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चीन के दुर्लभ खनिज ब्रह्मास्त्र से बेचैन ट्रंप

चीन यदि चाहे तो परिष्कृत दुर्लभ खनिजों का निर्यात बंद करके अमेरिका, यूरोप, जापान और भारत समेत पूरी दुनिया के सूचना प्रौद्योगिकी, रक्षा, स्वच्छ ऊर्जा, चिकित्सा और कार उद्योगों को घुटनों पर ला सकता है। परंतु वह जानता है इससे...

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चीन यदि चाहे तो परिष्कृत दुर्लभ खनिजों का निर्यात बंद करके अमेरिका, यूरोप, जापान और भारत समेत पूरी दुनिया के सूचना प्रौद्योगिकी, रक्षा, स्वच्छ ऊर्जा, चिकित्सा और कार उद्योगों को घुटनों पर ला सकता है। परंतु वह जानता है इससे नुक़सान उसका भी होगा क्योंकि उसे अपना माल बेचने के लिए इन मंडियों की ज़रूरत है।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप हर छोटे-बड़े देश को अपने टैरिफ़ फ़रमानों से झुकाने या निरुत्तर करने में कामयाब रहे हैं। लेकिन चीन उनकी हर ईंट का जवाब पत्थर से दे रहा है, जिससे हर बार ट्रंप को पीछे हटना पड़ रहा है। ट्रंप इस मुग़ालते में थे कि विश्व की सबसे बड़ी और अमीर अमेरिकी मंडी और सबसे उन्नत तकनीक व्यापार युद्ध में अमोघ अस्त्र का काम करेंगे। लेकिन चीन ने मुक़ाबले के लिए एक ऐसा अस्त्र तैयार कर रखा था जो ब्रह्मास्त्र साबित हुआ। रेयर और क्रिटिकल अर्थ यानी दुर्लभ और अत्यावश्यक खनिजों का अस्त्र, जिसकी इन दिनों पूरे विश्व में चर्चा है। क्या हैं दुर्लभ और अत्यावश्यक खनिज? आजकल क्यों इतनी चर्चा में हैं और इन पर चीन के एकाधिकार की कहानी क्या है?

दुर्लभ और अत्यावश्यक खनिज कम मात्रा में मौजूद होने के कारण दुर्लभ नहीं कहलाते। इनकी मात्रा तो प्रचुर है लेकिन पूरी धरती पर इतने कम घनत्व के साथ फैली हुई है कि इन्हें वाजिब लागत पर निकाल पाना संभव नहीं है। बहुत कम जगहें ऐसी हैं जहां इनका घनत्व खुदाई के लायक मिलता है। ये पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाले लावे के साथ सतह पर आते हैं। इसलिए लावे से बनी चट्टानों की सतह पर या उनकी गहराई में मिलते हैं। दूसरी बड़ी समस्या इनकी रेडियोधर्मिता है जो होती तो बहुत कम मात्रा में है लेकिन उसके होने के कारण इनकी खुदाई और शोधन से निकलने वाले मलबे को रिहायशी और कृषि इलाकों से दूर बरसों दबाकर रखना ज़रूरी हो जाता है। बहुत कम जगहों पर पर्याप्त घनत्व के साथ मिलने, शोधन की प्रक्रिया जटिल और ख़र्चीली होने और पर्यावरण पर बुरा असर डालने के कारण ही इन्हें दुर्लभ कहा जाता है।

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लगभग समान रासायनिक संरचना वाले 17 दुर्लभ खनिजों को उनके अणुभार के हिसाब से हल्के और भारी की दो श्रेणियों में बांटा जाता है। कम अणुभार वाले हल्के दुर्लभ खनिजों में नियोडीमियम और प्रैस्योडीमियम की मांग सर्वाधिक है। नियोडीमियम के बिना आपके स्मार्टफ़ोन, बिजली की कारें, लेज़र चिकित्सा उपकरण और एमआरआई स्कैनर नहीं बनाए जा सकते। प्रैस्योडीमियमका प्रयोग विमान इंजन, लक्ष्यभेदी मिसाइल, राडार और ड्रोन जैसे रक्षा सामान में होता है। अधिक अणुभार वाले या भारी दुर्लभ खनिजों में डिस्प्रोज़ियम, इट्रियम और टर्बियम की मांग सबसे अधिक है। डिस्प्रोज़ियम का प्रयोग उन्नत तकनीक और स्वच्छ ऊर्जा की मशीनों में लगने वाले चुंबकों में किया जाता है। इसका ऑक्साइड परमाणु रियेक्टरों को ठंडा रखने के काम आता है। टर्बियम का प्रयोग टीवी स्क्रीन और सॉलिड स्टेट डेटा भंडार बनाने में किया जाता है। इरीट्रियम का प्रयोग भी टीवी स्क्रीनों से लेकर मिश्र धातु तैयार करने जैसे कामों में किया जाता है।

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दुर्लभ खनिजों से ही कोबाल्ट, लिथियम, निकल और ग्रेफ़ाइट जैसे अत्यावश्यक श्रेणी के खनिज भी जुड़े हैं जिनके बिना बैटरियां, ऊर्जा भंडार, सौर पैनल, पवन चक्कियां और पनबिजली संयंत्र नहीं बनाए जा सकते। कुल मिलाकर दुर्लभ और अत्यावश्यक खनिजों के बिना स्मार्टफ़ोनों और लैपटॉप से लेकर एआई डेटा केंद्र, बिजली के वाहन, स्वच्छ ऊर्जा और चिकित्सा की आधुनिक मशीनें, लड़ाकू विमान, मिसाइलें, राडार और उपग्रह जैसी कोई भी आधुनिक चीज़ नहीं बन सकती।

दुर्लभ खनिजों के सर्वाधिक भंडार चीन में हैं जहां वे खुदाई के लायक घनत्व में मिलते हैं। उसके बाद ब्राजील, रूस, भारत और ऑस्ट्रेलिया का नंबर आता है। भारत के पास इन खनिजों का अमेरिका और ग्रीनलैंड से लगभग चार गुना भंडार है। लेकिन बड़े भंडार होने से अधिक महत्वपूर्ण है इनकी खुदाई और शोधन की साफ़ और किफ़ायती तकनीक का होना। उससे भी बड़ी बात है इन सब का ऐसी जगह होना जहां खनन और शोधन से लोगों और पर्यावरण पर बुरा असर न पड़े। अमेरिका ने चीन के पच्चीसवें हिस्से से भी कम भंडार होने के बावजूद अपनी दक्षिणी केलीफ़ोर्निया के माउंटेन पास रेगिस्तानी दर्रे की खदान केबल पर आधी सदी तक दुर्लभ खनिजों के बाज़ार पर एकाधिकार रखा। खदान के पूर्व प्रमुख मार्क स्मिथ के अनुसार चीनी खदान उद्यमियों ने इस खान का निरीक्षण करने के लिये 60 के दशक से आना शुरू किया था। फिर 1992 में, जिन दिनों भारत के नेता मंडल और मस्जिद की राजनीति में उलझे थे, चीनी आर्थिक सुधारों के प्रणेता डंग शियाओ पिंग ने इनर मंगोलिया प्रांत की बायन ओबो खदान का निरीक्षण करते हुए कहा था, ‘पश्चिम एशिया के पास तेल है तो चीन के पास दुर्लभ खनिज हैं।’

चैयरमैन डंग की दूरदर्शिता और चीनी उद्यमिता के चलते कुछ ही वर्षों के भीतर पूरे चीन में दुर्लभ खनिजों के शोधन कारखानों का जाल सा बिछ गया। कम लागत में खनिज शोधन करके बेचने की गलाकाट प्रतियोगिता ने चीन के दुर्लभ खनिज निर्यातकों को इतना कुशल बना दिया कि अमेरिका की आधी सदी पुरानी खदानें और शोधन कारखाने उनके सामने टिक न सके और ठप हो गए। एक दशक बाद चीन को भी खनिज शोधन से फैलते प्रदूषण और खनिजों की तस्करी को रोकने के लिए छोटे-छोटे शोधन कारखानों को छह बड़े कारोबारों में संगठित करना पड़ा जिन पर सरकार पूरा नियंत्रण रख सके। आज हालत यह है कि विश्व के कच्चे दुर्लभ खनिज उत्पादन में तो चीन की हिस्सेदारी केवल 70 प्रतिशत ही है। पर उसके शोधन में उसकी हिस्सेदारी 90 प्रतिशत से भी ऊपर है।

चीन यदि चाहे तो परिष्कृत दुर्लभ खनिजों का निर्यात बंद करके अमेरिका, यूरोप, जापान और भारत समेत पूरी दुनिया के सूचना प्रौद्योगिकी, रक्षा, स्वच्छ ऊर्जा, चिकित्सा और कार उद्योगों को घुटनों पर ला सकता है। परंतु वह जानता है इससे नुक़सान उसका भी होगा क्योंकि उसे अपना माल बेचने के लिए इन मंडियों की ज़रूरत है। वैसे भी शी जिनपिंग ट्रंप की तरह तैश में काम नहीं करते। इसलिए उन्होंने अमेरिका की ही तर्ज़ पर यह शर्त लगाई कि हर विदेशी कंपनी को चीनी दुर्लभ खनिजों वाले हर सामान को बेचने से पहले चीन से अनुमति लेनी होगी और यह नियम पहली दिसंबर से लागू हो जाएगा। अमेरिका से उन्नत तकनीक का सामान ख़रीदने वाली कंपनियों को भी उससे बना सामान बेचने से पहले अमेरिका से अनुमति लेनी पड़ती है। चीन का दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर शर्तें लगाना उसी का जवाब है। सितंबर 2010 में जापान के साथ हुए समुद्री सीमा-विवाद में चीन ने दो महीने के लिए जापान को दुर्लभ खनिजों का निर्यात बंद कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप जापान के इलैक्ट्रॉनिक और वाहन उद्योग घुटनों पर आ गए थे। अब ट्रंप को भी सुलह करने के लिए दक्षिण कोरिया जाकर शी जिनपिंग से मिलना पड़ रहा है।

चीन पर निर्भरता कम करने के लिए अमेरिका, यूरोप और भारत दुर्लभ खनिजों के सुलभ भंडार वाले देशों के साथ समझौते करने और खनिजों का रिसाइकल बढ़ाने के प्रयासों में जुटे हैं। परंतु दुर्लभ खनिजों को खोदना अलग बात है और उनका शोधन व परिष्कार करना अलग। ख़ासकर भारी दुर्लभ खनिजों के परिष्कार के लिए चीन का विकल्प तैयार कर पाना अगले कई साल संभव नहीं लगता।

चीन ने यह एकाधिकार दशकों की कड़ी मेहनत और पर्यावरण की बलि चढ़ाकर हासिल किया है। इसे ऑस्ट्रेलिया, ग्रीनलैंड और यूक्रेन से खुदाई के समझौते करके भी बरसों नहीं तोड़ा जा सकेगा। इससे बेहतर तो यह होगा कि गहन शोध करके इन खनिजों के कृत्रिम विकल्प तैयार किए जाएं। क्या भारत में हर साल तैयार हो रही रसायन शोधकर्ताओं की फौज यह करिश्मा कर पाएगी?

लेखक लंदन स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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