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ट्रंप की तल्खी से उपजा वैश्विक असंतुलन

द ग्रेट गेम
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ने भारत से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर बेहद भारी टैरिफ लगाया है। जिससे भारत को बड़ा आर्थिक नुकसान होना तय है। जहां बाकी देश अमेरिका से व्यापार समझौते कर रहे हैं वहीं भारत ने कुछ शर्तें मानने से इनकार किया है, खासकर वे जो भारतीय हितों के प्रतिकूल हैं। बतौर विकल्प भारत अब रूस-चीन से रिश्ते प्रगाढ़ कर रहा है। लेकिन बेहतर नीति है कि भारत खुद को आत्मनिर्भर व मजबूत ताकत बनाए।

डोनाॅल्ड ट्रंप के लिए पिछला हफ़्ता काफ़ी व्यस्त रहा। उन्होंने भारत के समक्ष टैरिफ़ रूपी विकट चुनौती बना डाली है, पहले लगाए गए 25 फीसदी टैरिफ़ को बढ़ाकर दोगुणा यानि 50 प्रतिशत कर दिया। साथ ही उन्होंने भारत के साथ तमाम व्यापार वार्ताएं रद्द कर दी हैं। उन्होंने भारत को यह धमकी भी दी है कि यदि वह रूस से सस्ता तेल ख़रीदना जारी रखेगा, तो और कई प्रतिबंध लगाए जाएंगे। उन्होंने अमेरिका से कई भूटानी प्रवासियों को वापस भेजने का आदेश भी जारी किया है। उन्होंने एक बॉन्ड पेश किया है जिसके तहत कुछ श्रेणी के पर्यटकों को अमेरिकी वीज़ा पाने के लिए 5,000 से 15,000 डॉलर भरने होंगे। अमेरिकी कॉलेजों को उनका नया आदेश है कि वे दाखिले के इच्छुक आवेदकों के टेस्ट प्वाइंट औसत के अलावा नस्ल और लिंग संबंधी आंकड़े एकत्र करें।

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आप पूछ सकते हैः ‘ अमेरिकी राष्ट्रपति को इतना गुस्सा क्यों आता है’? वह हर समय गुस्से में क्यों रहते हैं? हेप्पीनेस गुरु दीपक चोपड़ा इसका कारण ट्रंप की प्यार पाने की चाहत, यहां तक कि प्रशंसा की निरंतर और बेइंतहा भूख बताते हैं। हो सकता है कि वे सही हों। ट्रंप के आत्ममुग्धता भरे व्यवहार ने न केवल दुनिया को उलट-पुलट करके रख दिया, बल्कि ऐसा नाटकीय असर हुआ कि अमेरिका के साथ समझौते करने को देश कतारबद्ध खड़े हैं।

सिर्फ़ एक भारत ही अलग किस्म की प्रतिक्रिया दे रहा है। मोदी ने कहा है कि वे भारत के किसानों के हितों से समझौता नहीं करेंगे और अमेरिका के सामने खड़े होने की कीमत चुकाने को तैयार हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल आनन-फानन में कुछ दिन पहले मास्को पहुंचे, व्लादिमीर पुतिन को क्रेमलिन स्थित उनके आवास से बाहर लाकर हाथ में हाथ डाले दिखे और उनसे दिल्ली शीघ्र आने का सार्वजनिक वादा लिया। प्रधानमंत्री भी जल्द ही शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के लिए चीन का दौरा करेंगे।

ऐसा लगता है कि पिछले एक हफ़्ते में प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भरता, गुटनिरपेक्षता - इसे आप जो भी कहें - का मतलब पूरी तरह समझ लिया है। यह विचार कि बाहरी दुनिया के साथ व्यवहार करते समय भारत अपनी खींची लक्ष्मण रेखा के भीतर रहेगा।

अगले कुछ महीने दिलचस्प होने वाले हैं। क्वाड शिखर सम्मेलन नवंबर में होने की उम्मीद है अर्थात ट्रंप की भारत आने की बारी है। रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय वार्ता भी हो सकती है, जिसे भारत कुछ समय से टालता आया है क्योंकि वह अमेरिकियों को अनावश्यक रूप से नाराज़ नहीं करना चाहता था। मुख्य प्रश्न उठता है कि क्या एक नए शीत युद्ध की आशंका है। साथ ही, पिछले हफ़्ते विदेश नीति में ‘हाथ जलने’ से भारत ने कौन-सा बड़ा सबक सीखा है?

पिछले एक दशक से, मोदी अमेरिकियों को लगातार डोरे डालने में लगे हुए थे। जाहिर है, इसमें कुछ भी ग़लत नहीं - आधा पंजाब, जो पहले से ही अमेरिका-कनाडा जा बसा है, अमेरिका की अपार शक्ति को बखूबी समझता है, और उनकी भांति देश के बाकी हिस्सों से गए लोगों का एक बड़ा तबका भी, वह जिसे अभी भी ग्रीन कार्ड का बेसब्री से इंतजार है। यह बात भारतीय अभिजात्य वर्ग के लिए भी उतनी ही सच है जितनी उन अपेक्षाकृत कम भाग्यशाली लोगों के लिए, जो अपनी संतान को बेहद समृद्धि और बेहतरीन जीवन की उम्मीद से भरपूर देशों में भेजने को अपनी संपत्ति तक बेच देते हैं।

लेकिन मोदी इससे भी कई कदम आगे बढ़ गए, निस्संदेह इस विश्वास के साथ कि किसी शक्तिशाली राष्ट्र के साथ जुड़े रहने पर, उस गठबंधन के लाभ मिलेंगे - ठीक वैसे ही जैसा कि जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किया था। सवाल पैदा होता है कि क्या भारत एक छोटे से मुल्क जापान - एक महान और अद्भुत देश - जैसा बनना चाहता है या खुद एक विलक्षण, सभ्यतागत शक्ति बनना चाहेगा। अमेरिका के साथ मौजूदा विवाद इस प्रश्न का उत्तर देने का एक अच्छा वक्त है।

दरअसल, हाल के वर्षों में भारत की विदेश नीति ज़्यादा ही संश्ाय में नज़र आई है। अमेरिका की तरफ असाधारण ध्यान उसी समय बना जब चीनी सैनिकों ने कोविड-19 के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पार कर ली - जिसने पीएम मोदी और भारत दोनों को हैरान-परेशान कर दिया। इससे चीन-भारत संबंधों में भारी गिरावट आई। चार साल बाद, भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के बीच बहुत बड़े अंतर ने पुनर्विचार करने पर मजबूर किया - भारत सस्ती चीनी वस्तुओं पर अत्यधिक निर्भर है और व्यापार में कमी नुकसानदेह सिद्ध हो रही थी। इसलिए जब मोदी पिछले साल ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए कज़ान गए, तो रूस ने एक समझौता कराया, जिसमें मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात हुई। इस महीने के अंत में, प्रधानमंत्री शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन के लिए तियानजिन जाएंगे, वहां शी जिनपिंग दुबारा भेंट होगी।

अब इतिहास का यह संक्षिप्त पाठ तभी उपयोगी हो पाएगा यदि जब आप निम्नलिखित परिप्रेक्ष्य का अनुसरण करें। वह यह कि, भारत जहां एक ओर चीन के साथ तो अच्छा व्यवहार बनाकर रखना चाहता है लेकिन ठीक उसी समय पाकिस्तान से बात तक करने से इनकार करता है। यहां यह दोहराना मौजूं है कि चीन-पाकिस्तान के घनिष्ठ संबंध हालिया ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी साफ दिखाई दिए, जब भारतीय विमानों पर हमला करने में चीनी मिसाइलें पाकिस्तान की मददगार बनीं - यह किसी और ने नहीं बल्कि खुद सीडीएस अनिल चौहान ने हाल ही में स्वीकार किया है।

तो अगर चीन-पाकिस्तान के बीच संरक्षक-ग्राहक संबंध का विस्तार काराकोरम से लेकर कराची तक है, तब रावलपिंडी सेना मुख्यालय से देश के राजकाज पर हावी फौजी जनरलों से बातचीत करने में मोदी के इनकार का क्या लाभ? इतना ही नहीं, ट्रंप ने हाल ही में पाकिस्तान के फील्ड मार्शल असीम मुनीर को व्हाइट हाउस में मुलाकात करने को एक बार फिर से आमंत्रित किया है- जो भारत के ज़ख्मों पर नमक रगड़ने जैसा है।

पिछले हफ़्ते दूसरा सवाल यह है। क्या इस सारे वैश्विक पुनर्संतुलन का मतलब यह होना चाहिए कि भारत को व्लादिमीर पुतिन के पक्ष की ओर फिर से लौट जाना चाहिए, शीत युद्ध के दौर की तरह, जब हिंदी-रूसी भाई-भाई थे? लेकिन यहां पेंच यह है कि अगर मोदी ऐसा करेंगे, तो उन्हें वहां पहले से उपस्थित शी जिनपिंग मिल जाएंगे – क्योंकि शी और व्लादिमीर निकट सहयोगी हैं, जो एक-दूसरे को बेहतर समझते हैं। सनद रहे, बतौर कम्युनिस्ट दोनों की विचारधारा समान है। इसीलिए आत्मनिर्भरता बहुत ज़रूरी है। नेहरू से लेकर वाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों की तरह मोदी को भी भान है कि अगर भारत चाहता है कि उसे गंभीरता से लिया जाए, तो उसे एक मज़बूत व स्वतंत्र ध्रुव बनना होगा। लेकिन ऐसा किया कैसे जाए जब बड़ी ताकतें खुद सरेआम कलाबाजियां खा रही हैं और कमज़ोर देशों का ताना-बाना हवा के थपेड़ों से बुरी तरह हिल रहा हो? चाणक्य और कन्फ्यूशियस के देशों का मिलन बनाना ज़रूरी है ताकि आप अपनी परिस्थिति के अनुसार उनकी कहावतों में खुद को ढाल सकें यानि ‘पत्थर छूकर पानी पार करो (कन्फ्यूशियस)’ और ‘साम, दाम, दंड, भेद(चाणक्य)’ या माओ के कथनानुसारः ‘बिल्ली काली है या सफ़ेद, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब तक वह चूहों को पकड़ने लायक है)। आर्थिक सुधारों ने कभी हिंदू विकास दर को अन्य गति दी थी और हमें अपने जीवनकाल में अभूतपूर्व दर से विकास करने में मदद की थी - उन्होंने भारत को उसकी विशिष्ट आत्मा प्रदान की। एक बार फिर, धर्म, जाति, वर्ग, पंथ, रंगों के आधार पर हमें बांटने और शासन करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। प्रधानमंत्री मोदी को उस मध्य मार्ग पर वापस लौटना होगा जहां सभी नावें एक साथ उठती हैं। यही उनकी और भारत की ताकत है - एक ऐसी ताकत जो सब कुछ है।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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