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रुपया गिरे तो क्या, डिजिटल नोट उछलेगा

तिरछी नज़र
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लोग तो मज़ाक में कहते हैं कि सरकार को पहले से पता था कि रुपया गिरेगा, तभी डिजिटल करेंसी लॉन्च कर दी—‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

जिसे गिरना होता है वह गिर जाता है—चाहे वह इंसान हो या रुपया। फर्क इतना है कि इंसान गिरे तो दो लोग उठाकर खड़ा कर देते हैं, और रुपया गिरे तो पूरा देश बहस में पड़ जाता है कि यह क्यों गिरा, कैसे गिरा, और आगे कितना और गिरेगा। इंसान चुपचाप गिरता है, पर रुपये के गिरने पर शोर ऐसा मचता है, मानो किसी बड़ी दुर्घटना की लाइव रिपोर्टिंग चल रही हो। शायद इसलिए कि इंसान के गिरने से सिर्फ इंसान दुखी होता है, पर रुपये के गिरने से पूरा देश आह भरता है।

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रुपया इन दिनों ऐसे फिसल रहा है जैसे किसी ने अर्थव्यवस्था के दरवाज़े पर केले का छिलका बिछाकर कह दिया हो—‘जा बेटा, दौड़!’ टीवी एंकर चिल्ला-चिल्लाकर बताते हैं—‘रुपया रिकॉर्ड तोड़ गिरावट में है!’ सुनकर लगता है—रिकॉर्ड टूट रहा है या देश की उम्मीदें? ऐसी स्थायी गिरावट की क्षमता किसी मुद्रा में नहीं, सिर्फ हमारे रुपये में ही है—जैसे यह उसका नैसर्गिक गुण हो।

रुपये की गिरावट का असली दर्द वही जानता है, जिसकी जेब में रखा सिकुड़ता नोट रोज़ घर लौटते समय हल्की-सी सिसकी भरता है। सरकार से इस दर्द का कारण पूछो तो वह बड़ी आत्मीयता से कहती है—‘अंतरराष्ट्रीय कारण हैं।’ जनता कहती है—‘ठीक है, पर नोट तो हमारे ही गिर रहे हैं!’ लोग तो मज़ाक में कहते हैं कि सरकार को पहले से पता था कि रुपया गिरेगा, तभी डिजिटल करेंसी लॉन्च कर दी—‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

अब हाल यह है कि दुकानों पर नोट को ऐसे देखा जाता है जैसे वह किसी इतिहास संग्रहालय से भागकर आया हो—‘अरे, तुम अभी भी चल रहे हो?’ कैशियर नोट को घुमाकर, तिरछी नज़र से देखकर ही मानता है—वह भी आधे भरोसे के साथ। दूसरी तरफ सरकार हर बार की तरह इस बार भी चिंतित तो है, पर बयान में मुस्कराहट नहीं भूलती—‘हम पांचवीं अर्थव्यवस्था हैं, रुपया उठ जाएगा।’ जनता सोचती है— ‘सरकार की उम्मीदें और रुपये की हालत—दोनों का कोई तालमेल नहीं।’

अर्थशास्त्री कहते हैं—‘रुपया कमजोर हो गया है।’ जनता पूछती है—‘क्या यह कभी बॉडीबिल्डर था?’ डिजिटल भुगतान के समर्थक सलाह देते हैं— ‘मोबाइल से भुगतान कीजिए, देश आगे बढ़ेगा।’ पर कैसे समझाएं कि मोबाइल में पैसा रखना सुविधा नहीं, मजबूरी बन चुका है।

इसके बावजूद उम्मीद अभी भी ज़िंदा है। शायद किसी दिन रुपया सोचे— ‘आज नहीं गिरना।’ और थोड़ा संभल जाए। तब तक हम गिरावट को भी उसी सहजता से देखेंगे जैसी बाकी समस्याओं को—हास्य के साथ, धैर्य के साथ, और अंत में एक सरकारी मुस्कान के साथ—‘आप मुस्कराइए… आप विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था में हैं।’

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