लंबे अरसेे बाद अब फिर अमेरिका की नीति पाकिस्तान के पक्ष में बदली है। राष्ट्रपति ट्रंप ने बीते हफ़्ते पाक के साथ समझौता करके और भारत पर ‘मृत अर्थव्यवस्था’ का तंज कसकर दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन का बिंदु बदलने की कोशिश है। इससे भारत की रूस से नजदीकी और बढ़ेगी। वहीं ऑपरेशन सिंदूर प्रकरण में भारतीय रुख भी इस बदलाव में एक कारक है।
इस मानसून की एक सुबह को, डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पाकिस्तान के साथ तेल समझौता किए जाने की घोषणा किए जाने के बाद, इसका अहसास 1999 में कारगिल में पाकिस्तान पर भारत की जीत के बाद की सुबहों जैसा रहा– शांति बनने का किंतु लगभग अवास्तविक। सिवाय इसके कि इस बार मामला उलट है। तब जुलाई 1999 में, अटल बिहारी वाजपेयी ने बिल क्लिंटन से दृढ़ता से कह दिया था कि वे नवाज़ शरीफ़ तक बात पहुंचा दें - जिनसे क्लिंटन की मुलाकात वाशिंगटन डीसी में कारगिल युद्ध को खत्म के प्रयास में होने जा रही थी - कि भारत समझौता तभी करेगा जब आखिरी पाकिस्तानी सैनिक उस नियंत्रण रेखा पार कर वापसी करेगा, जिससे होकर उसने कश्मीर में घुसपैठ की थी। नवाज़ शरीफ़ के पास राजी होने के अलावा कोई चारा नहीं था। और कारगिल संघर्ष समाप्त हो गया। और एक साल बाद, जब क्लिंटन भारत की पांच दिवसीय यात्रा पर आए, जयपुर में उनपर बरसाई गई गुलाब की पंखुड़ियों से सराबोर हो गए, लौटते वक्त वे पांच घंटे पाकिस्तान में रुके।
बीते सप्ताह, भारत ने अमेरिका की नीतियों में बदलाव से पाकिस्तान की तरफ बनते झुकाव की समीक्षा की – बदलाव जो इतना नाटकीय है कि अगर पहले से इसका अनुमान न होता तो भारतीय प्रतिष्ठानों में, वाशिंगटन डीसी से लेकर नई दिल्ली तक, किसी की नौकरी जाने की नौबत बन जाती – इसके तहत, पाकिस्तान अक्तूबर में अमेरिका के साथ फिर से मजबूत हुई दोस्ती को दस लाख बैरल तेल आयात करके रेखांकित करेगा।
1989 के बाद से पहली बार - जब आखिरी सोवियत सैनिक ने अफगानिस्तान से वतन वापसी की थी और उसके तुरंत बाद, काबुल से नास्तिक कम्युनिस्टों को खदेड़ने की जीत से उत्साहित हुए अमेरिकियों ने पाकिस्तानी सेना को हथियार और डॉलरों की बहती धारा रोक दी थी - अमेरिकी अब फिर से पाकिस्तान पर मेहरबान हो रहे हैं। यह अंतहीन बड़े खेल में पासा एक बार फिर पलटने जैसा है, लेकिन इस बार भारत को नुकसान होना तय है।
सनद रहे कि पाकिस्तान चीन का सहयोगी है। यह भी याद रखें कि ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत चीन पर बेतहाशा टैरिफ लगाकर की थी क्योंकि उन्हें अहसास है कि चीन ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पैरों तले से जमीन सरका दी है व चीन की बजाय अमेरिका में वापस उत्पादन करना ‘अमेरिका को पुनः महान बनाने’ के सकंल्प के लिए अहम है।
लेकिन ट्रंप ने बीते हफ़्ते पाकिस्तान के साथ समझौता करके और भारत पर ‘मृत अर्थव्यवस्था’ का तंज कसकर दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन का बिंदु बदल दिया है। शायद वाशिंगटन डीसी की गर्मी या तो मार-ए-लागो में उनके द्वारा खाए किसी व्यंजन का असर है कि वे भूल गए कि महज पांच साल पहले, ह्यूस्टन में मोदी ने ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा लगाया था, जिससे ट्रंप को अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों की बहुमूल्य वोटें मिली होंगी।
ट्रंप के सत्ता के खेल से अंतर्राष्ट्रीय बिसात का स्वरूप निश्चित तौर पर बिगड़ जाएगा। यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि पिछली सदी के शीत युद्ध के पुराने दोस्त 21वीं सदी के इसके नए प्रारूप के इर्द-गिर्द फिर एकजुट होने लगे हैं। परस्पर वार्ताएं जारी हैं, खासकर क्वाड बैठकों में – जिसका शिखर सम्मेलन नवंबर में दिल्ली में होगा यानि ट्रंप का आना तय है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा मोदी को रूस के पक्ष में धकेलने (‘भारत व रूस की मृत अर्थव्यवस्थाएं’ ) के बाद, उनके पास व्लादिमीर पुतिन के साथ प्रगाढ़ता बनाने के सिवा शायद ही कोई विकल्प हो।
दोस्ती और विदेश नीति बराबर की हैसियत वालों के बीच निभती है। यही कारण है कि भारत और अमेरिका के बीच असामान्य गलबहियां, केवल दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्रों के बीच ही नहीं थी, या इसलिए भी नहीं कि भारतीय मूल के अमेरिकी तरक्की करते हुए अमेरिका के सबसे प्रभावशाली समूहों में एक बन गए बल्कि यह मित्रता इसलिए भी थी कि आर्थिक असमानता के बावजूद, दोनों परस्पर समकक्षों जैसा व्यवहार करने से डरते नहीं थे।
भले ही आइज़नहावर में इसकी समझ नहीं रही लेकिन रुज़वेल्ट को भारत की विशिष्टता का भान था। कैनेडी इसे बखूबी समझते थे - उनके मित्र और भारत में तत्कालीन राजदूत, जॉन केनेथ गैलब्रेथ की एक तसवीर चंडीगढ़ के गवर्नमेंट म्यूजियम की ऊपरी मंज़िल पर स्थित छोटे से पुस्तकालय में, उस स्तंभ के दूसरी ओर टंगी है, जिस पर एमएस रंधावा की तसवीर टंगी है – हालांकि विदेश मंत्री किसिंजर नहीं समझते थे। और 1971 में, जब किसिंजर ने पाकिस्तान के प्रति झुकाव रखने का बचाव खुलेआम किया और 1971 में पश्चिम बंगाल में एक करोड़ बांग्लादेशियों के पलायन की आलोचना की थी, तब पूर्व शीर्ष रक्षा विश्लेषक के. सुब्रह्मण्यम उन्हें फटकार लगाने से डरे नहीं? (हालांकि 1998 के परमाणु परीक्षणों के परिप्रेक्ष्य में, जब माहौल कुछ ठंडा पड़ा, तो अमेरिका में भारतीय राजदूत नरेश चंद्रा व किसिंजर दोस्त बन गए।)
इसका उल्टा भी सच था। वाजपेयी को अमेरिका की महत्ता का भान था - हालांकि भारत द्वारा 1998 के परमाणु परीक्षणों पर अमेरिकी गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था फिर भी वे दोनों देशों को ‘नैसर्गिक सहयोगी’ बताते थे। फिर जब मनमोहन सिंह ने जॉर्ज बुश से कहा- ‘भारत आपसे प्यार करता है’- तो अमेरिका ने 2008 के परमाणु समझौते के बाद भारत को अनाधिकारिक रूप से परमाणु राष्ट्रों के विशिष्ट क्लब में शामिल कर लिया। पीएम मोदी ने भी, 2020 में ‘अब की बार, ट्रंप सरकार’ वाली जुगत के साथ समझ लिया था कि व्हाइट हाउस पहुंचने की राह गुणगान है। इसलिए, यह समझ से परे है कि विदेशमंत्री एस. जयशंकर ऑपरेशन सिंदूर विवाद समाप्त करने का श्रेय ट्रंप को न देने पर क्यों अड़े हैं, जबकि ट्रंप न्यूनतम 15 बार ऐसा दावा कर चुके हैं। (इसके उलट घाघ पाकिस्तानियों ने उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार हेतु नामांकित कर दिया ।)
भारत-पाकिस्तान मामलों में तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को भारत सदा अस्वीकार करता आया है और 1972 के शिमला समझौते की द्विपक्षीय राह सर्वोपरि मानता है। लेकिन तब क्या ,जब भारत पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह के संवाद से इनकार कर दे।
9-10 मई की रात, माना जाता है, जब पीएम मोदी ने अचानक 11 पाकिस्तानी ठिकानों पर बमबारी का आदेश दे दिया। भारतीय वायुसेना की कार्रवाई ने पाकिस्तानियों को हिलाकर रख दिया। उन्होंने अमेरिकियों को और अमेरिकियों ने जयशंकर को फोन किया। जयशंकर ने कहा- ‘पाकिस्तानियों से कहो कि वे सीधे हमसे यह कहें’। फिर 10 मई को पाकिस्तानी डीजीएमओ ने भारतीय समकक्ष को फोन किया और दोनों पक्ष टकराव रोकने पर सहमत हुए। लेकिन उसके बाद जब भारत ने कहा कि पहलगाम हमले के लिए सिर्फ़ पाकिस्तानी आतंकवादी समूह रेजिस्टेंस फ्रंट ही ज़िम्मेदार नहीं, बल्कि ‘पाकिस्तान’ भी उत्तरदायी है – जबकि उस वक्त ट्रंप पाकिस्तान के फील्ड मार्शल असीम मुनीर को हलाल लंच देने के लिए व्हाइट हाउस में अगवानी की तैयारियां कर रहे थे। अमेरिकी इसे हल्के में नहीं लेने वाले थे।
उसके बाद से अमेरिका ने अपने वक्तव्यों में ‘सीमा पारीय आतंकवाद’ की निंदा करने और यहां तक कि टीआरएफ को एक आतंकवादी समूह बताकर, एक बहुत सूक्ष्म, किंतु स्पष्ट, बदलाव लाया - लेकिन पाकिस्तान को कभी भी पहलगाम का प्रत्यक्ष मास्टरमाइंड नहीं बताया। शेष अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने भी यही किया है।
पिछले सप्ताह बड़ा परिवर्तन आया। भारतीय नेतृत्व उम्मीद कर रहा है कि भारत-अमेरिका संबंध जल्द स्थिर हो जाएं, लेकिन यह सफर लंबा होगा। आत्म-निरीक्षण करना हो, तो मोदी सरकार को खुद से यह सवाल ज़रूर पूछे कि कूटनीति में पाकिस्तान ने भारत को कैसे पछाड़ा- जबकि वह एक आतंकवाद ग्रस्त देश है, उसकी अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है, एक पूर्व प्रधानमंत्री जेल में है और मौजूदा प्रधानमंत्री अपनी ही सेना से बेहद डरे हुए हैं। शायद इन मानसूनी सुबहों में इस ईमानदार सवाल का कुछ जवाब मिल जाए।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।