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देशों की सीमाओं से अलग राह बनाकर बहता पानी

द ग्रेट गेम
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दशकों सिंधु जल संधि कायम रही, क्योंकि इसमें पंजाब की नदियों का जल बरतने के नियम थे। पहलगाम नरसंहार के बाद भारत ने संधि स्थगित कर चिनाब से पाकिस्तान को पानी बंद कर दिया। अब ज्यादा बारिश से बांधों का जलस्तर इतना बढ़ा कि नदियों में पानी छोड़ा गया। पंजाब बाढ़ग्रस्त हो गया व सीमा पार क्षेत्र भी।

एक कवि के शब्द है : ‘पानी, हर तरफ पानी।’ सुल्तानपुर लोधी के मंड इलाके की हालत देखते ही यह पंक्ति आपके दिमाग में वाकई गूंजने लगती है, जहां ब्यास नदी ने अपने किनारों को तोड़कर धान की फसल को पानी में डुबो दिया है। यह कहानी दो फ़सल चक्र वाली खेती के आधे हिस्से के नुकसान और तबाही की है, ‘द ट्रिब्यून’ इस पर भी नज़र रखे हुए है।

पिछले कुछ हफ़्तों में पंजाब की नदियों का जलस्तर बढ़ते देखना इतिहास और भूगोल दोनों के लिए एक सबक रहा है। हम जानते हैं कि 'पंजाब' शब्द फ़ारसी के शब्दों, पंज और आब के संगम से बना है, जिसका अर्थ है ‘पांच पानियों की भूमि’। इसका श्रेय टैंजियर्स से आए यात्री इब्न बतूता को दिया जाता है, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने 14वीं शताब्दी में इस क्षेत्र का भ्रमण किया था। लेकिन विडंबना है कि बतूता से पहले, पंजाब को पंचनद के नाम से जाना जाता था, जो संस्कृत का एक शब्द है। जिसका अर्थ है ‘पांच नदियों की भूमि’ - यह शब्द महाभारत के समय से चला आ रहा है और आज भी पाकिस्तान में उस नदी का नाम है जिसमें अविभाजित पंजाब की सभी पांचों नदियां - झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी-अरब सागर में समाने से पहले, मिलकर एक विशाल नदी का रूप धर लेती हैं।

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गौर कीजिए कि प्रकृति को किस कदर मानव-निर्मित क्षुद्र विभाजनों से घृणा है, चाहे वह 1947 के दौरान या उसके बाद हाल ही में अप्रैल 2025 में, जब पहलगाम नरसंहार की भयावहता के बाद, गुस्साए भारत ने 1960 में हुई सिंधु जल संधि को स्थगित कर दिया। दो युद्धों और एक सीमित संघर्ष के बावजूद, यह संधि कायम रही, क्योंकि इसमें पंजाब की नदियों का जल बरतने संबंधी नियम थे।

ऑपरेशन सिंदूर की पूर्व संध्या पर, भारत ने जम्मू में चिनाब नदी पर बने बगलिहार बांध के निकास द्वार बंद कर दिए और घोषणा की कि पहलगाम के प्रतिशोध में पाकिस्तान कोे ‘पानी की एक बूंद तक’ नहीं देंगे। कई दशकों में पहली बार, जम्मू में चिनाब की तलहटी सूखी दिखी। पाकिस्तानी अधिकारियों ने अपनी फसलों और आबादी के लिए सबसे बुरे डर को लेकर घबराहट भरी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

तीन माह बाद, भू-राजनीति का स्वरूप बदलने की बारी भूगोल की आई। जब हिमाचल प्रदेश और पंजाब में दशकों में सबसे ज्यादा बारिश के साथ, भाखड़ा, रणजीत सागर और पौंग बांधों के जलाशयों का जलस्तर ऐन ऊपरी किनारे तक जा पहुंचा, जिससे अधिकारियों को बांधों को सुरक्षित रखने के लिए पंजाब की तीन पूर्वी नदियों में पानी छोड़ना पड़ा। लेकिन अब सीमा के दोनों ओर सवाल उठ रहे हैं- मसलन, क्या अधिकारियों को इन उत्तर भारतीय बांधों से पानी छोड़ना नहीं चाहिए था, जिससे सीमा के दोनों ओर बाढ़ आ गई?

अजनाला, कपूरथला, सुल्तानपुर लोधी, फिरोजपुर, करतारपुर साहिब। पंजाब के जिन कस्बों की सूची जो इन दिनों तैरती हुई लगती है, उस पर ‘भीगता पंजाब’ जैसे मीम्स बन रहे हैं। फिरोजपुर इलाके में बाढ़ इतनी भारी है कि इसने रेडक्लिफ रेखा पर बने निशानदेही चिह्न मिटा दिये हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा बाड़ के कुछ हिस्से जलमग्न हैं। मानो भूगोल इतिहास से अपना बदला ले रहा हो।

इस बीच, गुस्से की जगह सामान्य समझदारी ने ली है। भारत ने भले ही सिंधु जल संधि को निलंबित कर रखा है, लेकिन वह इस्लामाबाद स्थित अपने उच्चायोग के ज़रिये पाकिस्तान को छोड़े गए पानी के आंकड़े मुहैया करवा रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत एक ऊपरी रिपेरियन देश होने के नाते अपनी ज़िम्मेदारी समझता है।

जो भी है, जम्मू-कश्मीर में चिनाब और झेलम में इतना पानी बहता है, खासकर मानसून में, सालाना 136.2 मिलियन एकड़ फीट तक, जिससे कि रन-ऑफ-द-रिवर बगलिहार और किशनगंगा बांधों के पास और कोई विकल्प नहीं है सिवाय पानी को पाकिस्तान में बहने देने के। यही कारण है कि सिंधु नदी संधि को निलंबित या स्थगित रखने का जमीनी स्तर पर कोई खास मतलब नहीं - पानी, अपनी प्रकृति अनुसार पहाड़ों से समुद्र की ओर बहेगा। हिमालय से अरब सागर की ओर। पानी के लिए नक्शे, संधियां और समझौते मायने नहीं रखते। यह अपना रास्ता निकाल ही लेता है।

हालांकि, बांध जल संचयन, अधिकारों और जिम्मेदारियों को लेकर बने सवालों ने खुद को बृहद परिदृश्य में शामिल कर लिया है। उधमपुर के सांसद और प्रभावशाली कनिष्ठ केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने भारत द्वारा पश्चिमी नदियों (चिनाब, झेलम) पर अपने बांधों से गाद न निकाल पाने के पीछे सिंधु जल संधि को दोषी ठहराया है। लेकिन जब सिंधु जल संधि को ध्यान से पढ़ें – तो यह संधि केवल मानसून के दौरान ही गाद निकालने पर रोक लगाती है; भारत शेष अन्य समय में कभी भी गाद निकालने के लिए स्वतंत्र है। इसके अलावा, सिंधु जल संधि पूर्वी नदियों (सतलुज, रावी और ब्यास) पर बने बांधों की गाद निकालने के बारे में खामोश है, और जैसा कि मेरे सहयोगी ललित मोहन ने रोपड़ से द ट्रिब्यून के समाचार पृष्ठ पर बताया है, दशकों से गाद जमा होने के कारण भाखड़ा नंगल बांध की जल संचयन क्षमता 19 प्रतिशत कम हो गई है। वास्तव में, बड़ी खबर यह है कि 1963 में बनने के बाद से भाखड़ा बांध की गाद कभी निकाली ही नहीं गई। और अगर यह बात सतलुज नदी पर बने भाखड़ा नंगल के बारे में सच है, तो क्या यह क्रमशः ब्यास और रावी नदियों पर बने पौंग और रणजीत सागर बांधों के बारे में भी सच है? और यदि यह तीनों के लिए सच है, तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि बांध अधिकारियों को इस मानसून में बांधों से इसलिए पानी छोड़ना पड़ा –जिसकी वजह से पंजाब में बाढ़ आई –क्योंकि वे बांधों की संरचना को इस वजह से बने खतरे को लेकर भी चिंतित थे?

आइए, एक निषिद्ध प्रश्न पूछें : अगर इन बांधों से इन तमाम वर्षों में निरंतर गाद निकाली जाती, तो क्या वे ज़्यादा पानी संगृहीत रख पाते, खासकर इस बार के मानसून जैसी असाधारण बारिश के समय? यानी, तब क्या पंजाब के असाधारण रूप से जुझारू ग्रामीण खतरे से सुरक्षित रहते? शायद अब समय आ गया है कि प्रकृति के साथ कोमलता से पेश आने के लिए, लोक हितों को आगे और केंद्र में और राजनीति से इतर रखा जाए। राजवंशों और साम्राज्यों का उत्थान-पतन हो या आकार बदलते नक्शे - प्रकृति अपने नियमों का पालन करती है। आइए, हम उनका सम्मान करें।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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