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दुनिया की दुखती रग पर चोट दी ट्रंप ने

विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलने वाला वित्त पोषण नहीं बढ़ता, तो इसकी निर्भरता गेट्स जैसे निजी दानदाताओं पर बढ़ सकती है। संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के स्वतंत्र कामकाज के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं होगी। आलोचकों का मानना है कि निजी...
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विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलने वाला वित्त पोषण नहीं बढ़ता, तो इसकी निर्भरता गेट्स जैसे निजी दानदाताओं पर बढ़ सकती है। संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के स्वतंत्र कामकाज के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं होगी। आलोचकों का मानना है कि निजी वित्त पोषण के साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती हैं, जो बदले में वैश्विक स्वास्थ्य एजेंडे को प्रभावित कर सकती हैं।

दिनेश सी. शर्मा
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अमेरिकी राष्ट्रपति का ओहदा संभालते ही डोनाल्ड ट्रंप ने जिन कार्यकारी आदेशों पर सबसे पहले हस्ताक्षर किए उनमें एक है विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका का हटना। आदेश में दलील दी गई है कि यह निर्णय ‘चीन के वुहान से शुरू हुई कोविड महामारी और अन्य वैश्विक स्वास्थ्य संकटों को ठीक से न संभाल पाना, फौरी तौर पर जिन सुधारों की जरूरत थी उन्हें करने में विफलता और संगठन के सदस्य देशों के अनुचित राजनीतिक प्रभाव से खुद को मुक्त रख पाने में इसकी ‘अक्षमता’ के बाद लिया गया है।’ आदेश में कहा गया है कि अमेरिका चीन जैसे देशों की तुलना में विश्व स्वास्थ्य संगठन को ‘कहीं अधिक’ सहायता दे रहा है– चीन की आबादी 1.4 बिलियन है, लेकिन वह बहुत कम राशि का योगदान करता है। ट्रंप के इस फैसले में न केवल अमेरिका बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा पर दूरगामी प्रभाव निहितार्थ है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रति ऐसी हेठी उनके पहले कार्यकाल के दौरान में भी स्पष्ट थी, जब दुनिया कोविड महामारी की मार से जूझ रही थी। स्थिति को ठीक से न संभालने के लिए उन्होंने इस स्वास्थ्य एजेंसी को सीधे तौर पर दोषी ठहराया था। ट्रम्प ने इसको दिए जाने वाले अमेरिका के अंशदान को ऐसे वक्त पर रोक दिया था जब वह सदी के सबसे बुरे वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल से जूझ रहा था। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका की अंतिम वापसी की प्रक्रिया शुरू कर भी दी थी, लेकिन ऐसा होने से पहले, वे चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गए थे। उनके बाद आए जो बाइडेन ने उक्त आदेश को उलट दिया और डब्ल्यूएचओ को अमेरिका का वित्तीय अंशदान बहाल कर दिया था। अब नए जारी किए गए कार्यकारी आदेश का मतलब है कि अमेरिका एक साल के भीतर संगठन को अपनी वित्तीय सहायता बंद कर देगा। वर्तमान में, डब्ल्यूएचओ के कुल वित्त पोषण में अमेरिका का अंशदान लगभग 18 फीसदी है। दो साल (2024 और 2025) के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का बजट 6.8 बिलियन डॉलर है।

डब्ल्यूएचओ का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, स्वास्थ्य और बीमारियों के महत्वपूर्ण मामलों से निपटने के मंतव्य से एक विशेष संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के रूप में किया गया था। इसे वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और स्वास्थ्य नीति निर्माताओं के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क युक्त एक तकनीकी एजेंसी के रूप में कार्य करने के लिए अधिकृत किया गया था। इसके मुख्य कार्यों में एक है नए पैदा हो रहे संक्रमणों पर निगरानी एवं सूचना साझा करना। दशकों से, इस एजेंसी के काम ने चेचक, यॉस, पीला बुखार, कुष्ठ रोग और पोलियो जैसी बीमारियों के उन्मूलन और नियंत्रण में मदद की है। यूएन एड्स नामक एक नई एजेंसी के माध्यम से इसकी एचआईवी/एड्स पर की वैश्विक कार्रवाई भी उल्लेखनीय रही। अब, इसका ध्यान तपेदिक उन्मूलन पर है।

वर्ष 2000 से नए संक्रमणों के उभरने और पुराने संक्रमण- जैसे कि सार्स, बर्ड फ्लू, एमईआरएस, इबोला, एमपॉक्स और कोविड 19 के लिए उभरने से एजेंसी का काम अधिक ध्यान खींच रहा है। एक वैश्वीकृत, एक-दूसरे से बहुत अधिक जुड़े एवं परस्पर निर्भरता वाले विश्व में, स्वास्थ्य सुरक्षा सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है। डब्ल्यूएचओ से हटने का फैसला वैश्विक समुदाय के अलावा खुद अमेरिका के लिए भी बुरा रहेगा। यह अमेरिका की दवा निर्माता कंपनियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के महामारी, इनफ्लुएंज़ा तंत्र से मिलने वाले रोग के प्रकोप और स्वास्थ्य आपात स्थिति संबंधी महत्वपूर्ण डेटा से वंचित कर देगा। यह निर्णय आगे वैश्विक महामारी संधि और अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन जैसे अन्य तंत्रों में चल रही वार्ताओं से अमेरिका के हटने की राह खोलेगा। डब्ल्यूएचओ के साथ काम कर रहे दर्जनों अमेरिकी विशेषज्ञों को भी वापस बुलाकर अन्यत्र नियुक्त किया जाएगा। दो अमेरिकी संस्थान- सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ- महत्वपूर्ण मुद्दों पर डब्ल्यूएचओ के साथ काफी गहरे तक जुड़े हैं। ऐसी साझेदारियों का खत्म होना परस्पर हानिकारक रहेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए, अपने सबसे बड़े दानदाता का चले जाना एक गंभीर झटका है, वह भी ऐसे समय में जब अन्य देशों का योगदान पहले से ही कम होता जा रहा है। अमेरिका के बाद, अगला सबसे बड़ा दानदाता देश जर्मनी है, जिसका एजेंसी के वित्त पोषण में योगदान लगभग 3 प्रतिशत है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, डब्ल्यूएचओ को कुछ गैर-राजकीय दानदाताओं से मिलने वाले धन में काफी वृद्धि हुई है। बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन इस सूची में सबसे ऊपर है, उसके बाद नंबर आता है यूरोपियन आयोग और विश्व बैंक का। गेट्स फाउंडेशन पोलियो उन्मूलन और टीकों जैसे क्षेत्रों में काम में मदद कर रहा है। यदि अमेरिका द्वारा वित्तीय मदद बंद करने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलने वाला राष्ट्रीय वित्त पोषण नहीं बढ़ता, तो इसकी निर्भरता गेट्स जैसे निजी दानदाताओं पर बढ़ सकती है। संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के स्वतंत्र कामकाज के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं होगी। आलोचकों का मानना है कि निजी वित्त पोषण के साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती हैं, जो बदले में वैश्विक स्वास्थ्य एजेंडे को प्रभावित कर सकती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के कामकाज को और अधिक कुशल, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने के लिए इसमें सुधार की मांग करना जायज है। महामारी के मद्देनजर, भारत ने भी 2020 में जी-20 और ब्रिक्स शिखर सम्मेलन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर इस मुद्दे को उठाया था। भारत का सुझाव है कि डब्ल्यूएचओ को कोविड-19 जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति घोषित करने के लिए वस्तुनिष्ठ मानदंड और मापदंड तैयार करने चाहिए। अन्य देशों ने भी इसी प्रकार की मांग की है। संयुक्त राष्ट्र निकाय होने के नाते, डब्ल्यूएचओ आलोचना के लिए खुला है और सुधारों के विचार को आगे बढ़ाने के लिए मंच मौजूद हैं, लेकिन इसे भंग करना या इसे फंड से वंचित करना समाधान नहीं है। वहीं सुधार संबंधी मांग का जवाब देते हुए, डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि उसने अपने इतिहास में सुधारों का सबसे बड़ा सेट लागू किया है, जिसमें ‘जवाबदेही, लागत-प्रभावशीलता और देशों में प्रभाव’ शामिल हैं।

लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के माहिर हैं।

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