अविजीत पाठक
एक समाज जिसने भ्रष्टाचार को लगभग सामान्य चलन ही लेना शुरू कर दिया हो, ऐसे में क्या हैरानी कि हमें शिक्षा क्षेत्र में निरंतर घोटालों के बारे में सुनने को मिले? लेकिन भ्रष्टाचार के ऐसे सामान्यीकरण के बावजूद – यहां तक कि सामाजिक स्वीकार्यता होने के बाद – जब हम पाते हैं कि एक उप-कुलपति फर्जी डिग्रियां बेचने में शामिल है या कोई मंत्री और उसके सहयोगी विद्यालयों में अध्यापक भर्ती की तमाम प्रक्रिया को तोड़-मरोड़ रहे हैं, तो ऐसे में चुप्पी साधे रखना मुश्किल हो जाता है। इस गुस्से के पीछे वजह है कि हम खुद अपनी शिक्षा की प्रभुता को तहस-नहस और शिक्षण के पेशे का अवमूल्यन कर रहे हैं, ऐसे हालात में न तो कोई हमारे बच्चों के भविष्य को बचा सकेगा और न ही उनके अंदर की रचनात्मकता को सक्रिय कर पाएगा । पैसे की पूजा करने के फेर में या फिर नए उभरते नायकों की वाहवाही करने में– जैसे कि टेक्नो मैनेजर और व्यापारी का बतौर शिक्षाविद् अवतार और राजनेताओं का बड़े उद्योगपतियों का एंजेट बनना– हम लगभग भूल चुके हैं कि ऐसा समाज जो शिक्षा की रोशनी के वाहक कहे जाने वाले अध्यापक गंवा दे, वह पहले ही अस्तित्व खो चुका होता है।
आइए विगत की सुखद स्मृतियां ताजा करें। कल्पना करें उस मंजर की, जब शांति निकेतन में एक पेड़ की छांव में रबिन्द्रनाथ टेगोर और मोहनदास कर्मचंद गांधी इकट्ठा बैठे हैं और शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता पर विमर्श जारी है, और राष्ट्र को नए सपनों और आकांक्षाओं से प्रेरित कर रहे हैं। याद करें जब नेहरू के मंत्रिमंडल में मौलाना आज़ाद सरीखे शिक्षा शास्त्री थे, जो राजनीतिक वर्ग तक के मार्गदर्शक थे। याद करें कुछ महान उप-कुलपतियों जैसे कि आशुतोष मुखर्जी और गोपालास्वामी पार्थसारथी को। स्मरण करें सीवी रामन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान प्राचार्यों का और याद करें बहुत से कम मशहूर, किंतु अत्यधिक प्रतिबद्ध अध्यापकों को, जिनके प्रेरणापुंज मारिया मोंटेस्सरी और गिजूबाई बढेका जैसी हस्तियां थीं और उनकी कोशिश रहती थी कि शिक्षा की सृजनशील बारीकियों और जिंदगी संवारने वाले सबक को मूर्त रूप दिया जा सके। सोचिए उस पीढ़ी के बारे में जिसे पाओलो फ्रेरे और इवान इल्लिच जैसी विभूतियों से संवाद करने का आंनद लेना पसंद था या जिसको जिद्दू कृष्णामूर्ति के शिक्षा संबंधी विचार सुनना अच्छा लगता था। याद करें, हमारे कुछ सबसे बेहतरीन दिमागों को – इतिहासकार, भौतिकी-शास्त्री, समाजशास्त्री – जिन्होंने मोटी पगार वाली नौकरियां छोड़कर ग्रामीण और हाशिए पर आते तबके के बच्चों के साथ काम करना चुना और प्रण लिया कि नव-भारत में अब किसी ‘एकलव्य’ को शिक्षा के प्रकाश से वंचित न रहना पड़े।
शायद नई पीढ़ी को उपरोक्त बातों पर यकीन न होगा, क्योंकि वह पहले ही हमारे कुछ कुख्यात उपकुलपतियों की करतूतों की कहानियां सुनकर भ्रमित हुई पड़ी है। हाल ही में, हैदराबाद पुलिस ने भोपाल की सर्वपल्ली राधाकृष्णन यूनिवर्सिटी के एक वर्तमान और एक सेवानिवृत्त उपकुलपति को बीटेक से लेकर एमबीए कोर्स तक में पैसे के बदले फर्जी डिग्रियां देने के आरोप में गिरफ्तार किया है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में एक विश्वविद्यालय का अध्यक्ष भी 55,000 जाली डिग्रियां बेचने का आरोपी है। इस किस्म के बहु-करोड़ी घोटालों की कहानियों का कोई अंत नहीं है। फिर भी याद आ रहा है, वर्ष 2016 में पश्चिम बंगाल का वह घोटाला, जब सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में बारी से पहले भर्ती के वास्ते मेरिट सूची में हेरा-फेरी करने के लिए संबंधित विभाग के मंत्री की मिलीभगत की बात उछली थी। कोई हैरानी नहीं कि इस सिलसिले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल के उप-शिक्षा मंत्री की बेटी को हुक्म दिया कि उसने वर्ष 2018 से लेकर जो भी वेतन बतौर शिक्षक पाया है, वह लौटाया जाए। जिस विद्यालय में बतौर उप-शिक्षक उसने काम किया था, उसी के प्रांगण में घुसने तक से वर्जित किया गया। इस किस्म के भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की निरंतर खबरों के बीच नई पीढ़ी को क्या यह यकीन होगा कि दुनिया इससे अलग भी है?
शिक्षा में इस भ्रष्टाचार को हम किस तरह लें? अनेकानेक वजहें हैं –दूसरी वस्तुओं की तिजारत की तरह शिक्षा को भी व्यापार बना देने की पूरी छूट। यानि जिस तरह कोई पैसे के बदले कॉफी का प्याला पीता है वैसे ही बीटेक, बीएड, एमबीए या यहां तक एमबीबीएस डिग्री भी खरीद ले। शिक्षा क्षेत्र में राजनीतिक वर्ग और कुछ व्यापारियों का अपवित्र गठजोड़ बनने के परिणामस्वरूप मैनेजमेंट और चंदा कोटे के प्रावधान वाले घटिया दर्जे के मेडिकल कॉलेज, टेक्निकल यूनिवर्सिटियां यहां-वहां कुकुरमुत्ते की तरह उग आए। डिप्लोमा धारकों की यह पुरानी चाह रही है कि किसी भी कीमत पर उन्हें बीए-एमए यहां तक कि पीएचडी की डिग्री मिल जाए।
लेकिन फिर हम जैसों का क्या – जो इंग्लिश माध्यम से पढ़े, शहरी, व्यावसायिक मध्य वर्ग से हैं ? इस शोचनीय स्थिति के लिए क्या हम कम जिम्मेवार हैं? क्या हमें शिक्षण पेशे की सच में कदर है? क्या हम अपने बच्चों को वास्तव में महान शिक्षकों से तालीम दिलवाना चाहते हैं? क्या अपने बच्चों की जरूरत की खातिर हम सड़कों पर उतरकर यह मांगें करने को तैयार हैं कि उन्हें स्कूलों में बढ़िया पुस्तकालय, रचनात्मकता और प्रयोग आधारित शिक्षा प्रणाली और अच्छे अध्यापक मिलें, जो उनको अहसास दिलवाएं कि शिक्षा केवल इम्तिहान उत्तीर्ण करने की तकनीक न होकर आवश्यक रूप से बौद्धिक ज्ञानात्मकता एवं सुरूचिपूर्ण कलात्मकता का संगम है या वह संवेदनशीलता जो विनम्रता, सहृदयता और परोपकार जगाए। क्या हम अपनी बढ़िया सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों को राजनेताओं की निरंतर गिद्धदृष्टि से बचाने की खातिर आवाज उठाते हैं? या फिर हमारी सोच है कि हमें क्या पड़ी है क्योंकि हमारा बच्चा तो भारत से बाहर जाकर विदेशों में आरामपूर्वक बस जाएगा? या क्या हमें केवल ब्रांडों की तलाश है, मसलन, नामी कोचिंग सेंटरों की इम्तिहान पास करवाने की रणनीति, एजूकेशन टेक्नीक कंपनियां अथवा सफलता के बने-बनाए मंत्रों वाले पैकेज।
हम में से कितनों को अहसास है कि अध्यापक बच्चे को ‘ए से एप्पल’ या 19 गुणा 19 बराबर 361 सिखाने वाला कोई तकनीशियन नहीं है, बल्कि शिक्षक वह उत्प्रेरक है जो गणित, भौतिकी या इतिहास पढ़ाते वक्त भी बच्चे में छिपी संभावनाओं को को जगाने में लगा रहे। लगता है हमें हर चीज में बहुत जल्दी लगी है। ‘सब कुछ तुरत-फुरत’ वाले काल में हमें परिणाम भी झटपट चाहिए – यानि किसी भी कीमत पर मेडिकल कॉलेज की सीट या विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिला। कोई हैरानी नहीं, हम शिक्षण के पेशे पर हो रहे आघातों को निकृष्ट होकर देख रहे हैं और माफिया को उभरता शिक्षण उद्योग चलाने की छूट दे रहे हैं।
लगता है इस बड़े रोग से छुटकारा पाने के लिए, शिक्षा बचाने की खातिर जन-आंदोलन करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं।
– लेखक समाजशास्त्री हैं