किस करवट बैठेगा प्रवासी मतदाताओं का ऊंट
बिहार चुनाव में प्रवासी मतदाताओं का असर महत्वपूर्ण हो सकता है। उनकी सोच पारंपरिक समाज से भिन्न है, जिससे इस बार चुनाव परिणाम पर उनका प्रभाव निर्णायक साबित हो सकता है।
सूर्य पूजा के लोक पर्व छठ के दौरान, जब बिहार के प्रवासी अपने घर लौट रहे हैं, तब राज्य की धरती इन दिनों गुंजायमान है। चुनावी माहौल में प्रवासियों के लौटने से राजनीतिक दलों की धड़कनें तेज हो गई हैं। जाति और धर्म के खांचों में बंटे बिहारी समाज में अब एक नया खांचा उभरकर सामने आ रहा है—वह खांचा है प्रवासियों का। प्रवासी की अपनी जाति, धर्म और सामाजिक पहचान होती है, लेकिन बाहरी दुनिया में रहने वाले इन लोगों की सोच और दृष्टिकोण उनके घर-परिवार और पारंपरिक समाज से कुछ अलग हो सकती है। इसी कारण माना जा रहा है कि इस बार प्रवासियों का वोटिंग पैटर्न पारंपरिक सामाजिक और पारिवारिक सोच से इतर हो सकता है। यदि ऐसा होता है, तो इस बार बिहार की नई सरकार की किस्मत में प्रवासी वोटरों की भूमिका महत्वपूर्ण और निर्णायक होगी।
पिछले साल रेलवे के अनुसार, छठ पर्व के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड से 6.5 करोड़ लोग रेल यात्रा पर थे, जिनमें अधिकांश बिहार के लोग थे। अब बिहार जाने के लिए रेल ही नहीं, सड़क, बस और निजी वाहनों से यात्रा करने वालों की भी अच्छी-खासी संख्या है। इस साल बारह हजार विशेष रेल गाड़ियां चलाई गई हैं। निष्कर्ष है कि इस बार छठ पर्व के दौरान रेल यात्रा करने वालों की संख्या पिछले साल से पौने दो गुना अधिक हो सकती है।
सवाल यह है कि क्या ये लोग केवल पर्व मनाने ही घर लौट रहे हैं, या उनका उद्देश्य बिहार विधानसभा चुनावों में अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना भी है? जबकि छठ पर्व के तुरंत बाद केवल वे प्रवासी काम पर लौटते हैं, जिनका रोजगार संगठित क्षेत्र में होता है, अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र से हैं और वे परिवार के खेतों में मदद के लिए रुक जाते हैं। ये लोग धान की कटाई और रबी की बुवाई के बाद ही काम पर लौटते हैं। इनमें से अधिकांश वोटर भी हैं, यानी इस बार ये प्रवासी मतदाता बिहार विधानसभा चुनाव में भी अपनी भूमिका निभाएंगे।
बिहार के प्रवासी मतदाताओं की इस ताकत को सभी राजनीतिक दल जानते हैं। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा की चुनावी मशीनरी हर चुनाव को रण की तरह लेती है। दिल्ली, मुंबई, सूरत, लुधियाना जैसे शहरों में बिहार चुनाव को देखते हुए प्रवासियों के साथ अरसे से संवाद कर रही है। बीजेपी शासित राज्यों में छठ घाटों के निर्माण, छठ पर्व में सरकारी भागीदारी और सहयोग भी इसी रणनीति का एक हिस्सा है।
सत्ता का दावेदार माना जा रहा राष्ट्रीय जनता दल भी सक्रिय रहा है। हालांकि उसकी कोशिशें बीजेपी जितनी नहीं रही हैं। हाल के दिनों में उसने भी विशेषकर पिछड़े वर्ग के पढ़े-लिखे कुछ युवाओं को जोड़कर उनके जरिए प्रवासियों को साधने की कोशिश की है। प्रवासियों को सत्ताधारी जनता दल यू भी साधने की कोशिश करता रहा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने ऐसे प्रयास जरूर किए हैं।
बिहार की राजनीति में प्रशांत किशोर भी सक्रिय हैं। उनकी ओर से सीधा और प्रत्यक्ष संवाद कम, लेकिन सोशल मीडिया और मीडिया पर उनकी लगातार उपस्थिति ने प्रवासियों को प्रभावित जरूर किया है। विशेषकर पढ़े-लिखे प्रवासियों और बाहर निकले बिहारी छात्रों में उनकी अपील ज्यादा है। इस लिहाज से देखें तो प्रवासी बिहारी मतदाताओं को लेकर सबसे ज्यादा जंग बीजेपी और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी में ही होने की संभावना है। प्रवासी वोटरों का बड़ा हिस्सा प्रशांत किशोर को राजनीतिक रूप से खड़ा करने में मददगार हो सकता है।
ध्यान देने की बात यह है कि साल 2020 के विधानसभा चुनावों में करीब बीस प्रतिशत सीटों पर जीत और हार का अंतर महज ढाई फीसद तक ही था। इन आंकड़ों के संदर्भ में प्रवासियों के मत को देखा-परखा जाना चाहिए। इसके साथ ही गांव, मोहल्ले और कस्बे के प्रवासियों में एक बात रेखांकित की जा सकती है। बाहर रहने, वहां के समाज को देखने और पढ़ाई-लिखाई के चलते वे कई मुद्दों पर अपने घर, परिवार, मोहल्ले और जातीय समुदाय से अलग ढंग की सोच रखते हैं। कई बार एक इलाके के प्रवासी अपनी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद अन्य प्रवासियों जैसा विचार रखते हैं। इस लिहाज से अपने ही गांव-समाज में अलग तरह के दबाव समूह के रूप में भी काम कर रहे होते हैं। बिहार के मौजूदा चुनाव अभियान में इस सोच का भी असर पड़ना तय है।
शायद यही वजह है कि छठ घाटों पर राजनीतिक दलों, उनके कार्यकर्ताओं और उनके स्थानीय पदाधिकारियों का जमावड़ा है। छठ के बहाने वे प्रवासियों के साथ ही स्थानीय मतदाताओं से भी संपर्क साधेंगे और उनके जरिए अपने दल और नेता को समर्थन दिलाने की कोशिश करेंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
