विवेक का इस्तेमाल कर अपना प्रतिनिधि चुने मतदाता
नेताओं पर लगे आरोपों की जांच का काम अदालत का है, पर ऐसे नेताओं को समर्थन न देने का दायित्व और अधिकार मतदाता के पास ही है। इस अधिकार का ईमानदार उपयोग होना ही चाहिए। यह दायित्व भी मतदाता का...
नेताओं पर लगे आरोपों की जांच का काम अदालत का है, पर ऐसे नेताओं को समर्थन न देने का दायित्व और अधिकार मतदाता के पास ही है। इस अधिकार का ईमानदार उपयोग होना ही चाहिए। यह दायित्व भी मतदाता का ही बनता है कि वह अपने विवेक की छलनी का उपयोग करके आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को राजनीति से बाहर रखे।
अपराध अपराध ही होता है चाहे छोटा हो या बड़ा, लेकिन राजनीति की दुनिया में अपराध को अपराध ही नहीं माना जाता। जब भी किसी राजनेता पर कोई आरोप लगता है तो उसे राजनीति से प्रेरित बता दिया जाता है। बात यहीं नहीं रुकती। आरोप प्रमाणित हो जाने के बाद भी राजनेता अक्सर यही कहते रहते हैं कि उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया जा रहा है। आज लालू-परिवार यही दुहरा रहा है। दिल्ली की एक अदालत में लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी राबड़ी देवी और पुत्र तेजस्वी के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को सुनवाई के लायक घोषित कर दिया है। अब इस संदर्भ में मुकदमा चलेगा, कानूनी दांव-पेंच काम में लिए जाएंगे। कानूनी लड़ाई की एक लंबी चलने वाली एक और कहानी की शुरुआत है यह। लालू परिवार अपराधी है या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा, पर आज जो सवाल पूछा जा रहा है वह यह है कि अदालत का यह निर्णय आज ही क्यों आया?
वैसे तो इसका उत्तर बहुत आसान है। मामला अदालत के विचाराधीन था, आज अदालत ने अपना निर्णय दे दिया। और यह सही भी है। पर अदालत के इस निर्णय के समय को लेकर बातें हो रही हैं। ऐसा नहीं है कि इस निर्णय का अर्थ लालू-परिवार को अपराधी मान लिया जाना होगा। यह तो आने वाला कल ही तय करेगा कि आरोप सही हैं या गलत, लेकिन इस हकीकत को तो स्वीकारना ही होगा कि हमारी राजनीति और अपराध में जब-तब एक रिश्ता दिखने लग जाता है। राजनीति से जुड़े आपराधिक मुकदमे लंबे चलते हैं, उतनी ही लंबी कहानी राजनीति और अपराध के रिश्तों की भी है। ये रिश्ते कभी प्रमाणित होते हैं, कभी नहीं होते। पर राजनीति और अपराध के रिश्तों से इंकार नहीं किया जा सकता।
कुछ ही अर्सा हुआ जब चुनाव-अधिकार संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि देश के तीस मुख्यमंत्रियों में से चालीस प्रतिशत ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले चलने की बात स्वीकारी है! यह सही है कि आपराधिक मामला होने का मतलब किसी का अपराधी होना नहीं होता, किसी को अपराधी घोषित करने के लिए उसका अपराध प्रमाणित होना चाहिए। पर गलत यह भी नहीं है कि सारे आरोपों को राजनीतिक कारणों से होने की बात को सहज ही नहीं स्वीकार किया जा सकता। चालीस प्रतिशत मुख्यमंत्रियों द्वारा आपराधिक मामले घोषित करना एक गंभीर बात है। ये सारे मामले छोटे-मोटे अपराधों वाले भी नहीं हैं। सब तरह के आरोप लगते हैं हमारे नेताओं पर, इनमें से लगभग आधे तो फौजदारी मुकदमे हैं। इसका मतलब है इन पर जो आरोप लगे हैं उनमें हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसे गंभीर आरोप भी हैं।
सवाल सिर्फ मुख्यमंत्रियों तक ही सीमित नहीं है। गली-मोहल्ले के छुटभैये नेताओं से लेकर देश के सर्वोच्च पद पर बैठे नेता तक पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। यह हकीकत अपने आप में बहुत कुछ कह रही है कि आज लोकसभा के 543 सांसदों में से 251 पर, यानी आधे नेताओं पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से पच्चीस से अधिक को दोषी करार दिया जा चुका है!
अपराध और राजनीति से जुड़े आंकड़े और भी बहुत कुछ कह रहे हैं। हरियाणा में दस सांसद हैं, इन पर दागदार सवाल हैं। छत्तीसगढ़ में भी यही हाल है। केरल में बीस में से उन्नीस सांसद आरोपों के घेरे में हैं। तमिलनाडु में 39 में से 36 सांसद आरोपी हैं। इसी तरह उड़ीसा में 21 में से 16, तेलंगाना में 17 में से 14, मध्य प्रदेश में 29 में से 9 सांसदों ने अपने घोषणापत्रों में यह स्वीकारा है कि उनके खिलाफ आरोपों के मामले चल रहे हैं। बात संसद तक ही सीमित नहीं है, विधानसभाओं, पंचायत, नगरपालिकाओं आदि सब जगह पर राजनेताओं के चेहरों पर भ्रष्टाचार की कालिख दिखाई देती है। ऐसा भी नहीं है कि किसी एक राजनीतिक दल के सदस्यों पर ही अपराध से जुड़े होने के आरोप लगते हैं। शायद ही कोई दल बचा होगा जो ईमानदारी से अपनी चादर के उजले होने का दावा कर सके। प्राप्त जानकारी के अनुसार 18वीं लोकसभा में भाजपा के 240 में से 94 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, कांग्रेस के 99 में से 49 पर, समाजवादी पार्टी के 37 में से 21 पर, तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 13, द्रमुक के 22 में से 13, शिवसेना के सात में से पांच सांसद आरोपों के घेरे में हैं।
आंकड़े और भी बहुत से हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि हमारे राजनेताओं को इन आरोपों से कुछ फर्क नहीं पड़ता। लॉन्ड्री से धुले, कलफ लगे कपड़े पहनकर वे स्वयं को उजला राजनेता घोषित करते-फिरते हैं। एक बार मैंने महाराष्ट्र के एक विधायक से यह पूछा था कि वह दिन में कितनी बार कपड़े बदलते हैं तो उन्होंने खिसयानी हंसी हंसते हुए बताया था—चार-पांच बार तो बदलने ही पड़ते हैं। फिर मेरे पूछने पर यह भी बताया था कि इन कपड़ों की धुलाई पर पांच सौ रुपए तो खर्च ही हो जाते हैं। और मैं सोच रहा था, यह है देश के एक नेता का हाल जिसमें अस्सी करोड़ नागरिक दो समय की रोटी के लिए सरकार द्वारा बांटे जाने वाले पांच किलो अनाज पर निर्भर करते हैं! फिर जब इन उजले कपड़ों वाले राजनेताओं पर आरोपों की कालिख लगती है तो उनसे ज़्यादा स्वयं को अपने पर शर्म आती है कि हम किन और कैसे नेताओं को चुनकर अपना भाग्य उनके हाथों में सौंप देते हैं।
आज जब कोई लालू-परिवार या कोई भी राजनेता, अपराध के आरोपों से घिरा दिखता है तो यह सवाल अनायास होता है कि आखिर इन नेताओं को प्रश्रय कौन दे रहा है? राजनीतिक दलों की यह कैसी मजबूरी है कि उन्हें दागी नेताओं को अपना उम्मीदवार चुनना पड़ता है और मतदाता की क्या मजबूरी है कि वे आरोपी-अपराधी नेताओं को अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजते हैं?
मतदाता की विवशता वाला सवाल उठाना आज ज़्यादा ज़रूरी है। होगी कोई विवशता राजनीतिक दलों की भ्रष्ट व्यक्तियों को अपना उम्मीदवार बनाने की, पर क्या ज़रूरी है कि मैं किसी भ्रष्ट राजनेता को अपना वोट दूं? सन 1952 में देश में पहले चुनाव हुए थे। तब से लेकर आज तक लगभग तीन-चौथाई सदी में अपराध और राजनीति के नापाक रिश्ते लगातार उजागर हो रहे हैं। इन रिश्तों पर मतदाता की नज़र क्यों नहीं अटकती? अटकनी चाहिए। नेताओं पर लगे आरोपों की जांच का काम अदालत का है, पर ऐसे नेताओं को समर्थन न देने का दायित्व और अधिकार मतदाता के पास ही है। इस अधिकार का ईमानदार उपयोग होना ही चाहिए। यह दायित्व भी मतदाता का ही बनता है कि वह अपने विवेक की छलनी का उपयोग करके आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को राजनीति से बाहर रखे। सिर्फ अदालतों के भरोसे यह काम होने से रहा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।