प्रतिशोध की राजनीति और चुनावी अस्थिरता
आज बांग्लादेश आर्थिक दबाव, युवाओं के गुस्से, राजनीतिक अविश्वास, भू-राजनीतिक अनिश्चितता और पड़ोसी भारत के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के बीच खड़ा है। यूनुस ने कुछ सुधारों की शुरुआत की, लेकिन आईएमएफ-समर्थित कठोर नीतियों और धीमी राजनीतिक संवाद प्रक्रिया ने हालात को स्थिर होने के बजाय और जटिल बना दिया है।
आठ अगस्त, 2024 को, जब नोबेल शांति पुरस्कार विजेता प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस को बांग्लादेश का अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया, तब देश की बिखरी हुई संस्थाओं और हिंसक सड़कों के बीच यह एक ऐतिहासिक प्रयोग था। सेना और नागरिक समाज दोनों ने उम्मीद जताई कि उनकी नैतिक छवि और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा राजनीति के दलदल से देश को बाहर निकाल पाएंगी। लेकिन एक साल बाद, तस्वीर उम्मीद से कहीं अधिक धुंधली और तनावपूर्ण हो गई है।
आज बांग्लादेश आर्थिक दबाव, युवाओं के गुस्से, राजनीतिक अविश्वास, भू-राजनीतिक अनिश्चितता और पड़ोसी भारत के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के बीच खड़ा है। यूनुस ने कुछ सुधारों की शुरुआत की, लेकिन आईएमएफ-समर्थित कठोर नीतियों और धीमी राजनीतिक संवाद प्रक्रिया ने हालात को स्थिर होने के बजाय और जटिल बना दिया है।
यूनुस सरकार का सबसे बड़ा दांव आईएमएफ पैकेज रहा, जिसने मुद्रा को स्थिर करने में मदद की। लेकिन इसकी कीमत आम नागरिकों को चुकानी पड़ रही है—सब्सिडी में कटौती, ईंधन और खाद्य पदार्थों के दामों में वृद्धि, और रोजगार के अवसरों में ठहराव के रूप में। तैयार-पोशाक निर्यात क्षेत्र, जो बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, वैश्विक मांग में उतार-चढ़ाव और घरेलू श्रमिक अशांति से जूझ रहा है।
कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यूनुस ने राजकोषीय अनुशासन लागू करने में तो सख़्ती दिखाई, लेकिन रोजगार सृजन और छोटे उद्योगों के पुनर्जीवन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह है कि महंगाई कम होने के बावजूद जनता को राहत का अहसास नहीं हो रहा। ग्रामीण इलाकों में कृषि लागत बढ़ गई है और शहरी क्षेत्रों में रोजगार संकट गहराता जा रहा है, जिससे आर्थिक असंतोष और बढ़ गया है।
शुरुआत में, यूनुस का सबसे बड़ा सामाजिक पूंजी बैंक युवा वर्ग था, जिसने बदलाव की उम्मीद में उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया था। लेकिन एक साल बाद, बेरोज़गारी और अवसरों की कमी के कारण वही युवा सड़क पर हैं। विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर ढाका की सड़कों तक, छात्र संगठनों ने सरकार की नीतियों पर खुलकर नाराज़गी जताई है।
कई विरोध प्रदर्शन हिंसक हो चुके हैं, जिससे राजनीतिक माहौल और अस्थिर हो गया है। युवाओं की यह अधीरता अगर चुनावी वर्ष में हिंसा में बदल गई तो न केवल यूनुस की साख, बल्कि पूरे संक्रमणकालीन लोकतांत्रिक प्रयोग को भी गंभीर खतरा हो सकता है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि युवाओं का यह गुस्सा सोशल मीडिया के माध्यम से तेजी से फैल रहा है और इसकी क्षमता है कि वह 2026 के चुनाव को प्रभावित कर सकता है।
भारत ने चुनावी उथल-पुथल के बाद अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना को शरण देकर एक मानवीय और रणनीतिक फैसला लिया, लेकिन इसका असर बांग्लादेश की घरेलू राजनीति पर उल्टा पड़ा। आम बांग्लादेशी, जो हसीना को एक सत्तावादी और अलोकप्रिय नेता मानते हैं, इस कदम को स्वीकार नहीं कर सके।
यूनुस ने सार्वजनिक रूप से भारत के इस निर्णय की आलोचना तो नहीं की, लेकिन उनके हालिया कदम—चीन के साथ नजदीकी, निवेश परियोजनाओं पर नई वार्ता और बीजिंग समर्थित ढांचागत योजनाओं को प्राथमिकता—ने संकेत दिया है कि वे एक नई कूटनीतिक धुरी स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस रणनीति ने भारत-बांग्लादेश संबंधों में ठंडापन बढ़ा दिया है। नई दिल्ली सतर्क है, जबकि ढाका में यह धारणा बनने लगी है कि यूनुस भारत से दूरी बनाए रखते हुए चीन के पाले में अधिक सहज हैं।
बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के परदे के पीछे अमेरिका की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वाशिंगटन ने लंबे समय से शेख हसीना के शासन से असंतोष जताया था और सत्ता से उनके हटने की प्रक्रिया को परोक्ष रूप से समर्थन दिया। अमेरिकी रणनीति का मुख्य लक्ष्य बांग्लादेश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करना और चीन के बढ़ते प्रभाव को सीमित करना था।
लेकिन भारत द्वारा हसीना को शरण देने के फैसले ने इस समीकरण में अप्रत्याशित मोड़ ला दिया। वाशिंगटन, जिसने यूनुस के उदय को चुपचाप समर्थन दिया था, इस कदम से संतुष्ट नहीं है। अमेरिकी नीति निर्माताओं का मानना है कि यह कदम बांग्लादेश के संक्रमणकाल को अनावश्यक रूप से जटिल बना सकता है और यूनुस सरकार पर घरेलू स्तर पर अधिक दबाव डाल सकता है।
इस असहमति ने भारत-अमेरिका संवाद में हल्की खटास पैदा कर दी है। हालांकि, सार्वजनिक बयानों में दोनों देश इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं, लेकिन कूटनीतिक गलियारों में यह स्पष्ट है कि वाशिंगटन और नई दिल्ली इस बात पर एकमत नहीं हैं कि हसीना को शरण देना दीर्घकालीन दृष्टि से सही था या नहीं।
अवामी लीग और बीएनपी के बीच प्रतिशोध की राजनीति इतनी गहरी है कि यूनुस के संवाद मंच भी इसे तोड़ नहीं पाए। अवामी लीग खुद को हाशिये पर महसूस कर रही है, जबकि बीएनपी को आशंका है कि चुनावी सुधार अधूरे रह जाएंगे। चुनाव आयोग का आंशिक पुनर्गठन हुआ है, लेकिन मतदाता सूचियों की सफाई और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की नियुक्ति में सुस्ती ने विपक्ष को और शंकालु बना दिया है।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।