शमीम शर्मा
समाचार सुने मुद्दत हो गई है। कई बार बहुत दिल करता है कि दीन-दुनिया की खबर पता चले पर बढ़िया से बढ़िया टीवी भी धोखा दे रहे हैं। टीवी भी बेचारे क्या करें? वे तो सिर्फ एक माध्यम मात्र हैं। रिमोट मशीनी अंदाज़ में चैनल बदलता रहता है और सिर में झुंझलाहट बढ़ती रहती है। न्यूज कहीं देखने को ही नहीं मिलती, मानो ईद का चांद हो गयी है। एक तो मिनट-मिनट के बाद विज्ञापन और फिर न्यूज के सभी चैनलों पर बहस, नौटंकी, वायरल वीडियो और बेतुकी आइटमों का ऐसा बेस्वाद दलिया परोसते हैं कि दिल करता है टीवी पैक करके टांड पर रख दें।
कुछ को सुनकर तो लगता है कि कुछ पाकर बक रहे हैं। कुछ की टोन ऐसी है मानो रिकॉर्डप्लेयर की सूई अटक गई है कि बस एक ही राग अलापते हैं। कुछ किसी राजनीतिक पार्टी के झंडाबरदार लगते हैं तो दूसरे विपक्षियों के समर्थक होने का सा आभास करवाते हैं। खबर वाले इतने बेखबर होकर रिरियाते हैं कि कब किसकी टोपी-पगड़ी उछल जाये, उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं है।
हिंदुस्तान, पाकिस्तान या चीन की न्यूज सुनते हुए कई बार लगता है कि जैसे टीवी में धमाके हो रहे हैं। डर लगने लगता है कि बस बेड के पास बम आकर गिरने वाला है। बरसात के बाद भी इतना कीचड़ नहीं देखने को मिलता, जितना टीवी न्यूज चैनलों पर कीचड़ उछलता है। टीवी के आविष्कारक भी आज के न्यूज चैनल देखकर अपना सिर धुन लेते होंगे और स्वयं को पाप का भागीदार समझते होंगे कि लोगों का दिमाग चाटने वाले टीवी की खोज की बजाय वे कुछ और ही काम कर लेते तो दुनिया सुकून से रह लेती।
सौतन भी आपस में इतनी नहीं लड़ती होंगी और ना ही कटाक्ष-ताने कसती होंगी, जितना न्यूज चैनल वाले एक-दूसरे पर गरजते-बरसते हैं। सब अपने-अपने मस्तक पर श्रेष्ठ होने का तिलक ठोकते रहते हैं। ये दावा करते हैं कि फलां न्यूज सबसे पहले हमने दी पर सवाल है कि दो मिनट बाद अगर यह पता चल जाये कि रिया की गिरफ्तारी हो चुकी है तो कौन-सी आफत आ जायेगी।
सच्चाई यह है कि न्यूज चैनल खोलते ही हमें लगता है कि किसी थियेटर में आ गये हैं और एक ड्रामा देख रहे हैं। जो सच में ड्रामा देखने जाते हैं, वे पता नहीं क्या देखते होंगे।
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एक बर की बात है अक नत्थू फोन कान कै लगा कै हैल्लो-हैल्लो करता घर तैं बाहर लिकड़ण लाग्या तो पोली मैं बैठ्या उसका बाब्बू बोल्या-बेटा तेरा नेटवर्क तो ठीक है पर जिस टावर तै तूं कनेक्ट हो रह्या है, उसतै घर मैं नहीं बड़ण द्यूं।