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चुनावी वादों के असर से गफलत में मतदाता

तिरछी नज़र
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पता नहीं, जनता किस मिट्टी की बनी है कि ऐन इलेक्शन के टाइम नेताओं के सारे ऐब-कुवैब भूल जाती है। पेड़ भी कुल्हाड़ी की चोट याद रखता है लेकिन जनता उस कुल्हाड़ी को फिर अपनी डाल काटने दे देती है।

कहते हैं भगवान बरसात की हर बूंद, मिट्टी के हर कण, हर सांस का हिसाब रखता है। कहीं कोई पत्ता भी हिल जाए तो उसकी एंट्री ऊपर की बही में दर्ज होती है। उधर बनिये की बही में भी इतनी सावधानी होती है कि अगर किसी ने एक पैसा उधार लिया तो सालों बाद भी उसकी एंट्री उतनी ही चमकदार रहती है लाल पेंसिल से गोले में बंद। पर एक बही है, जिसमें हिसाब कभी ठीक नहीं बैठता- वो है जनता का बही-खाता। जनता पांच साल तक नेताओं की करतूतों का हिसाब जोड़ती रहती है, अपशब्द कहती हैं, कोसती है, यहां तक कि कसम खा लेती है कि अगली बार कभी नहीं! पर जैसे ही चुनाव की तारीखें घोषित होती हैं, वो सारी याददाश्त धुल जाती है मानो बरसात में दवात की सारी स्याही बह गई हो।

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शायद भगवान और बनिये की मिट्टी पक्की होती है पर जनता की मिट्टी कुछ ज्यादा ही गीली है जो दो घंटे की रैली और तीन भाषणों में सूख जाती है। वो नेता जिनसे जनता पांच साल तक नाखुश रहती है, उन्हीं की झूठी मुस्कान देख कर फिर मोहित हो जाती है। उन्हीं के झूठ को सुनकर फिर कहती है- चलो, एक बार और सही।

पता नहीं, जनता किस मिट्टी की बनी है कि ऐन इलेक्शन के टाइम नेताओं के सारे ऐब-कुवैब भूल जाती है। पेड़ भी कुल्हाड़ी की चोट याद रखता है लेकिन जनता उस कुल्हाड़ी को फिर अपनी डाल काटने दे देती है। और फिर अगले पांच साल तक वही रोना कि कहां गए वादे, कहां गया विकास!

भगवान और बनिये के बही खातों में भूल की कोई जगह ही नहीं है। जनता का बही खाता भूलों की महागाथा है। जनता भी क्या करे उसे हर बार वही मीठी गोली मिलती है, बस रैपर का रंग बदल जाता है। कभी तिरंगे में लिपटी, कभी विकास के वादे में, कभी धर्म, कभी आरक्षण, कभी विकसित भारत के स्वाद में। लेकिन असर? वही पुराना- नींद गहरी और होश कम।

सच्चाई ये है कि इन चुनावी गोलियों की एक्सपायरी डेट ठीक उसी दिन खत्म हो जाती है जिस दिन वोटिंग खत्म होती है। फिर जनता को वही पुराना कड़वा अनुभव, वही टूटी सड़कें, और वही ‘अगली बार देखेंगे’ का भरोसा! वो जनता, जो कभी बदलाव के सपने लेकर निकलती थी, चुनावों में मीठी गोली चूसकर सो जाती है। पूरे पांच साल के लिये।

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एक बर की बात है अक नत्थू ताहिं मंदर जाती होई रामप्यारी मिलगी। वो बोल्या- सोमवार के व्रत क्यां खात्तर राख्या करै। रामप्यारी बोल्ली- कदे तेरा जिसा लफंडर ना मिल ज्यै। नत्थू बोल्या- तन्नैं छोडूं मैं भी कोणीं, मन्नैं भी भोले की चार कांवड़ बोल राखी हैं।

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