पंजाब में राजनीतिक स्थिरता बहाल करने की फौरी ज़रूरत की खातिर वर्ष 1966 में इसका पुनर्गठन किया गया और हरियाणा का जन्म हुआ। ‘द ट्रिब्यून’ इस मील के पत्थर को याद करने और राज्यों की प्रगति को दिखाने के लिए एक साल भर चलने वाले धारावाहिक लेखों का सिलसिला शुरू कर रहा है।
वर्ष 1966 में पंजाब और हरियाणा के जन्म को याद करते हुए, मेरे विचार 1947 में हुए पंजाब के पहले विभाजन की ओर चले जाते हैं, जब भयानक सांप्रदायिक हिंसा, आगजनी, लूटपाट, बलात्कार और हत्याओं ने पूरे लाहौर को अपनी चपेट में ले लिया था, उस शहर में हमारा परिवार दशकों से बसा था। बंटवारे के बाद, हमें अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा और भारत की सरहद में पहुंचने से पहले अनगिनत खतरों का सामना करना पड़ा। हालांकि, मरने वालों की सही संख्या का पता नहीं है, लेकिन अनुमान है कि 20 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए और लगभग पांच गुना ज़्यादा बाशिंदे बेघर होकर शरणार्थी बन गए। नए देश को गंभीर समस्याएं निरंतर त्रस्त करती रहीं, सरकारी खजाना खाली था और पूर्वी पंजाब (बाद में पंजाब, भारत कहलाया) में अकाल जैसी स्थिति थी; सीमा पार करके आए लाखों-लाख लोगों के भोजन के लिए पर्याप्त अनाज नहीं था। अगले दो दशकों तक, पंजाब में एक के बाद एक बनी सरकारों ने, एक समर्पित नौकरशाही के मज़बूत समर्थन से, मानव इतिहास में शायद सबसे बड़े जबरन नागरिक पलायन के बाद पैदा हुई अनगिनत चुनौतियों का बखूबी सामना किया।
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रेडक्लिफ लाइन (जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा तय की) स्थापित होने से पहले, सिखों ने एक अलग होमलैंड की मांग उठाई। उनकी आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं। आज़ादी के बाद, शिरोमणि अकाली दल ने इस मांग को फिर से उठाने के लिए ज़ोरदार आंदोलन किया। यह देखते हुए कि भारत के अन्य राज्यों में पुनर्गठन भाषा के आधार पर किया गया था, पंजाबी भाषी राज्य की मांग कोई अपवाद नहीं थी। हालांकि, सिख समुदाय की राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ जुड़ने के बाद इसने कुछ अलग रंगत ले ली। राज्यों के भाषाई और प्रशासनिक आधार पर पुनर्गठन की जांच के लिए गठित राज्य पुनर्गठन आयोग (1953-55) ने पंजाब के विभाजन को विशुद्ध भाषा के आधार पर करने को खारिज कर दिया। इसने पंजाब को द्विभाषी (पंजाबी और हिंदी) राज्य बनाए रखने का समर्थन किया।
सिखों के राजनीतिक प्रभुत्व का विरोध करने की गर्ज से पंजाब हिंदू महासभा ने शिरोमणि अकाली दल की पंजाबी सूबे की मांग का पुरज़ोर विरोध किया और पंजाब को हिंदी-बहुल राज्य बनाए रखने के लिए आंदोलन किया।
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मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, जोकि एक सक्षम किंतु अपने अधिनायकवादी रवैये के लिए जाने जाते नेता थे, उन्होंने अपने कार्यकाल (1956-64) के दौरान शिरोमणि अकाली दल और हिंदू महासभा के आंदोलनों से प्रभावी ढंग से निबटा। दिल्ली में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू किसी भी ऐसे फैसले के खिलाफ थे जिसके परिणामस्वरूप हिंदू-सिख सांप्रदायिक तनाव बढ़ सकता हो। उक्त दोनों पक्षों के आंदोलन 1950 के दशक से लेकर 1960 के दशक तक चलते रहे, जब तक कि केंद्र सरकार भाषा के आधार पर पंजाब का फिर से गठन करने की मांग पर सहमत नहीं हो गई। साल 1966 में, पंजाब में 18 जिले थे, जिनमें से लगभग सात मुख्य रूप से हिंदी भाषी माने जाते थे: अंबाला, संगरूर, करनाल, गुड़गांव, रोहतक, हिसार और महेंद्रगढ़ के कुछ हिस्से। ऊपर बताए गए ग्रुप में, अंबाला (जो कि 1947 तक एक महत्वपूर्ण ब्रिटिश छावनी थी) और करनाल को अपेक्षाकृत ज़्यादा विकसित माना जाता था क्योंकि वे ऐतिहासिक ग्रैंड ट्रंक (जीटी) रोड पर स्थित थे। जबकि बाकी जिले तथाकथित भीतरी इलाकों में थे और ‘पिछड़े’ माने जाते थे। इन जिलों में नियुक्ति को सज़ा के तौर पर देखा जाता था, खासकर राजनीतिक रूप से जुड़े उन अधिकारियों के लिए जो सिर्फ अमृतसर, जालंधर और लुधियाना जैसे ‘मेन लाइन’ जिलों में ही काम करने के आदी थे, ये सभी जिले ऐन जीटी रोड पर स्थित थे। आम धारणा यह थी कि हरियाणा नामक पूरा इलाका ‘पिछड़ा’ है और इसे बाकी पंजाब से अलग करने से सिर्फ इसकी और उपेक्षा एवं गिरावट ही होगी।
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केंद्र सरकार ने कैरों के खिलाफ भ्रष्टाचार और अधिकार के दुरुपयोग के आरोपों की जांच के लिए जस्टिस एस.आर. दास आयोग बनाया था। इस आयोग की रिपोर्ट सामने आने के बाद, 1964 के मध्य में, उभरते राजनीतिक माहौल ने कैरों को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। जून 1964 में कैरों के जाने से राज्य प्रशासन के कामकाज पर असर पड़ा। एक और झटका तब लगा जब पाकिस्तान ने अगस्त 1965 में ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ शुरू कर दिया, जिसका मकसद जम्मू और कश्मीर में बड़ी संख्या में प्रशिक्षित आतंकवादियों को भेजना था ताकि वहां अराजकता और अव्यवस्था फैलाई जा सके और घाटी पर कब्जा किया जा सके।
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जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की नाकाम कोशिश एक बड़े पैमाने के युद्ध में बदल गई, जिसमें पंजाब युद्ध का मुख्य मैदान बन गया। पश्चिमी कमान की सेना ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी और पाकिस्तान को करारी हार दी। युद्ध का मुख्य मैदान होने के नाते, पंजाब इस संघर्ष से प्रभावित हुआ। 1965 की लड़ाई के बाद कुछ विवादों ने एक ऐसा राजनीतिक-सैन्य माहौल बनाया, जिसने मेरी याद्दाश्त में, पंजाब के पुनर्गठन को स्वीकार करने के केंद्र सरकार के फैसले को काफी हद तक प्रभावित किया।
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शिरोमणि अकाली दल और हिंदू महासभा के लंबे समय तक चले आंदोलनों और, बाद में, 1965 के युद्ध ने पंजाब में बेचैनी और अनिश्चितता का माहौल बना डाला था, जिसने प्रशासनिक व्यवस्था के कामकाज को भी प्रभावित किया था। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (जून 1964 - जनवरी 1966) और, बाद में, इंदिरा गांधी (1966-77 और 1980-84) दोनों ही पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य में राजनीतिक स्थिरता को तुरंत बहाल करने की ज़रूरत को लेकर गंभीर रूप से चिंतित थे; उन्होंने भाषाई आधार पर इसके पुनर्गठन की ज़रूरत को स्वीकार किया। केंद्र सरकार का रुख तब साफ हो गया जब उसने मार्च 1966 में नए राज्यों की सीमाओं को तय करने और अन्य ज़रूरी सिफारिशें करने के लिए जस्टिस जे.सी. शाह कमीशन नियुक्त किया। शाह कमीशन की रिपोर्ट (मई 1966) ने सितंबर 1966 में पंजाब पुनर्गठन अधिनियम पारित होने का रास्ता साफ कर दिया।
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इस अधिनियम के पारित होने के बाद, सभी आईएएस, आईपीएस और अन्य सेवाओं के अधिकारियों से उस कैडर की अपनी प्राथमिकता वाली पसंद बताने के लिए कहा गया जिनमें वे नियुक्त होना चाहते थे: पंजाब, हरियाणा या हिमाचल प्रदेश। यह काम जल्दी पूरा हो गया। यह पक्का करने के लिए कि पुनर्गठन से जुड़े सभी मामले कुशलता, पारदर्शिता और निष्पक्षता से तय हों, जुलाई 1966 की शुरुआत में राज्य में यूनिटरी (एकात्मक) शासन लागू किया गया और पूर्व कैबिनेट सचिव और जाने-माने आईसीएस अधिकारी धर्म वीरा को पंजाब और हरियाणा का गवर्नर नियुक्त किया गया।
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पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के मुख्य प्रावधानों में शामिल थे: पंजाब (11 ज़िले, मुख्य रूप से पंजाबी बोलने वाले) और हरियाणा(सात ज़िले, मुख्य रूप से हिंदी बोलने वाले) नामक राज्यों का गठन; चार पहाड़ी ज़िलों और तीन अन्य ज़िलों के कुछ हिस्सों को मिलाकर हिमाचल प्रदेश (तब एक केंद्र शासित प्रदेश)बनाना;चंडीगढ़ को पंजाब से अलग करके एक केंद्र सरकार शासित प्रदेश रखना, जो पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी के रूप में काम करेगा; सभी संपत्ति, राज्य की जमीन-जायदाद, देनदारियां और कर्ज़ 60:40 के अनुपात में बांटे जाएंगे; सिविल और पुलिस अधिकारियों को स्थानीयता (डोमिसाइल) और भाषा में दक्षता के आधार पर तीनों कैडर में बांटा जाएगा; विधायी सीटों के साथ-साथ संसद में प्रतिनिधित्व भी बांटा जाएगा; पंजाब हाईकोर्ट का नाम बदलकर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट कर दिया गया, जो दोनों नए राज्यों और चंडीगढ़ (केंद्र शासित प्रदेश) के लिए काम करेगा; पंजाब यूनिवर्सिटी केंद्रीय व्यवस्था के तहत काम करती रहेगी; नदी जल, पावर बोर्ड आदि से संबंधित मामले अंतर-राज्यीय निकायों द्वारा संचालित किए जाएंगे; हर राज्य का अपना गवर्नर होगा।
दोनों नए राज्यों के बनने से पहले, 1 नवंबर 1966 को, ज़िला स्तर और उससे ऊपर के अधिकारी, जैसे कि मुख्य सचिव और पुलिस महानिरीक्षक के पदों पर नियुक्तियों की घोषणा काफी पहले कर दी गई थी। जाने-माने पंजाबी लेखक और कांग्रेसी नेता ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर और कांग्रेस पार्टी के ही पंडित भगवत दयाल शर्मा को क्रमशः पंजाब और हरियाणा के नए राज्यों का पहला मुख्यमंत्री चुना गया।
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जैसा कि पहले बताया गया है, एक सोच यह भी थी कि पंजाब के ‘पिछड़े’ ज़िलों को मिलाकर और हरियाणा नाम का एक छोटा सा हिंदी भाषी राज्य बनाना आर्थिक और प्रशासनिक रूप से असफल साबित होगा। ये भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। अपने गठन के बाद से, पिछले लगभग छह दशकों में, हरियाणा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है और कई क्षेत्रों में पंजाब से आगे निकल गया है। 1970 के दशक की शुरुआत तक पंजाब की आर्थिक वृद्धि और समग्र विकास बहुत प्रभावशाली था। उसके बाद के समय में इसमें काफी गिरावट देखी गई, खासकर उस तेज़ गति के मद्देनज़र जिससे पंजाब पहले आगे बढ़ रहा था। 2023-24 में, पंजाब की प्रति व्यक्ति आय (राष्ट्रीय औसत के प्रतिशत के आधार पर) 106.7 फीसदी थी, जबकि हरियाणा की 178.8 फीसदी थी। उसी साल, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पंजाब का हिस्सा 2.4 प्रतिशत था, जबकि हरियाणा का 3.6 फीसदी था।
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भारत की आबादी बहुत बड़ी है और अभी भी बढ़ रही है। हमारे कई बहु-धार्मिक और बहु-भाषी समुदायों की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं में बहुत भिन्नता है और वे दूर-दराज और बहुत अलग-अलग भौगोलिक इलाकों में रहते हैं। आज़ादी के बाद के दशकों में, हमने कई मोर्चों पर काबिलेतारीफ तरक्की की है, लेकिन गरीबी और असमानता को खत्म करने की चुनौती अभी भी कायम है। जैसे कि हम तमाम गौरवशाली पहलुओं वाला देश बनने और एक मज़बूत आर्थिक एवं सैन्य शक्ति बनने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी होगा कि पूरे देश में सांप्रदायिक सद्भाव, शांति और सामान्य स्थिति बनी रहे, यह कभी न भूलें कि अव्यवस्था और अशांति के बीच विकास नहीं हो सकता।
हमारे दूर-दराज के लोगों की सच्ची आकांक्षाओं को हमेशा सहानुभूति और संजीदा समझदारी से देखना चाहिए और उन्हें कभी भी महज राजनीतिक कारणों से रोकना या खारिज नहीं करना चाहिए। कोई भी असंवेदनशील रवैया केवल टकराव और संघर्ष पैदा करेगा, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचा सकता है। जैसा कि पिछले अनुभवों ने नियमित रूप से दर्शाया है, जब भी लोगों की सही मांगों को मानने में देरी या चूक हुई है, तो इसके नतीजे में हमारे संघीय लोकतंत्र की नींव को नुकसान पहुंचा है।
लेख का अंत मैं फ्रांसिस बेकन की सूक्ति याद दिलाते हुए करना चाहूंगा : ‘जो नए उपाय लागू नहीं करता, उसे नई बुराइयों का सामना करने की उम्मीद करनी चाहिए।’
पंजाबी सूबे की मांग सिख समुदाय की राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ मिल गई।
फोटो साभार : पंजाब डिजिटल लाइब्रेरी

