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संकेत समझ भावनात्मक मुद्दों का सहारा

राजेश रामचंद्रन लंबी चलने वाली लोकसभा चुनाव प्रक्रिया में, अब जबकि दूसरे चरण का मतदान पूरा हो चुका है, अहसास होने लगा है कि माहौल पहले जैसा हो चला है। भाजपा पुनः ध्रुवीकरण के पैंतरे पर लौट चुकी है और...
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राजेश रामचंद्रन

लंबी चलने वाली लोकसभा चुनाव प्रक्रिया में, अब जबकि दूसरे चरण का मतदान पूरा हो चुका है, अहसास होने लगा है कि माहौल पहले जैसा हो चला है। भाजपा पुनः ध्रुवीकरण के पैंतरे पर लौट चुकी है और लगता है हमेशा की तरह विपक्ष भी खुद को गिरहों में बांध रहा है– वही जाना-पहचाना किंतु दुखद चुनावी तमाशा। सवाल जिसका उत्तर पाने की अपेक्षा है वह यह कि क्योंकर प्रधानमंत्री मोदी 21 अप्रैल को बांसवाड़ा की चुनावी रैली में मुस्लिम फैक्टर घसीट लाए? और यह करने का ढंग कैसा रहा– इस भाषण में घुसपैठिए, मंगलसूत्र और ‘वे जो ज्यादा बच्चों वाले हैं’ जैसे तमाम संदर्भ उन्होंने दे डाले।

अब, जबकि इस चुनावी भाषण की चीरफाड़ और विश्लेषण यह समझने के लिए हो रहा है कि विकास से हटकर नफरत, अंतरिक्ष यान की उपलब्धि की बजाय संप्रदाय विशेष का हौवा खड़ा करना, बड़ी आकांक्षाओं की बात करने के बजाय सतही भाषा के स्तर पर उतर आने के पीछे कारण क्या है। क्या यह चुनावी वक्त का भय है? क्या विपक्षी दल मजबूत हो रहे हैं और भाजपा पर वजूद का संकट बन आया है? किसी राजनीतिक दल के लिए हालात मुश्किल बनते देख अपने सुरक्षित पाले में वापस घुसना सामान्य है।

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अतएव, आसान आकलन यह है कि 19 अप्रैल के पहले चरण के मतदान के प्रतिशत और मतदाताओं के मिज़ाज ने भाजपा और संघ परिवार के नेतृत्व को फिक्रमंद कर डाला है, उनके पास फिर से धार्मिक पत्ता खेलने का एकमात्र विकल्प बचा। प्रधानमंत्री मोदी को 20 अप्रैल को नागपुर रुकना था। क्या आरएसएस नेतृत्व ने उन्हें हकीकत से अवगत करवाया? राजनीतिक बिसात को बूझने के कयासों में इस किस्म के सवाल उभर रहे हैं : क्या भाजपा के लिए हालात मुश्किल हो रहे हैं?

लेखक 20 अप्रैल के दिन ऊधमपुर में मौजूद था, जहां पर भाजपा प्रत्याशी डॉ. जितेन्द्र सिंह के समक्ष पिछली दफा की अपेक्षा मुकाबला कहीं कड़ा है। भाजपा के खिलाफ मुस्लिम मतदाताओं की लामबंदी मजबूत दिखाई दी। गुलाम नबी आज़ाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी का प्रत्याशी मैदान में होने से मुस्लिम वोटें बंटने का असर क्या रहा, इसके लिए चुनाव परिणामों का इंतजार करना पड़ेगा। यदि भाजपा के विरुद्ध मुस्लिम समुदाय की लामबंदी पूर्ण रूपेण है और हिंदू प्रतिक्रिया ढीली-ढाली- इससे बांसवाड़ा में मोदी के भाषण का विश्लेषण बेहतर ढंग से हो सकता है। सीधा अर्थ है खतरे की घंटी बज चुकी है। तिस पर, विभिन्न सर्वे बता रहे हैं कि बेरोजगारी और महंगाई चुनावी बातचीत में मुख्य मुद्दे बनकर उभरे हैं और वास्तव में गैर-सांप्रदायिक हिंदुओं की सोच को प्रभावित कर रहे हैं। यदि केंद्र सरकार के खिलाफ गुस्से की लहर न भी दिखाई दे तो भी कम से कम उत्साह में कमी तो साफ दिख रही है।

यह सब कुछ है जो एक सामान्य चुनाव में किसी सत्ता को बदलने को जरूरी है, अतएव सत्ताधारी पक्ष के लिए लाजिमी हो चला है कि चुनावी प्रचार में मुस्लिम फैक्टर शामिल करके इसे असामान्य बना दिया जाए। जहां आलोचकों का इल्जाम है कि यह भाजपा द्वारा धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करके मतदाता के रुझान को बदलने का अग्रिम उपाय है वहीं बेशक यह चुनावी प्रचार को साम्प्रादायिक रंगत देने का प्रयास है। और ‘हिंदू खतरे में है’ का राग खुद-ब-खुद दर्शाता है कि भाजपा मुश्किल में है। हालांकि भाजपा के अंदरूनी लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री का बांसवाड़ा का भाषण इस बात का द्योतक नहीं है कि भाजपा मुश्किल में है बल्कि यह तो कार्यकर्ताओं की सुस्ती दूर करने को भावनात्मक सुरों का तड़का था। गोया, पार्टीगण साम्प्रदायिक रंगत को भावनात्मक सुर ठहरा रहे हैं। लेकिन यदि यह दलील मान भी ली जाए, तब भी इतना तो साफ है कि फिलवक्त भाजपा सुस्त पड़ना गवारा नहीं कर सकती और प्रत्येक सीट जीतने के लिए जी-जान से लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

इस स्थिति में यह समझ से परे हैं कि क्या महज साम्प्रदायिक पुट देना काफी होगा, क्या सुस्ती भगाने या आर्थिक संकट से बनी मतदाता की उदासीनता हटाने के लिए पार्टी के पास यही एक तरीका बचा है? यदि लोगों का मिजाज़ महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे से प्रभावित है तो मामला सरासर सत्ताधारियों के प्रति कड़वाहट का है, जिसे महज साम्प्रदायिक चाशनी चढ़ाकर दूर नहीं किया जा सकता। जीत के लिए, मुस्लिम फैक्टर से परे, ‘एक बार फिर मोदी’ अवयव का होना जरूरी है। और इसी का इम्तिहान है।

जहां भाजपा का परीक्षण हो रहा है वहीं सत्ताधारियों के प्रति नाराजगी से उत्पन्न वोटें खुशी-खुशी पाने का इंतजार करने की बजाय कांग्रेस उन्हें भ्रमित कर रही है। राहुल गांधी किसी एक्स-रे जांच करवाने की कह रहे है, यह जानने के लिए कि किस समुदाय ने कितना पाया। जाहिर है उनका एस्क-रे यह नहीं दर्शाता कि खुद कांग्रेस के संभ्रांतों में किस समुदाय ने कितना पाया। यदि इस बात से बीच वाली जातियां उखड़ गईं तो जाति-आधारित पड़ताल से सशक्तीकरण करने का यह प्रयास उलटा भी पड़ सकता है।

इसी बीच, राहुल गांधी के पिता, माता और बच्चों के सलाहकार सैम पित्रोदा विरासत-कर लगाने की सिफारिश कर रहे हैं– विचार शानदार है लेकिन कांग्रेस के मालदार समर्थकों और खुद पार्टी ने इसे खारिज कर दिया है। जब कांग्रेस सारा ध्यान केवल गरीब वर्ग पर केंद्रित रखने का दावा कर रही है, ऐसे में विरासत-कर लगाने का विचार इस गरीब-हितैषी एजेंडे में सही बैठता है। क्यों न अति-धनाढ्यों पर कर लगे, खासकर जिन्होंने संदेहास्पद तरीकों से सरमाया इकट्ठा किया है? चूंकि काले से सफेद में तब्दील धन-संपत्ति अगली पीढ़ी को विरासत में मिलती है, सो इस पर कर लगना चाहिए।

कांग्रेस और इसके समर्थकों ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि पार्टी के पास कुल मिलाकर विरासत ही तो है जिस पर पार्टी और नेहरू-गांधी परिवार नाज़ कर सकता है। पुरखों से विरासत में 15-20 करोड़ रुपये या अधिक मूल्य की धन-संपत्ति पाने वालों पर कर लगना चाहिए (यह दर 15 फीसदी जितनी मामूली भी हो सकती है, महज इसलिए ताकि प्राप्तकर्ता को बिना काबिलियत और छप्पड़ फाड़कर मिले धन का मोल समझ आए) बल्कि ऐसा कर राजनीतिक विरासत पर भी लगना चाहिए। किसी नेता का बेटा या बेटी, चुनावी क्षेत्र में पार्टी के लिए 15 साल तक काम किए बगैर विधानसभाई या संसदीय चुनाव में प्रत्याशी न बन सके। इससे 15 फीसदी विरासत-कर और 15 वर्षीय सेवाकाल का समांतर औचित्य बन पाएगा।

राहुल गांधी क्रांति की बात ऐसे कर रहे हैं मानो कोई माओ या स्टालिन हों। भव्यता का भ्रम अलग, वे अमेठी अथवा रायबरेली या बाकी उत्तर प्रदेश में अन्याय के इस एक्स-रे का क्रियान्वयन क्यों नहीं कर पाए जब 10 सालों तक वे कांग्रेस के दूसरे सबसे ताकतवर सांसद रहे (पहले बतौर राय बरेली सांसद)। आखिरकार, 2019 में भी उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के 21 सांसद चुनकर आए थे। यदि चुनावी लड़ाई आम आदमी पर बन चुके आर्थिक संकट के मुद्दे पर हो चली है, तो उस गरीब देश में जहां अरबपति अपने बच्चों की शादी में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर देते हैं, वहां विरासत कर पर बात करने तक का असर चमत्कारी हो सकता है। इसलिए, मोदी को अपनी गद्दी बनाए रखने के लिए तमाम सत्ता-अनुकूल स्थितियों का फायदा उठाना आना चाहिए था, लेकिन यह हुआ लगता नहीं।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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