयी है और वह स्वयं को कुछ असुरक्षित महसूस करेंगे तो वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को अपना मुख्य मुद्दा बना लेंगे।

यह तो आम चुनाव के परिणामों ने ही बता दिया था कि प्रधानमंत्री लोकप्रियता के उस पायदान से काफी नीचे आ गये हैं जहां वे 2019 के चुनाव के समय थे। पर हरियाणा के चुनाव में भाजपा को मिली अप्रत्याशित विजय ने उनका हौसला काफी बढ़ा दिया था। इसलिए, जब महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी मैदान में प्रचार के लिए उतरे तो शुरुआत में उन्होंने ठोस मुद्दे ही उठाये थे। पर जल्द ही उन्हें अहसास होने लगा कि चुनावी सभाओं में उन्हें वह प्रतिसाद नहीं मिल रहा जो पहले मिलता था तो उनके प्रचार का लहजा और स्वर दोनों बदलने लगे! अपने खेल की पिच स्वयं बनाने के आदी हैं प्रधानमंत्री। पहल वे करते थे और विपक्ष की कार्रवाई प्रतिक्रियात्मक ही रहती थी। पर इस बार जब प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा दिये गये ‘बंटोगे तो कटोगे’ का नारा अनायास ही उठा लिया तो संकेत मिलने लगा था कि उन्हें अपनी ज़मीन कुछ कमज़ोर नज़र आ रही है। यह बात दूसरी है कि जल्दी ही उन्हें अहसास हो गया कि यह नारा उन्हें कमज़ोर बनायेगा और उन्होंने इसमें कुछ बदलाव करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के ‘एक रहेंगे, नेक रहेंगे’ को ‘एक रहेंगे, सेफ रहेंगे’ कर दिया। पर इस बात ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भाजपा एक रहने का आह्वान बहुसंख्यकों से कर रही थी।

Advertisement

यह सही है कि भाजपा के नेता पहले यह कह चुके थे कि ‘अब भाजपा को बीस प्रतिशत के समर्थन की आवश्यकता नहीं है’, पर अब भाजपा के नेतृत्व को यह दिख रहा था कि जब तक बहुसंख्यकों का ठोस वोट बैंक नहीं बनता है, उसकी सुरक्षा-दीवार मज़बूत नहीं होगी। भाजपा कांग्रेस पर मुसलमानों के वोट बैंक बनाने का आरोप हमेशा से लगाती रही है। भाजपा यह भी समझ गयी थी कि बीस प्रतिशत के वोट बैंक से कहीं मजबूत है अस्सी प्रतिशत का वोट बैंक। और शायद उसका शीर्ष नेतृत्व यह भी अनुभव करने लगा था कि हिंदुत्व को मुख्य मुद्दा बनाना ज़रूरी हो गया है। यही कारण था कि इस बार के चुनाव-प्रचार में मतदान का दिन नजदीक आते-आते प्रचार में सांप्रदायिकता का रंग दिखने लगा। ‘नेक’ की जगह ‘सेफ’ शब्द यूं ही नहीं जोड़ा गया था। यह जताना मुश्किल नहीं था कि सेफ्टी या सुरक्षा किससे चाहिए और किसको चाहिए।

बहरहाल, चुनाव किसी युद्ध से कम नहीं होते। महाराष्ट्र के एक पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री ने तो इस चुनाव के ‘धर्मयुद्ध’ होने की घोषणा भी कर दी और विपक्ष ने इसे चुनाव में धर्म के ‘हस्तक्षेप’ की संज्ञा भी दे दी। पर धर्म का यह हस्तक्षेप हमारी राजनीति में कब नहीं हुआ?

पिछले चुनावों के दौरान ही कपड़ों से लोगों को पहचानने का दावा किया गया था, मंगलसूत्र के छीनने की बात कही गयी थी, आस्था के प्रतीकों से जुड़े नारे चुनाव-प्रचार का हथियार बने थे। इस बार भी हरसंभव तरीके से इस हथियार को आजमाने की कोशिश होती रही है। हमारे संविधान के आमुख में ‘पंथ-निरपेक्षता’ शब्द जोड़े जाने को बात को अक्सर उछाला जाता रहा है। यही नहीं, चुनाव-प्रचार के आखिरी दिन एक भाजपा नेता ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि शीघ्र ही राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता को भगवा रंग में रंग देंगे!

धर्म वैयक्तिक आस्था की चीज है। उसका चुनावी-लाभ उठाने की किसी भी कोशिश को स्वीकार नहीं किया जा सकता, न ही किया जाना चाहिए। विविधता में एकता वाला देश है हमारा। धार्मिक विविधता हमारी ताकत है। इसलिए, धर्म को राजनीति का हथियार बनाना अपने संविधान की भावना के विरुद्ध काम करना है। यह अपने आप में एक अपराध है। इस अपराध की ‘सज़ा’ मतदाता ही दे सकता है। ऐसा कब होगा या हो पायेगा, पता नहीं। लेकिन होना चाहिए। जागरूक और विवेकशील मतदाता का दायित्व बनता है कि वह ग़लत तरीके से की जाने वाली राजनीति को नकारे।

बात सिर्फ सांप्रदायिक भावना को उभारने की ही नहीं है। चुनाव-प्रचार जिस तरह से घटिया होता जा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। जनतंत्र में चुनाव विचारों की लड़ाई होता है। अपने विचार के समर्थन में तार्किक तरीके से प्रचार करने का सबको अधिकार है। लेकिन अधिकार का यह कैसा उपयोग है कि हम सहज शालीनता को भी भूल जाएं? अपने राजनीतिक विरोधी को ज़हरीला सांप बताना शालीनता की किस परिभाषा में आता है? और एक-दूसरे को चोर कहकर हमारे नेता कैसी राजनीति करना चाहते हैं?

हम अपनी स्वतंत्रता के ‘अमृत-काल’ में हैं। पता नहीं प्रधानमंत्री ने क्या सोचकर यह नाम रख दिया था, पर इसका अभिप्राय यही लगता है कि हम बताना चाहते हैं कि हमारा जनतंत्र परिपक्व हो चुका है। इस परिपक्वता का तकाज़ा है कि हम छिछली राजनीति से स्वयं को बचाएं। विचारों की लड़ाई ठोस तर्कों से लड़ी जाती है, बेहूदा नारों से नहीं। चुनाव का अवसर राजनेताओं के लिए अपनी क्षमता को उजागर करने का होता है। यह दिखाने का अवसर होता है कि हम प्रतिपक्षी से बेहतर कैसे हैं। यह दावा करना पर्याप्त नहीं है कि मैं दूसरे से बेहतर हूं, बेहतरी को अपने व्यवहार से सिद्ध भी करना होता है। दुर्भाग्य ही है कि हमारे नेता, चाहे वे किसी भी रंग के क्यों न हों, न इस बात को समझते हैं और न ही समझना चाहते हैं। चुनाव-प्रचार के दौरान जिस तरह भाषा और नारेबाजी लगातार घटिया होती हम देख रहे हैं वह हमारी जनतांत्रिक समझ पर सवालिया निशान ही लगाता है।

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा नहीं है कि पहले हमारी राजनीति का स्तर बहुत अच्छा था, पर इतना घटिया निश्चित रूप से नहीं था। धर्म के आधार पर राजनीति पहले भी होती थी, पर वैसी नहीं जैसी अब हो रही है। भगवे या हरे या नीले या सफेद रंग ने हमारी राजनीति को बदरंग बना दिया है। नेता यह बात नहीं समझना चाहते, पर मतदाता को इसे समझना होगा–दांव पर उसका भविष्य लगा है!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement
×