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तिरस्कार से मतदाता ने दिया विपक्ष को संदेश

द ग्रेट गेम

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जैसा कि बिहार ने दिखाया है और चुनाव दर चुनाव स्पष्ट रहा है, भाजपा की जीत की भूख पर कभी कोई संदेह नहीं रहा। शायद विपक्ष को उस किताब से सीख लेने के बारे में विचार करना चाहिए, जिसे उसका राजनीतिक दुश्मन पिछले कुछ समय से पढ़ रहा है।

बिहार में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की जीत, तेजस्वी यादव के राजद को सजा और कांग्रेस पार्टी का सफाया निश्चित तौर पर तय था। एक और बात स्पष्ट है। राहुल गांधी को कोलंबिया जाकर बस जाना चाहिए या किसी अन्य दक्षिण अमेरिकी देश में, जहां वे बिहार चुनाव प्रचार के बीच सफेद कुर्ता-पायजामा और काली बंडी जैकेट में फबकर घूमते दिखाई दिए थे। हिंदी में - और पंजाबी में भी- एक शब्द है बिहारी, इसका अभिप्राय उपेक्षित से कुछ अधिक और हेय से कुछ कम लिया जाता है, गत सप्ताह की शुरुआत में कांग्रेस के खिलाफ वोट देते वक्त यह मतदाताओं के मन में जरूर रहा होगा।

तिरस्कार। हिकारत। हमें हल्के में मत लीजिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो हम आपको आपकी जगह दिखा देंगे, एक ऐसी पार्टी को वोट देकर, जिसके बारे में हमने शायद सोचा हो या नहीं भी।

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बिहार में, मतदाता कांग्रेस -यानी राहुल गांधी- के प्रति इतनी गुस्से से भर गए कि उन्होंने इस सबसे पुरानी पार्टी को छह सीटों तक सीमित कर दिया। डेढ़ साल पहले हुए लोकसभा चुनावों के बाद से यह कांग्रेस की लगातार चौथी हार है - हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद। भारतीय राजनीति की त्रासदी यह है कि राहुल को जवाबदेह होने, दक्षिण अमेरिका न जाने या दीवार पर लिखी इबारत को समझना मंजूर नहीं है -यह कि उन्हें पद छोड़ देना चाहिए और खुद अपनी पार्टी में लोकतंत्र की उस हवा को बहने देना चाहिए, जिसके बारे में बात करना उन्हें बहुत पसंद है।

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पंजाब और जम्मू-कश्मीर, दोनों सूबों में लोगों ने कुछ गढ़ हिला दिए हैं - और सत्तारूढ़ आप और नेशनल कॉन्फ्रेंस को स्पष्ट चेतावनी दे दी है। तरनतारन और बडगाम, दोनों जगहों पर मतदाताओं ने कहा है कि हमें हल्के में मत लीजिए। तरनतारन में, जो गर्म राजनीति का केंद्र रहा है, नाराज़ पंजाबी मतदाता ने अपने कुछ संदेश भेजे हैं। पहला,उन्होंने राज्य में विधानसभा चुनावों से 15 महीने पहले सत्तारूढ़ ‘आप’ को चेतावनी संकेत दे दिया है। दूसरा, ‘आप’ उम्मीदवार जीत तो गया, लेकिन अकाली दल के प्रत्याशी ने उसे करारी टक्कर दी है - भले ही इस पर एक राय न हो कि पंजाब की राजनीति में क्या इसे अकाली दल की वापसी माने या नहीं, क्योंकि पार्टी ने 2020 में केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानून लागू करने पर, एनडीए से नाता तोड़ने के बाद से, अपना जादू खो दिया है, 2022 के विधानसभा चुनावों में अकाली दल ने केवल तीन सीटें जीतीं थीं, तो 2024 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ एक सीट पर सिमट गई और तब से गुटबाजी में घिरी हुई है।

तीसरा, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि अकाली उम्मीदवार सुखविंदर कौर ने अलगाववाद परस्त राजनीतिक संगठन ‘वारिस पंजाब दे' (डब्ल्यूपीडी) द्वारा समर्थित उम्मीदवार को पीछे छोड़ दिया – उसका प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहा। सनद रहे, डेढ़ साल पहले ही खालिस्तान समर्थक डब्ल्यूपीडी ने लोकसभा में दो सीटें जीती थीं - एक पर इंदिरा गांधी के हत्यारे का बेटा विजयी रहा, जबकि दूसरी सीट का विजेता विद्रोह के प्रयास के लिए जेल में है। इसलिए अगर तरनतारन अब मध्यमार्ग की लीक पर लौट रहा है, तो अकाली दल निश्चित रूप से दोहरी श्लाघा और पीठ थपथपाने का हकदार है।

चौथा, तरनतारन ने कांग्रेस के साथ घोर अपमानजनक भरा बर्ताव किया है – जिसके ओहदेदारों को यकीन है कि वे उस राजगद्दी के नैसर्गिक हकदार हैं, जब पंजाब के लोग बहुत जल्द ‘आप’ को विदा कर देंगे। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हुई वहीं भाजपा पांचवें स्थान पर रही, इस तसल्ली के साथ कि हमने भी दौड़ में हिस्सा लिया।

फिर एक संदेश बडगाम से आया है, जहां से जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पिछले सितंबर में गांदेरबल निर्वाचन क्षेत्र के साथ जीत हासिल की थी – उन्होंने बडगाम खाली किया था, जिसकी वजह से वहां उपचुनाव करवाया गया। स्पष्टतः सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। अब्दुल्ला को सजा इसलिए मिली है क्योंकि इस केंद्र शासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की लोगों की उम्मीदों को वे पूरा नहीं कर पाए हंै - भले ही यह करना उनके हाथ में न होकर केंद्र सरकार के हाथ में है। अब्दुल्ला को इस तथ्य की कीमत चुकानी पड़ी है कि वास्तव में वह केवल अधूरे मुख्यमंत्री हैं, लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहते हैं।

मतदाताओं द्वारा दिखाया यह निष्ठुर रवैया प्रधानमंत्री मोदी की भाजपा और नीतीश कुमार की जदयू को मिली ज़बरदस्त तालियों के बिल्कुल उलट है। कई विश्लेषकों ने एनडीए की अभूतपूर्व जीत का श्रेय न सिर्फ़ महिलाओं को, बल्कि सभी सब मतदाताओं को बड़े पैमाने पर किए नकद हस्तांतरण को दिया है - जन सुराज पार्टी नेता पवन के वर्मा ने द ट्रिब्यून को बताया कि भाजपा शासित केंद्र ने आचार संहिता लागू होने से कुछ घंटे पहले ही 30,000 करोड़ रुपये लोगों के खाते में डाले, जो एक बेहद गरीब राज्य के लिए एक बहुत बड़ी रकम है। शायद बिहार का मतदाता यह सोचकर डर गया था कि राजद के साथ ‘जंगल राज’ वापस आ जाएगा - निश्चित रूप से, लालू के बेटे में सामाजिक न्याय सुधार के लिए वो आग नहीं है जो लालू यादव में थी, भले ही उनमें और कमियां रही हों। और जहां ये तमाम कारण पूरी तरह से प्रासंगिक हैं, कोई भी पूरी तरह से यह नहीं समझा पा रहा कि बिहार इतनी आसानी से भगवा क्यों हो गया और उसने विपक्ष के साथ इतनी नफरत या उपेक्षा भरा बर्ताव क्यों किया।

आखिरी बात यह है कि विपक्ष ने असली लड़ाई लड़नी ही नहीं चाही। राहुल गांधी बीच संग्राम बिहार छोड़ कर निकल गए (दक्षिण अमेरिका के लिए), तेजस्वी यादव ने जल्दबाज़ी में वह वादे कर दिए जिन्हें वे पूरा कर ही नहीं सकते थे (हर परिवार में एक सरकारी नौकरी) और जन सुराज के प्रशांत किशोर ने गुस्से और अहंकार खुद पर हावी होने दिया (‘अगर नीतीश कुमार को 25 से ज़्यादा सीटें मिलीं तो मैं राजनीति छोड़ दूंगा’), यह बात उनकी सोची-समझी रणनीति के आड़े आ गई। महागठबंधन इसलिए नहीं जीत पाया क्योंकि वह असल में लड़ाई में कभी था ही नहीं।

ऐसे में जब आपके सामने एक तरफ महाशक्ति हो और दूसरी ओर एक कमज़ोर गठबंधन, जिसे खुद पर भी भरोसा नहीं है तब बतौर मतदाता आप क्या करेंगे? गिनाने को भाजपा के साथ भी कई कमियां हैं–तथ्यों में अग्रणी एक यह कि चुनाव को अपनी तरफ़ मोड़ने के लिए केंद्र सरकार के संसाधनों का इस्तेमाल करने में भाजपा ने कोई संकोच नहीं किया, उदाहरणार्थ, महिलाओं को 7,500 करोड़ रुपये का नकद हस्तांतरण।

जैसा कि बिहार ने दिखाया है और चुनाव दर चुनाव स्पष्ट रहा है, भाजपा की जीत की भूख पर कभी कोई संदेह नहीं रहा। शायद विपक्ष को उस किताब से सीख लेने के बारे में विचार करना चाहिए, जिसे उसका राजनीतिक दुश्मन पिछले कुछ समय से पढ़ रहा है।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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