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आम प्रकृति नहीं स्त्री का हिंसक प्रतिरोध

अपेक्षाकृत बंद भारतीय समाज में शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा और कार्य-क्षेत्र में स्त्रियों की बढ़ती उपस्थिति के कारण स्त्री-पुरुष संबंधों में भी बदलाव हुआ है और उसके अंतर्विरोध भी स्पष्ट हैं। शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा के विस्तार और मीडिया की भूमिका के समांतर हमारे...
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अपेक्षाकृत बंद भारतीय समाज में शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा और कार्य-क्षेत्र में स्त्रियों की बढ़ती उपस्थिति के कारण स्त्री-पुरुष संबंधों में भी बदलाव हुआ है और उसके अंतर्विरोध भी स्पष्ट हैं। शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा के विस्तार और मीडिया की भूमिका के समांतर हमारे जीवन में लिव-इन रिलेशनशिप और पारिवारिक विघटन की घटनाएं भी बढ़ी हैं। लिव-इन का एक पक्ष नारी-मुक्ति से जुड़ा है, तो दूसरा पक्ष उनके शोषण से भी वाबस्ता है।

प्रमोद जोशी

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मेघालय में हाल में हुए हनीमून हत्याकांड के बाद से अचानक ऐसी खबरों की भरमार मीडिया में हो गई है, जिनमें मानवीय और पारिवारिक रिश्तों को लेकर कुछ परंपरागत धारणाएं टूटती दिखाई पड़ रही हैं। खासतौर से अपराध में स्त्रियों की बढ़ती भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर तथाकथित ‘घातक पत्नियों’ के मीम्स और मज़ाक की बाढ़ आ गई है। सोनम रघुवंशी और राजा रघुवंशी मामला अभी विवेचना के दायरे में है, इसलिए उस पर टिप्पणी करना उचित नहीं, पर उसके आगे-पीछे की खबरें इस बात का संकेत तो कर ही रही हैं कि हमारे बीच कुछ टूट रहा है। आप पूछेंगे कि क्या टूट रहा है? एक नहीं अनेक चीजें टूट रही हैं। घर-परिवार टूट रहे हैं, रिश्ते टूट रहे हैं, विश्वास टूट रहा है, भावनाएं टूट रही हैं और वर्जनाओं-नैतिकता की सीमाएं टूट रही हैं।

इस दौरान जो मामले सामने आए हैं उनमें प्रेम, विश्वासघात और मानवीय रिश्तों के अंधेरे पक्ष को लेकर सवाल उठे हैं। इन सभी प्रसंगों से इस बात पर रोशनी पड़ती है कि मानवीय भावनाएं, खास तौर पर प्रेम और वासना, कितनी जटिल और विनाशकारी हो सकती हैं। किस हद तक व्यक्ति जुनून और विश्वासघात से प्रेरित हो सकता है। यह उस अंधेरे को भी सामने लाता है जो प्रेमपूर्ण रिश्तों में मौजूद हो सकता है और कैसे प्रेम का विनाशकारी रूप सामने आ सकता है।

पहले इन सुर्खियों पर निगाह डालें। एक लिव-इन पार्टनर ने अपनी प्रेमिका की हत्या कर खुद भी आत्महत्या कर ली। दूसरी खबर है, लिव-इन में रह रही युवती की हत्या, प्रेमी फरार। संपत्ति विवाद में पत्नी ने बेटे की मदद से पति को तकिए से मुंह दबाकर मार डाला। राजस्थान में प्रेमी संग मिलकर पत्नी ने की पति की हत्या। पारिवारिक झगड़े में पति ने अपनी पत्नी को गोली मार दी और फिर खुद को भी गोली मार ली। एक घटना किसी दूसरी घटना का प्रेरणास्रोत बनती है। तेलंगाना में एक हत्या की जांच से पता लगा कि मेघालय के अंदाज में हत्या की योजना बनाई गई, जिसमें बाहर से लाए गए हत्यारों की भूमिका होती। बाद में इसे टाल दिया और दूसरा रास्ता अपनाया गया।

इन सभी घटनाओं की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं है, पर सबमें पति, पत्नी, प्रेमी या प्रेमिका के प्रति विश्वासघात शामिल है। विश्वासघात के भी अलग-अलग कारण और ढंग हैं। इनमें किसी दूसरे प्रेमी या प्रेमिका, संपत्ति, ईर्ष्या या अचानक पैदा हुए आवेश की भूमिका है। हालांकि, हमारे पास इसे साबित करने वाला डेटा नहीं है, पर ऐसा लगता है कि स्त्रियों के व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहा है। वे जीवन के अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं, तो आपराधिक प्रवृत्तियों में भी शामिल होने लगी हैं। स्त्रियों की परंपरागत छवि में जो बदलाव आ रहा है, उसमें शायद यह भी एक मोड़ है। बहरहाल, यह सामाजिक रिश्तों और मानसिक-प्रवृत्तियों के शोध का विषय है।

पारिवारिक हिंसा समाज-शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, फोरेंसिक और चिकित्सा दृष्टिकोण से एक प्रमुख सार्वजनिक चिंता का विषय है। हत्या के अपराध, इसकी व्यापकता और इसे अंजाम देने के तरीकों का अवलोकन कुछ निष्कर्षों की ओर ले जाएगा, इसलिए इसकी निवारक रणनीतियों पर हमें विचार करना चाहिए। विवाह-हत्या सामान्य रूप से हत्याओं का एक प्रासंगिक हिस्सा है। यह अभी तक पश्चिमी समाज की समस्या मानी जाती थी, पर धीरे-धीरे यह हमारे जीवन में भी प्रवेश करेगी। निराशा, शराब का सेवन, मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयां पारिवारिक दुर्व्यवहार के कुछ पूर्वानुमानित कारक हैं, जो पारिवारिक विघटन, हिंसक व्यवहार और अंततः विवाह-हत्या का कारण बनते हैं।

पिछले तीन दशकों में टीवी सीरियलों और ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर स्त्रियों की नकारात्मक छवि का असर भी हमारे जीवन पर है। कुछ धारावाहिकों में, महिलाओं को सशक्त और आत्मनिर्भर दिखाया जाता है। कुछ में उन्हें घरेलू हिंसा और उत्पीड़न का शिकार दिखाया जाता है। मजबूत, स्वतंत्र और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिला-पात्र, लड़कियों के आदर्श होने चाहिए। ऐसी महिलाएं हमारे बीच हैं भी, पर अय्याश, धोखेबाज़, क्रूर, साज़िशकार और विवाहेतर संबंधों में यकीन करने वाले स्त्री पात्रों को मनोरंजन माध्यमों ने भरपूर परोसा है।

यह ज़मीनी-सच भले ही नहीं है, पर इसने सामाजिक-जीवन को प्रभावित जरूर किया है। ऊपर की घटनाओं में कुछ स्त्रियां अपराधी की भूमिका में नज़र आती हैं, पर हमारे यहां स्त्रियां सबसे ज्यादा अपराधों की शिकार होती हैं। छत्तीसगढ़ से प्राप्त 23 जून की एक खबर है कि पिछले 115 दिनों में राज्य में 30 महिलाओं की उनके पतियों ने हत्या कर दी। यानी के हर चार दिन में एक हत्या। हाल में अमेरिकी विदेश विभाग ने भारत की यात्रा पर आने वाले अपने नागरिकों के लिए लेवल-2 की यात्रा चेतावनी जारी की है। इसमें कहा गया है कि ‘बलात्कार अभी भारत में सबसे तेजी से बढ़ते अपराधों में से एक है। यहां सेक्सुअल असॉल्ट समेत हिंसक अपराध टूरिस्ट स्पॉट और दूसरे स्थानों पर होते हैं।’

भारत की सामान्य स्त्री असुरक्षा से पीड़ित रहती है। अत्यधिक असुरक्षा भी कई बार उनसे हत्या जैसा अपराध करवा सकती है। पर अचानक स्त्रियों की हत्यारी छवि बनने लगी है, जो खतरनाक बात है। संभव है कि कुछ स्त्रियां किसी अपराध की साजिश में दिखाई पड़ें, पर यह कम से कम हमारे समाज की आम प्रवृत्ति नहीं है। हमारे समाज में सामाजिक विघटन को रोकने और परिवारों को बचाए और बनाए रखने में स्त्रियों की सबसे बड़ी भूमिका है।

ऐसे अपराध पहले भी होते रहे होंगे, पर समाचार-मीडिया के विस्तार ने ऐसी समझ के विस्तार में भी भूमिका अदा की है। ऐसी खबरों को चटपटा माल मानकर उछालने की प्रवृत्ति है। मीडिया की दिलचस्पी इन अपराधों के पीछे के मानसिक और सांस्कृतिक कारणों को खोजने में नहीं है। बहुत-सी बातों का जवाब मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों के पास होगा, पर मीडिया की कितनी दिलचस्पी इसमें है? किसी भी हत्या, आत्महत्या या आक्रमण के पीछे के मनोवैज्ञानिक-कारणों की तलाश भी होनी चाहिए।

अपेक्षाकृत बंद भारतीय समाज में शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा और कार्य-क्षेत्र में स्त्रियों की बढ़ती उपस्थिति के कारण स्त्री-पुरुष संबंधों में भी बदलाव हुआ है और उसके अंतर्विरोध भी स्पष्ट हैं। शहरीकरण, स्त्री-शिक्षा के विस्तार और मीडिया की भूमिका के समांतर हमारे जीवन में लिव-इन रिलेशनशिप और पारिवारिक विघटन की घटनाएं भी बढ़ी हैं। लिव-इन का एक पक्ष नारी-मुक्ति से जुड़ा है, तो दूसरा पक्ष उनके शोषण से भी वाबस्ता है। बेशक गर्लफ्रेंड, ब्वॉयफ्रेंड संस्कृति बदलते समय के साथ आनी ही आनी है, पर उसके साथ समूचे सांस्कृतिक-माहौल में परिवर्तन की जरूरत भी है। ये बातें सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत कारकों से प्रभावित होती हैं और उन्हें प्रभावित भी करती हैं।

लिव-इन रिलेशनशिप का अर्थ क्या पारिवारिक विघटन है? क्या विवाह नाम की संस्था का अंत हो जाना चाहिए? जीवन में बढ़ता अलगाव, तलाक या फिर रिश्तों में आती दरार बच्चों के मानसिक विकास को प्रभावित करती है। पारिवारिक विघटन पूरी सामाजिक संरचना को प्रभावित करता है और बच्चों के लिए भावनात्मक और मानसिक समस्याएं पैदा करता है। ऊपर गिनाई गई आपराधिक घटनाओं का सीधा रिश्ता पारिवारिक विघटन से नहीं है, पर उनकी दिशा वही है। मोटी बात है कि अपराध को अपराध की तरह देखा जाना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।

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