बेवकूफी के स्वर्णकाल में टीआरपी का धमाल
आलोक पुराणिक
दिल्ली में यमुना फिर खतरे के निशान से ऊपर जाकर बाढ़ का खतरा बढ़ा रही है, उधर गुजरात, राजस्थान समेत जाने कहां-कहां बाढ़ आ रही है। यमुना मैया काहे फिर इतना परेशान कर रही हैं।
कहीं बाढ़देव टीआरपी के चक्कर में तो नहीं पड़ गये कि बहुत सही टीआरपी मिल रही है। टीवी न्यूज ड्रामा बन गयी है। घुटनों भर पानी में एक रिपोर्टर डूबने की विफल कोशिश कर रही थी। डूबने से टीआरपी मिल जाती है। दरअसल ड्रामे से टीआरपी मिल जाती है। बहुत संभव है कि किसी एक्टर को बाढ़देव बनाकर टीवी वाले यमुना पुल के नीचे खड़ा कर दें और कहें कि बाढ़देव का इंटरव्यू। बाढ़देव का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, जी उस टीवी चैनल पर जो भानगढ़ किले के भूतों का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिखा चुका है। क्या-क्या देखना बचा है, मेरे मालिक।
एक टीवी चैनल के चीफ से मेरी बात हो रही थी- मैंने कतई मौज में कह दिया कि सीमा हैदर जी करवाचौथ कैसे मनायेंगी- यह सवाल हर टीवी चैनल के लिए गहन चिंता का विषय होगा। बीस टीवी रिपोर्टर तैनात होंगे सीमा-सचिन के घर के पास– अब सीमाजी ने जूड़ा सजा लिया है, अब बिंदी लगा ली है, अब गजरा पहन लिया है, अब उन्होंने गाना शुरू कर दिया है- तुम मिले दिल मिले, और जीने को क्या चाहिए। उधर से सचिन स्लो-मोशन में लहराते हुए आ रहे हैं- कुछ इस तरह की सैटिंग होनी चाहिए।
टीवी चैनल चीफ बोला- तुम बहुत बेहूदा सोचते हो, हमारा टीवी चैनल क्यों नहीं ज्वाइन करते। मैंने उसे बताया कि बेहूदगी की बहुत डिमांड है, मैं बहुआयामी बेहूदा काम करता हूं, सो एक ही जगह तक बेहूदगी सीमित नहीं कर सकता। आइडिया जितना बेहूदा है, उतनी ही ज्यादा टीआरपी आ जाती है।
बाढ़देव भी आयेंगे और सीमा-सचिन की करवाचौथ भी घंटों मनेगी, टीवी चैनलों पर। बल्कि कई चैनलों ने तो अभी से बुकिंग कर ली होगी- सीमा सचिन की, 2014 में वैलेंटाइन डे पर पूरे दिन का शो उन्हें किस टीवी चैनल के साथ करना है। सीमा हैदर भारत में आ गयी हैं, टीवी चैनलों के सेलिब्रेशन का विषय है।
सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही थीं, जब सीमा हैदर देश में दाखिल हो रही थीं- यह सवाल अभी कायदे से किसी ने नहीं पूछा। इस सवाल को पूछने पर टीआरपी न मिलती। न बाढ़ समस्या है, न सीमा हैदर की घुसपैठ समस्या है, समस्या सिर्फ एक है- टीआरपी।
इस मुल्क में व्यंग्यकार के लिए बहुत आफत हो गयी है। जो भी आइडिया व्यंग्य में सोचे जाते हैं, वो सब के सब असली शक्ल ले लेते हैं। व्यंग्यकार कितना भी बेहूदा सोच ले, एकदम सीरियसली ले लिया जाता है- सच्ची-मुच्ची।
इसे व्यंग्य का स्वर्णकाल माना जाये, या बेवकूफी का।