अपने देश में और कहीं-कहीं दुनिया में भी एक वाक्य यदा-कदा सुनने को मिलता है- भावनाएं आहत हो गईं, धार्मिक भावनाओं का अपमान कर दिया। कुछ भावनाएं ऐसी हैं जो केवल पूजा स्थानों या विशेष संप्रदाय के महापुरुषों से जुड़ी रहती हैं। अगर वही भावनाएं अनियंत्रित हो जाएं तो फिर न किसी का सिर काटने में संकोच होता है, न आग लगाने में, न दंगा करने में संकोच किया जाता है। सवाल है कि यही संवेदना या आक्रोश की भावनाएं, दया या विरोध की भावनाएं उस समय क्यों छिपी रहती हैं, सोई रहती हैं जब मानवता के विरुद्ध बड़ा अपराध होता है। जब बच्चे बिना इलाज के मौत के मुंह में चले जाते हैं।
हिंदुस्तान जैसे देश में आज तक असंख्य बेटियां जन्म से पहले मां के गर्भ में ही क्रूरता से कत्ल कर दी गईं या नवजात बच्चियां कूड़े के ढेर पर फेंक दी गईं। उस समय वह भावनाएं न जाने किस गड्ढे में दबी रहती हैं जो भावनाएं किसी का सिर कटवा देती हैं, आग लगाने में कोई संकोच नहीं करतीं। इस समय जो भयावह संकट देश के सामने है, आकाश से बरस रहा है कहीं भयानक बारिश के रूप में, कहीं बादल फटने के रूप में और जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों की आंखें बरस रही हैं। हजारों लोग प्रतिवर्ष इसी बाढ़ और बादलों के कहर के कारण मौत के मुंह में चले जाते हैं, बेघर हो जाते हैं, उनके लिए आम जन से लेकर नेताओं तक की भावनाएं बिल्कुल शांत हो चुकी हैं।
आमजन तो बेचारा आमजन है। रोटी के लिए संघर्ष करता हुआ जिंदगी एड़ियां रगड़-रगड़ कर जी लेता है, पर जो देश के बड़े-बड़े नेता, शासक राजनीति के स्वामी हैं वे भी बाढ़ की समस्या को उतनी गंभीरता से नहीं ले रहे जितना उनको लेना चाहिए। कटु सत्य यह है कि दुनिया में बाढ़ से जितनी जन-धन की हानि होती है, उसका बीस प्रतिशत केवल भारत में है। हर वर्ष वर्षा होती है, आगे भी होती रहेगी पर आज तक यह प्रबंध क्यों नहीं हो पाया कि जो क्षेत्र हर वर्ष बाढ़ग्रस्त होते ही हैं उन क्षेत्रों से जनता को हटाकर कहीं दूर बसा दिया जाए। यह प्रयास भी नहीं हुआ कि नदियों-दरियाओं के रास्ते में जो अवैध कब्जे और अवैध खनन के कारण बाढ़ की स्थिति बनती है उसे ही नियंत्रित कर लिया जाए। श्री केदारनाथ धाम में जो कुदरत का कोप आदमी को सहना पड़ा उसके लिए भी यही कारण बताया गया था कि जिन क्षेत्रों में पानी को बहना है, उसी जमीन पर कब्जा करके बड़े-बड़े भवन खड़े किए गए। असम की बाढ़ कौन नहीं जानता।
इस समय तेलंगाना, आंध्र, महाराष्ट्र, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड़ जैसे बहुत से प्रांतों में वर्षा से बाढ़ बन चुके कुदरती कोप का भयानक रूप देखने को मिल रहा है।
पर प्रश्न फिर वही है कि एक साधारण से चित्र या शब्द या किसी की टिप्पणी से जो क्रोध, आक्रोश, हिंसा और बदले की भावना देश को जलाने के लिए भड़कती है, वही भावना अपने देशवासियों को बचाने के लिए सामने क्यों नहीं आती? वर्षा हम नहीं रोक सकते, बादल कब फटेंगे नहीं जानते, भूस्खलन और पहाड़ों का गिरना प्रकृति के हाथ में है पर वहां बसे अपने देशवासियों को सुरक्षित स्थान पर मुसीबत आने से पहले ही ले जाना यह तो देश के नेताओं के हाथ में है।
अपने-अपने धार्मिक स्थलों की विशालता का गुणगान करने वाले धार्मिक नेता व राजनीति के स्वामी न जाने क्यों मौन धारण रखते हैं। एक नहीं, अनेक ऐसे प्रसंग हैं जहां मानव हृदय पीड़ित होना चाहिए। नेताओं की भावनाएं सेवा-सहायता के लिए जन-जन तक राहत देने के लिए पहुंचनी चाहिए। और भी देखिए, अब कानून की छाया में लड़कियां देह व्यापार कर सकती हैं और इससे पहले ‘लिव इन रिलेशन’ का कानून जब बना या अवैध संबंधों को मान्यता दी गई तब भी वे सब मूक बने रहे, जिनसे आशा थी कि वे इन निर्णयों से तड़पेंगे और इन्हें रद्द करवाएंगे। एक मुस्लिम महिला को सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता दे दिया तो राजनीति और धर्म के ठेकेदार इतने तड़पे कि संसद में उस कानून को बदलना पड़ा, पर देश की बेटियां कानूनी छाया में देह व्यापार करें, तब न कोई तड़पा, न प्रदर्शन हुए, न कोई मशाल मार्च। देश में बीस करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं। कौन नहीं जानता कि सड़कों पर बच्चे जन्म लेते और वहीं आधे बूढ़े होकर मर जाते हैं। लाखों बच्चे लापता हैं। वे फंसाए गए होंगे या देह व्यापार में या अंगों की तस्करी में या अपराधों की दुनिया में। अपने देश के नेताओं, धर्म के तथाकथित ठेकेदारों, मानवाधिकारियों से सवाल है कि ये भावनाएं तभी क्यों घायल होती हैं जब केवल धर्म के तथाकथित ठेकेदार लोगों को भड़काते हैं। किसी धर्म विशेष के विरुद्ध अपने समुदाय को हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं। मानवता और मानव की पीड़ा को समझने वाली, समाधान देने वाली भावनाएं कहां खो गई हैं अपने देश और समाज में?