प्रकाश मनु
शैलेश मटियानी हिंदी कहानी के महानायक रहे हैं। ऐसे अद्भुत कथाशिल्पी, जिनकी कहानियों का सबसे अलहदा रंग है। वे जीवन की अपार करुणा के साथ-साथ जीवन-राग के भी कथाकार हैं। उनके यहां दुख-तकलीफें हैं तो मानवीय संवेदनाओं की ऐसी ऊंचाई, व्यापकता और औदात्य भी, कि उन्हें पढ़ते हुए पाठक अपने जीवन की निर्मलतम अनुभूतियों का साक्षात्कार करता है, और थोड़े समय के लिए रोजमर्रा की आपाधापी, उठापटक और उलझनों को भूल-सा जाता है।
मटियानी जी ने जीवन की तलछट से अपने पात्र चुने। घोर दुख-दारिद्रय की मार झेल रहे तथा जीवन-संग्राम में लगातार पिटते आए ऐसे विवश दीन-हीन पात्रों को भी उन्होंने मन की करुणा से नहलाया। साथ ही, उनकी अभिशप्त जिंदगी की विवशताओं की पोटली खोलते हुए, पाठकों के मन में उनके उजले मन की कभी न भूलने वाली तस्वीरें टांक दीं। इसीलिए उनकी कहानियां हमेशा-हमेशा के लिए हमारी चेतना में दर्ज हो जाने वाली कहानियां हैं।
यह मटियानी जी ने हमारी दुनिया के एकदम साधारण लगते हुए पात्रों को भी इतनी कलात्मक ऊंचाई दी कि कहानी पढ़ते हुए मन मुग्ध और चकित हुआ सा उनके साथ बहता है, और जब तक कहानी पूरी नहीं हो जाती, आप सांस नहीं ले सकते। कहानी कला की यह सिद्धता और जादू हिंदी के अद्भुत कथापुरुष मटियानी की कहानियों में जगह-जगह नजर आता है। इस लिहाज से ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘गोपुली गफूरन’, ‘इब्बू मलंग’, ‘मिट्टी’, ‘प्यास’, ‘मैमूद’, ‘वृत्ति’, ‘अहिंसा’, ‘भविष्य’, ‘रहमतुल्ला’ न सिर्फ मटियानी जी की श्रेष्ठतम कहानियां हैं, बल्कि विकट जीवन वाले ऐसे लाजवाब पात्र आपको पूरे हिंदी कथा-जगत में कहीं ढूंढ़े न मिलेंगे। यहां तक कि जिस समय हिंदी साहित्य में दलित चेतना की बात कहीं सुनाई तक न देती थी, मटियानी जी ने ‘हरिजन उद्धार’, ‘परदे के पीछे’ सरीखी दर्जनों कहानियां लिखकर, हिंदी कथा साहित्य में एक नजीर कायम की।
ऐसे अद्भुत कथाकार को निकट से देखने, जानने का सौभाग्य मिला, इसे मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं। कोई तीस बरस पहले ‘हंस’ के दफ्तर में उनसे मुलाकात हुई थी, और राजेंद्र यादव ने बड़े उत्साह से उनसे मेरा परिचय कराया था, ‘आप से मिलिए… आप मटियानी जी!’
उनकी भव्य काया और भव्य व्यक्तित्व ने पहली बार में ही मुझे मोह लिया था। शायद मैं भी उन्हें कुछ भा गया था। फिर वे मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते हिंदुस्तान टाइम्स हाउस में ‘नंदन’ के दफ्तर आए। फिर तो मटियानी जी से मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, और मैं अंत तक उनके बेहद करीब रहा। मटियानी जी ने देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, कमलेश्वर और कन्हैयालाल नंदन से अनौपचारिक बतकही सरीखे मेरे लंबे इंटरव्यू पढ़े, तो उऩके मुरीद हो गए। बोले, ‘मनु, कमलेश्वर जब ‘सारिका’ के संपादक थे, तो उन्होंने एक युवा कथाकार को मेरे घर भेजा इंटरव्यू के लिए। वे कई दिनों तक मेरे साथ रहे। पर मेरा इंटरव्यू देने का मन ही नहीं बना और मैंने उन्हें वापस भेज दिया। पर जैसे खुले और विस्तृत इंटरव्यू तुम करते हो, वैसे मैंने हिंदी में कहीं देखे नहीं। इसलिए अगर तुम चाहो तो मेरा इंटरव्यू कर सकते हो।’
फिर मटियानी जी ने ही प्रस्ताव दिया कि वे एक पूरा सप्ताह मेरे घर रहेंगे। हर दिन एक विषय तय करके उस पर बातचीत होगी, और वह पुस्तकाकार सामने आएगी। ‘पर हां, उसकी जो रॉयल्टी आएगी, वह आधी तुम्हारी, आधी मेरी होगी।’ उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा। सुनकर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा, ‘मटियानी जी, पूरी रॉयल्टी आप ही रखिए। पर पहले आप कार्यक्रम बनाइए तो!’ लेकिन इंटरव्यू का संयोग नहीं बन सका।
फिर उनकी अपरंपार तकलीफों के साथ ही मानसिक विक्षेप का समाचार मिला, तो मैं दहल सा गया। बार-बार मटियानी जी का सदाबहार व्यक्तित्व और संवाद के लिए उत्सुक उनका भावाकुल चेहरा मेरे सामने आता रहा। एक बार तो उन्होंने बेहद तकलीफ के साथ कहा था, ‘मनु, मेरी हालत तांगे में जुते हुए किसी घोड़े जैसी है, जिसकी आंखों के दोनों ओर पट्टी बांध दी जाती है, और वह अंधाधुंध भागता चला जाता है। ऐसी हालत में मैं जिंदा कैसे हूं, खुद मुझे समझ में नहीं आता। कायदे से मुझे जिंदा नहीं होना चाहिए था।’
सुनकर मेरी हालत ऐसी थी, जैसे भीतर कोई तीखी लकीर खिंचती चली जाए। आंखें भीग गईं। मटियानी जी से वह चिर-प्रतीक्षित इंटरव्यू हो सकेगा, यह सोच पाना भी अब मुश्किल था। पर फिर एक आकस्मिक संयोग। ‘नंदन’ के दफ्तर में अचानक मटियानी जी का फोन आया, ‘मनु, मैं मटियानी बोल रहा हूं।’
वे गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल में इलाज के लिए आए थे। मैं उनसे मिलने गया, तो उनके दुखों की अंतहीन कथा चल पड़ी। बताते-बताते अचानक वे बोले, ‘मनु, तुम मुझसे इंटरव्यू के लिए कह रहे थे। तुम चाहो तो यहां बात कर सकते हो।’
‘यहां, अस्पताल में…! आप बात कर पाएंगे?’
‘कुछ तो बात हो ही जाएगी, फिर आगे देखेंगे…!’ मटियानी जी ने पुराने रंग में लौटते हुए कहा।
3 नवंबर, 1996 को अपने साहित्यिक मित्रों शैलेंद्र चौहान और रमेश तैलंग के साथ फरीदाबाद से उनका इंटरव्यू लेने के लिए पहुंचा तो सच कहूं, मन थोड़ा डरा हुआ था कि न जाने बात हो भी पाएगी या नहीं? लेकिन आश्चर्य! शुरुआती हिचकिचाहट और थोड़ी-सी ‘नर्वसनेस’ के बावजूद मटियानी जी ने इतने धीरज के साथ कोई चार घंटे तक सवालों के जवाब दिए और वे जवाब इतने अच्छे, सटीक और मुकम्मल थे कि हम लोग पूरे समय एक अजीब-सी भावदशा में रहे।
मेरे लिए यह विस्मयकारी और सुखकर था कि ये सवाल-जवाब ऐसे थे, जिनमें मटियानी जी के व्यक्तित्व और दुखों की गांठें खुलीं और उनके जीवन के तमाम ऐसे पन्ने भी खुलते चले गए, जो अब तक अज्ञात थे और इस इंटरव्यू के जरिए वे पहली बार पाठकों के सामने आए।
मटियानी जी के न रहने पर उसके अंश दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में छपे। शेखर पाठक ने मटियानी जी की स्मृति में निकले ‘पहाड़’ पत्रिका के विशेषांक में पूरा इंटरव्यू अविकल छापा, तो उस पर लेखकों और सहृदय पाठकों की चिट्ठियों की इस कदर बरसात हुई कि मैं चकित और मुग्ध था। और तब मैंने पहली बार जाना कि मटियानी जी के पाठकों का संसार कितना बड़ा है और वे उन्हें किस कदर प्यार करते हैं!