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मतदाता तू सिर्फ वोट दे, फल वो खाएगा

तिरछी नज़र
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प्रभाशंकर उपाध्याय

मतदान केन्द्र के सम्मुख खड़ा मतदाता किंकर्तव्यविमूढ़ है। प्रत्याशियों के भारी-भरकम नारों, मुफ्त में विविध वस्तुएं देने के वादों, ऋण माफी के वचनों एवं नानाविध फ़िकरों और फ़तवों से वह द्वंद्व में है कि किसे वोट डालें और किसे छोड़ें? इस स्थिति में उसका, उसकी आत्मा (जिसे नेतागण अंतरात्मा कहते हैं) से संवाद हो रहा है।

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आत्मा : ‘हे आर्यपुत्र! तू इतना आकुल क्यों है? तेरा मुख मलिन है। हृदय तीव्रता से धड़क रहा है। तेरे सम्मुख मतदान केन्द्र है और तू अविचल-अटल है।’

वोटर : ‘अरी आत्मा! मैं, इस ऊहापोह में हूं कि किसे वोट दूं और किसे छोड़ूं? प्रत्येक प्रत्याशी ने ढेरों वादे किये हैं। क्षेत्र को स्वर्ग बना देने का वचन दिया है। अब, ऐसे हितचिंतकों में से किसे चुनूं?’

आत्मा : ‘हे मतदाता! तू गीता के कर्मोपदेश का ध्यान कर। अपना कर्म कर और फल की चिंता मत कर।’

वोटर : ‘अरी पवित्र आत्मा! तू बड़ी भोली है। अभी ये नेता मेरी अंगुली पर हैं। बाद में इनकी अंगुलियां मुझे तिगनी का नाच नचाएंगी। इनकी आग उगलती जुबान और गांव-गांव की धूल फांकने के बावजूद इनके दमकते चेहरे देखकर मैं दंग हूं। हर मुखड़े पर मुस्कान है। थकान और खीझ का नामोनिशान नहीं। अभी ये पेयजल समस्या का निदान कर देने का वादा कर रहे हैं और चुनाव जीतने के बाद, अपने आवास पर आये वोटर से एक गिलास पानी के लिए भी नहीं पूछेंगे। अभी दर-दर पर इनके दर्शन हो रहे हैं, बाद में इनके वाहन का धुआं ही राहगीरों को नसीब होगा।’

आत्मा : ‘हे मतदाता! तू मत देने हेतु मत, मत कर। यह तेरा संवैधानिक कर्तव्य है। अतः तू दाता बन और मतदान कर। तू क्षेत्र स्तर पर मत सोच बल्कि राष्ट्रीय सोच रख। देख, देश के कद्दावर नेता तेरे कल्याण के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बना रहे हैं। तू उनके हाथ मजबूत कर।’

वोटर : ‘हे आत्मा! तू स्थितप्रज्ञ है। तुझे न तो भूख व्यापती है और न ही प्यास। तू माया-मोह से मुक्त है। तुझे भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और संताप नहीं सताते। गिरते नैतिक मूल्य और चढ़ती महंगाई से तुझे क्या वास्ता? मगर, मैं तो सांसारिक प्राणी हूं। मेरे ऊपर परिवार के पांच सदस्यों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। संतानें बेरोजगार और अविवाहित हैं। अतः मुझे ऐसा नेता चुनना है जो मेरी समस्याओं का समूचा नहीं, किन्तु आंशिक निदान ही करे। मैंने वोट रूपी बाण अपनी प्रत्यंचा पर चढ़ा तो लिया, पर इसे किस निशाने पर छोड़ूं?’

आत्मा : ‘अरे अज्ञानी! कदाचित तूने इतिहास नहीं पढ़ा? राजनीति कभी प्रजा के अनुसार चली है? यहां कोई किसी का सगा नहीं। जिसे मौका मिला उसने ही ताज हथिया लिया। हे भोले प्राणी! सिनेमा जगत और सियासती संसार में कोई धर्म और सिद्धांत नहीं होता। अतः तू निशंक हो, मतदान कर। यदि तेरे इलाके में एक भी प्रत्याशी ईमानदार छवि का है, तो चुनाव थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि आज के परिप्रेक्ष्य में ‘ईमानदारी’ की परिभाषा भी विकट हो गयी है।’

आत्मा (विस्मयपूर्वक) : ‘अरे वोटर! सहसा यह क्या हुआ? तेरी तो भुजाएं फड़कने और अंगुलियां मचलने लगीं। तू तेजी से मतदान केन्द्र की ओर जा रहा है। शाबाश! तान अंगुली और दबा बटन। तू दाता हो जा और कर किसी उम्मीदवार का उद्धार।’

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