प्रकृति व आध्यात्मिक चेतना के प्रति जिम्मेदारी समझें
प्राकृतिक सौंदर्य और पवित्रता से भरपूर तीर्थ स्थलों के हृदय क्षेत्र में सड़क, रोपवे और रिजोर्ट्स का निर्माण उचित नहीं है। प्रकृति की गोद में स्थित इन स्थलों का आदर्श एकांत और साधना का वातावरण रहा है, जहां तक पहुंचने के लिए थोड़ा श्रम करना तप के रूप में माना जाता था।
हिमालय आज रुष्ट प्रतीत हो रहा है और अपनी विप्लवी हलचलों के माध्यम से मानवता को चेतावनी दे रहा है। इंसान ने हिमालय के साथ जो खिलवाड़ किया है, वह चिंताजनक और क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। विकास के नाम पर इसके शिखरों, तलहटियों और गोद में अनियोजित योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं, जो हिमालय की प्राकृतिक विशेषताओं से मेल नहीं खातीं। इन कृत्यों में मानव की अदूरदर्शिता, लोभ, अहंकार और महत्वाकांक्षाएं प्रमुख रूप से दिखाई देती हैं, जो प्रकृति के प्रति न्यूनतम संवेदना की कमी को दर्शाती हैं।
वर्ष 2025 में प्रकृति ने हिमालय के हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर प्रांतों में विनाशकारी तांडव किया, जिसके भयावह परिणाम पंजाब और दिल्ली तक देखने को मिले और इसका असर प्रयागराज से बनारस तक फैला। यह घटना हिमालय की चेतावनी को सही साबित करती है और समय रहते उसकी संकेतों को समझने और आवश्यक सबक सीखने का संदेश देती है। हिमालय अब तक हमें पर्याप्त चेतावनी दे चुका है, और ऐसा लगता है कि अब वह सीधे कार्रवाई पर उतर चुका है।
ग्लोबल वार्मिंग और वैश्विक मौसम परिवर्तन जैसी घटनाओं में भले ही प्रभावित लोगों का सीधा हाथ न हो, लेकिन इनका नाम लेकर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। अपनी बेवकूफियों और अदूरदर्शिता को छुपाना या प्रकृति-विरोधी योजनाओं को विकास का रूप देना अब नहीं चल सकता। समय आत्मचिंतन, समीक्षा और ठोस सुधार का है। हमें प्रकृति और हिमालय के प्रति न्यूनतम संवेदना के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता है। अन्यथा, भविष्य में प्रकृति के विकराल दंड से कोई भी बच नहीं सकता।
इस प्राकृतिक आपदा में जिनकी जान गई, उनकी आत्माओं के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए और उनके परिजनों के प्रति हार्दिक सांत्वना जाहिर की जाती है। सभी से यह निवेदन किया जाता है कि प्रकृति के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें। भारतीय चिंतन में प्रकृति को मां के समान माना गया है, जो अपनी संतानों की रक्षा और पोषण करती है। हमें इस मां के प्रति कृतज्ञता और सम्मान के साथ काम करना चाहिए, ताकि उसकी कृपा हम पर बनी रहे। अगर हम प्रकृति को भोग्य वस्तु मानकर उसका अत्यधिक शोषण करते हैं, तो इसके नतीजे को भुगतने के लिए हमें तैयार रहना होगा। वर्ष 2025 में हिमालय क्षेत्र में शिव-शक्ति से जुड़े तीर्थस्थलों के आसपास प्राकृतिक आपदाएं अधिक आई हैं, जो एक स्पष्ट संकेत हैं कि प्रकृति रुष्ट है। प्रकृति की अधिष्ठात्री मां जगदम्बा और भगवान शिव रुष्ट हैं, और महाकाल-महाकाली अपना ताण्डव नृत्य करने के लिए विवश हो गए हैं। वे सृष्टि के संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक विध्वंस करने के लिए बाध्य हैं, जो हमें प्रकृति और आध्यात्मिक चेतना के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने का संदेश देता है।
वर्तमान में तीर्थ स्थलों को मानव ने पिकनिक स्पॉट और व्यापारिक केंद्र बना दिया है, जहां तीर्थयात्रियों को लूटने का कारोबार होता है, जो तीर्थ की गरिमा के अनुरूप नहीं है। बिना जीवन के सच्चे तप, सुधार और पात्रता के, मुफ्त में भगवान की कृपा की उम्मीद करना और तीर्थ स्थलों में गंदगी फैलाना, यह पूरी तरह से समझदारी के खिलाफ है। इस प्रकार का तीर्थाटन और चिन्हपूजा करना नादानी और नासमझी है, जो जीवन के मूल्यों की न्यूनतम समझ का भी अभाव दर्शाता है। भगवान की कृपा के लिए, व्यक्ति को अपने भीतर न्यूनतम पात्रता अर्जित करनी होती है, जो ईमानदारी, जिम्मेदारी और समझदारी पर आधारित होती है। गैरजिम्मेदार आचरण, बेईमानी और अहंकार से इसका कोई संबंध नहीं है।
प्राकृतिक सौंदर्य और पवित्रता से भरपूर तीर्थ स्थलों के हृदय क्षेत्र में सड़क, रोपवे और रिजोर्ट्स का निर्माण उचित नहीं है। प्रकृति की गोद में स्थित इन स्थलों का आदर्श एकांत और साधना का वातावरण रहा है, जहां तक पहुंचने के लिए थोड़ा श्रम करना तप के रूप में माना जाता था। जो लोग अशक्त हैं, उनके लिए कंडी और अन्य सेवाएं उपलब्ध होती हैं, जो स्थानीय लोगों के रोजगार का भी कारण बनती हैं। इस तरह की अव्यवस्थित विकास योजनाओं से इन स्थानों की पवित्रता और प्राकृतिक सौंदर्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
वर्ष 2025 के प्रकृति तांडव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नदियों और जल स्रोतों के साथ किसी प्रकार का खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए, और इन्हें हल्के में लेने की भूल नहीं करनी चाहिए। इनकी राह में बस्तियां बसाना, मकान, होटल और रिजॉर्ट बनाना गलत है। अंग्रेजों ने अपने समय में जिन हिल स्टेशनों में निर्माण किए, वे आज भी प्रकृति के साथ तालमेल बनाए हुए सुरक्षित हैं। इसके विपरीत, हमने पहाड़ी क्षेत्रों की ढलानों पर जंगलों की सफाई कर बहुमंजिला भवनों की कतारें और कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए हैं, जो हमारी अदूरदर्शिता और दिवालियापन को दर्शाते हैं। अगर किसी मौसमी बारिश में कुछ दिन और बारिश होती है, तो इसका नुकसान भयंकर हो सकता है और भूकंप के खतरे वाले क्षेत्रों में तो यह नुकसान अकल्पनीय हो सकता है।
हिमालयी प्रांतों में विकास के कर्णधार नेताओं, अधिकारियों, इंजीनियरों और बुद्धिजीवियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अब सचेत हो जाएं और आम लोग भी जागरूक हों। थोड़ी-सी समझदारी, ईमानदारी और प्रकृति के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता से हम इस तरह की त्रासदियों के दुष्प्रभावों को नियंत्रित करते हुए अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं।
लेखक देव संस्कृति वि.वि. में संचार संकाय के विभागाध्यक्ष हैं।
