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अपनी निजी दुनिया के भी मालिक नहीं हैं हम

द ग्रेट गेम
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समलैंगिक जोड़ों को विवाह की अनुमति देने से इनकार का हालिया मामला निजी पसंद पर नियंत्रण के विचार की ही स्थापना कहा जा सकता है। समीक्षा याचिका खारिज कर प्रभावी रूप से लाखों समलैंगिक जोड़ों को बताया जा रहा था कि वह बेहतर जानता है। हालांकि कानून और अदालतों को वयस्कों द्वारा आपसी सहमति से जुड़े मामलों में दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिये।

ज्योति मल्होत्रा

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शुक्रवार को द ट्रिब्यून में दो खबरें छपीं, एक थी पंजाब में बिगड़ते लिंगानुपात पर और दूसरी देश में कहीं भी समलैंगिक जोड़ों को विवाह करने की अनुमति देने से सुप्रीम कोर्ट के इनकार को लेकर, प्रथम दृष्टतया ये दोनों एक-दूसरे से अलग और असंबद्ध लग सकती हैं। लेकिन प्रिय पाठक जरा गौर से बांचें। दोनों को जोड़ने वाली एक चीज़ कॉमन है - एक ऐसी चीज़ जो किसी की निजी पसंद के विचार का विरोध करती है। आप क्या पहनेंगे, किसके साथ बाहर जाएंगे, किसे वोट देंगे, क्या खाए-पीएंगे, किससे-कैसे-कब और क्यों शादी करनी है, जिससे आप शादी करना चाहते हैं वह कौन हो... शायद इस किस्म की रोकों की शुरुआत तब से होने लगती है, कि क्या आप अपनी कन्या के भ्रूण को गर्भावस्था काल पूरा करने और एक पूर्ण विकसित शिशु बनने की अनुमति देते हैं।

सच तो यह है कि द ट्रिब्यून में छपी ये दोनों खबरें नियंत्रण बनाने के विचार से जुड़ी हुई हैं। किसी को यह पसंद नहीं है कि आप एक कन्या हैं, इसलिए आपसे छुटकारा पाना चाहता है। किसी और को यह पसंद नहीं है कि आप समान लिंग के किसी व्यक्ति से विवाह कर रहे हैं, भले ही आप उस व्यक्ति से प्यार करते हों, क्योंकि यह ‘पवित्र विवाह’ के प्रचलित विचार के विरुद्ध है। विवाह एक सामाजिक अनुबंध मात्र है और उसे उन छवियों के आधार पर भंग करना गवारा नहीं, जो मुझे मंजूर नहीं। मुझे नियंत्रण रखना चाहिए। मैं ही न्यायाधीश, मैं ही ज्यूरी और सजा को अमल में लाने वाला भी, और मैं आपसे बेहतर जानता हूं।

अजीब बात यह है कि यह कोई और नहीं बल्कि इस संविधान का रक्षक सर्वोच्च न्यायालय है - जिसकी 75वीं वर्षगांठ हमने कुछ सप्ताह पहले ही बहुत जोर-शोर से मनाई थी – वह इस मामले में आगे होकर मुख्य भूमिका निभा रहा है। इसलिए, जब न्यायालय ने बीते गुरुवार को समलैंगिक जोड़ों को विवाह की अनुमति से इनकार करने वाले 2023 के एक फैसले को चुनौती देने वाली एक समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया - जिसे कई ने संविधान के तहत उनके मौलिक अधिकारों के हनन के रूप में चुनौती दी थी – तो यह प्रभावी रूप से लाखों समलैंगिक जोड़ों को जता रहा था कि वह बेहतर जानता है। अब, आइए इस बारे में एक पल विचार करें। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली पीठ- जिनमें से एक हमारे ही पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के एक काबिल बेटे, जस्टिस सूर्यकांत हैं - ने मूल रूप से घोषणा कर दी कि आप किससे शादी कर सकते हैं और किससे नहीं, इस बारे में यह अदालत फैसला करेगी। यह ठीक है कि आप भले ही अपने बेडरूम के बंद दरवाजों के पीछे जो चाहें करें,लेकिन सार्वजनिक तौर पर आपको कुछ सामाजिक नियमों का पालन करना होगा। यहां पर यह हम बेबस लोगों के लिए एक संदेश है – साधारण लोगों में वो, जिन्हें समान लैंगिक वर्ग के इंसान से प्यार है और उनके साथ जीवन बिताना चाहते हैं और गोद लेकर अथवा सरोगेसी के जरिये अपने बच्चे पैदा करना चाहते हैं,संयुक्त जीवन बीमा पॉलिसी लेते हैं और साथ में छुट्टियां मनाने जाते हैं और स्कूल के आवेदन पत्रों पर गर्व से लिखते हैं कि हम दोनों इस बच्चे के माता-पिता हैं। उनके लिए संदेश यह है ः ‘वे अपनी निजी दुनिया के मालिक नहीं हैं’। यह कि समलैंगिक और विषमलैंगिक जोड़ों के बीच 'लक्ष्मण रेखा' पूरी तरह स्थापित है और मजबूती से है, और यदि हम इसे पार करने की हिमाकत करते हैं, तो हमें इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। बिना शक, माननीय पीठ ने खुद पर भेदभाव करने के प्रत्याशित आरोप से बचने को कहा ः विवाह का ‘मनमाफिक अधिकार नहीं है’। हालांकि किसी विषमलैंगिक जोड़े को यह समझाने की कोशिश करें(न तो यह लेख वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने से न्यायालय के लगातार इनकारों की तरफ इशारा कर रहा है या न ही इस बिंदु पर कि कोई अविवाहित महिला सरोगेट मातृत्व के जरिए बच्चे को जन्म क्यूं नहीं दिलवा सकती - अन्य विवादास्पद मामलों को न भी छेड़ें तो)।

तो बात यह है। साल 2018 में, एक साहसी और निडर निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को खारिज कर दिया था, ऐसा करते हुए हमारे इतिहास की किताबों में उस धारा को जड़ से हटा दिया, जिसमें 1861 के युग के कानून के तहत दो समलैंगिकों के बीच यौन संबंध बनाने को अपराध घोषित कर रखा था। सर्वोच्च न्यायालय का इस पर आया फैसला बिल्कुल सही काम था और देश ने न्यायालय की श्लाघा की, क्योंकि यह समान अधिकारों के पक्ष में एक कदम था। यह संविधान की भावना के पक्ष में था। वर्तमान याचिकाएं धारा 377 को न्यायालय द्वारा खारिज किए जाने के बाद अगला स्वाभाविक कदम थीं। यह कि समलैंगिक जोड़ों की मांग थी कि अब जब आपने हमें कोठरी से बाहर आने दिया है, तो हमें भी आपके जैसा बनने दें।

अब सीधे आते हैं, बीते गुरुवार पर, जिस दिन समलैंगिक शादी की अनुमति से इनकार करके, माननीय न्यायालय सीधा यह कहना चाह रहा है कि दो समलैंगिक वयस्कों के बीच ऐसे रिश्ते को औपचारिक रूप देना बिल्कुल भी ठीक नहीं है। बेशक, सवाल यह उठेगा कि क्यों। क्योंकर पांच या वास्तव में आठ जज - अगर आप 2023 के फैसले में शामिल उन जजों को भी गिन लें, जिसमें एक पीठ के तीन न्यायाधीशों का झुकाव समलैंगिक विवाह को जीवन-बंधन की सीमा से बाहर रखने के पक्ष में था - को ऐसा क्यों लग रहा है कि प्रेम और विवाह के बारे में वे उन लोगों से ज़्यादा जानते हैं जो वास्तव में इसे जी रहे हैं? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वे बेहतर जानते हैं? क्या वे वाकई बेहतर जानते हैं?

दरअसल, नियंत्रण बनाने का यह प्रयास आरंभ से ही शुरू हो जाता है, ठीक उस समय से, जब आप एक भ्रूण होते हैं, यहां तक कि एक बच्चा बनने से भी पहले से, एक महिला/पुरुष की तो बात ही छोड़िए। साल 1994 में, भारत ने ‘गर्भाधान पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम’ नामक एक कानून पारित किया था, जिसमें अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में चिकित्सकीय पहचान करने पर रोक लगा दी गई थी। दीपकमल कोचर द्वारा द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक लेख में, पंजाब भर के नागरिक पंजीकरण डाटा का हवाला देते हुए बताया गया है कि 2023 में पंजाब के कुछ हिस्सों में लिंगानुपात वास्तव में काफी बिगड़ गया है – सबसे खराब स्थिति पठानकोट और गुरदासपुर में है, वहां 1,000 लड़कों की तुलना में क्रमशः केवल 864 और 888 लड़कियां पैदा हुईं - क्योंकि कानून की अवहेलना करते हुए कन्या भ्रूण हत्या, तमाम तरह के अवैध गर्भपात अभी भी जारी हैं।

शायद न्यायालय आदर्श दंपति की तस्वीर पेश करने का प्रयास कर रहा है - दो बच्चों के साथ 'हम दो, हमारे दो' वाले आदर्श पति-पत्नी। शायद यह सोच अवचेतन रूप से उस संस्कारी आदर्श का अनुकरण करने से बनी है, जिसे दक्षिणपंथी बढ़ावा देते हैं, जिसमें परिवार का मुखिया पुरुष है और उसका साथ देने वाली महिला रूपी मां जो बच्चों को सुरक्षा एवं देखभाल प्रदान करे। शायद यह सच में मान बैठी है कि ऐसे मामलों से उसका सरोकार नहीं जिनके बारे में संसद या राज्य विधानसभाओं को ही बेहतर जानना चाहिये।

शायद सर्वोच्च न्यायालय को यह अहसास नहीं है कि यह ‘एक राष्ट्र, एक खुशहाल परिवार’ का यह निर्माण ठीक वही है - एक मानव निर्मित अवधारणा, जो वास्तविकता से कोसों दूर है। हमारे देश की भीड़भाड़ वाली अदालतों पर एक नज़र डालें, जहां समाज के हर तबके के लोग न्याय पाने की दुहाई डाल रहे हैं या नेटफ्लिक्स पर मिर्जापुर जैसे धारावाहिकों के ज़रिये जीवन के पहलू पर एक नज़र डालें – या फिर अन्ना करेनिना के पहले अध्याय अथवा महाभारत धारावाहिक पर- ये आपको समाज की ऊपरी सतह के नीचे व्याप्त निरंतर अराजकता का कुछ अंदाज़ा लगाने के लिए काफी है। यही इस लेख का उद्देश्य है। देश के कानून और अदालतों की उन मामलों में दखलअंदाजी करना जरूरी है जहां अधिकारों का हनन हो रहा हो। वयस्कों द्वारा आपसी सहमति से बनाई दुनिया में दखल देने का उनका कोई काम नहीं, चाहे वे किसी भी रंग, लिंग या आकार के हों।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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