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सब्सिडी कवच लैस अमेरिकी उत्पादों से व्यापार युद्ध

भारत को अपना घर व्यवस्थित करने के लिए कहने की बजाय अमेरिका से अपना कृषि बाजार खोलने के लिए कहने की ज़रूरत है। यह तभी हो सकता है जब अमेरिका से कहा जाए कि पहले वह अपनी कृषि के इर्द-गिर्द...
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भारत को अपना घर व्यवस्थित करने के लिए कहने की बजाय अमेरिका से अपना कृषि बाजार खोलने के लिए कहने की ज़रूरत है। यह तभी हो सकता है जब अमेरिका से कहा जाए कि पहले वह अपनी कृषि के इर्द-गिर्द बनाया अत्यधिक सब्सिडी वाला दुर्ग ढहाए।

देविंदर शर्मा
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जब हाल ही में मैंने पढ़ा कि अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक हैड ने विशेष तौर पर भारत से कहा है कि वह अपना बाज़ार अत्यधिक सब्सिडी प्राप्त अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए खोले, तो इस पर, मुझे विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न के बोल याद आ गए, जो उन्होंने उस समय देश में अपनी यात्रा के दौरान कहे थे, संक्षेप में कुछ यह था ‘मैं सहमत हूं कि अमेरिकी किसानों को जिस मात्रा की सब्सिडी मिलती है, वह एक प्रकार से पाप है, लेकिन यदि भारत अपना बाजार नहीं खोलता, तो यह आपदा का नुस्खा होगा।’

एन्न वेनमैन (जिनका कार्यकाल जॉर्ज बुश जूनियर के समय 2001-2005 तक था) से शुरू होकर कुछ इसी किस्म का दोगलापन अमेरिका के एक के बाद एक आए कृषि मंत्री समय-समय पर दिखाते रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि किस प्रकार उन्होंने वाशिंगटन डीसी में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) में अपने संबोधन में बेशर्मी से विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री की उस मूर्खतापूर्ण दलील (जो कि हास्यास्पद भी थी) का समर्थन किया, जिसमें भारत कृषि मंडी को जबरदस्ती खोलने की बात कही गई थी। दरअसल, एक समय ऐसा भी आया जब अमेरिका के कम-से-कम 14 कृषि फसल निर्यात समूहों ने अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि (यूएसटीआर) को पत्र लिखकर भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के नाम पर फसल-विशेष को दिए जाने वाले मूल्य संरक्षण की ऊपरी सीमा तय करवाने की मांग की ताकि अमेरिकी निर्यात की भारत में राह खुल सके।

इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा शुरू किए गए अवांछित व्यापार युद्ध से मैं हैरान नहीं हूं। यह एकदम जाहिर है कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में लंबे समय तक चली बहुपक्षीय वार्ताओं से जो कुछ अमेरिका हासिल नहीं कर पाया, उसकी प्राप्ति के वास्ते अब ट्रंप की अरबपति मित्र मंडली विकासशील देशों को घुटनों पर लाने की गलत सलाह दे रही है। लेकिन कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं अब अवज्ञा में खड़ी होने लगी हैं, मैं नहीं चाहूंगा कि भारत ऐसा कुछ दिखाए कि यदि उसे कुछ झुकने के लिए कहा जाए, तो ऐसा आभास दे कि वह रेंगने तक को राजी है।

यहां मैं एक और कहानी सुनाना चाहूंगा। कुछ साल पहले, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने टिप्पणी की थी कि चीन के ‘खराब मानवाधिकार रिकॉर्ड’ के कारण अमेरिका उसके साथ व्यापार नहीं करेगा। अगले दिन मैंने संयोग से बीबीसी टीवी चैनल चालू किया, जहां एक पत्रकार तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति से पूछ रहा था : ‘अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा व्यापार रोकने वाली धमकी पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है।’ उनका जवाब भी उतना ही रूखा था : ‘अमेरिका के साथ व्यापार? जब हमने 4,000 साल से ज़्यादा अमेरिका के साथ व्यापार किया ही नहीं, तो इससे अब क्या फ़र्क पड़ने वाला है?’ इस बयान के अगले दिन ही अमेरिकी व्यापार और उद्योग जगत अपने राष्ट्रपति द्वारा चीन के साथ व्यापार बंद करने के आह्वान के विरुद्ध लामबंद हो गया। आखिरकार बिल क्लिंटन को घरेलू उद्योग लॉबी के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने फिर कभी इस मुद्दे को नहीं छेड़ा। नए टैरिफ युद्ध वाले मुद्दे पर फिर से लौटेते हैं, भारत में अमेरिकी कृषि उत्पादों के प्रवेश पर नियंत्रण व्यवस्था होने की वजह से ट्रम्प हमारी आलोचना वैश्विक ‘टैरिफ किंग’ का ठप्पा लगाकर कर सकते हैं (अमेरिका के 5 प्रतिशत आयात शुल्क के मुकाबले भारत का औसतन आयात शुल्क लगभग 39 प्रतिशत है), लेकिन वास्तविकता यह है जो शुल्क भारत ने लगा रखा है, वह विश्व व्यापार संगठन के उस प्रावधान के अनुरूप है जिसमें टैरिफ दर किसी देश के विकास की श्रेणी और व्यापार संहिता में वर्णित ‘विशेष एवं विभेदक व्यव्ाहार’ नामक आकलन के आधार पर है, सनद रहे कि भारत किसी भी अवस्था में विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर रहा। भारत के अपेक्षाकृत उच्च शुल्क उक्त संगठन के नियमन में अंतर्निहित व्यापारिक सिद्धांतों पर आधारित हैं, न कि किसी की व्यक्तिगत सनक अथवा कल्पना से चालित।

दूसरी ओर, वास्तव में समस्या अमेरिका द्वारा कृषि के लिए दी जाने वाली भारी सब्सिडी है। इतनी ज्यादा कि 21 जुलाई, 2006 की फाइनेंशियल टाइम्स में लिखते हुए, यूरोपीय संघ के तत्कालीन व्यापार आयुक्त पीटर मैंडेलसन ने स्पष्ट रूप से कहा कि विकासशील देशों का कहना है कि वे अमेरिका के कृषि उत्पाद अधिक आयात करने को तो राजी हैं, लेकिन अमेरिकी कृषि सब्सिडी नहीं। इस बाबत उन्होंने भारत के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमल नाथ को उद्धृत किया था : ‘हमें अमेरिकी किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कोई एतराज नहीं, लेकिन अमेरिकी खजाने का मुकाबला हम नहीं कर पाएंगे।’ सालों-साल अमेरिका ने अपनी कृषि के इर्द-गिर्द बनाए गए भारी सब्सिडी रूपी सुरक्षा दुर्ग को और मजबूत ही किया है। अमेरिकी कृषि विभाग की आर्थिक अनुसंधान सेवा के अनुसार, किसानों और पशुपालकों को प्रत्यक्ष सरकारी कृषि कार्यक्रम के तहत दी जानी वाली सीधी वित्तीय सहायता 2025 में 42.4 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जबकि 2024 के लिए पूर्वानुमान 9.3 बिलियन डॉलर का था। प्रति किसान गणना के आधार पर, अमेरिका अपने हरेक किसान की 26.8 लाख रुपये सालाना जितनी वित्तीय मदद करता है।

उदाहरणार्थ, विशेष तौर कपास का मुद्दा, जो कि विश्व व्यापार संगठन वार्ताओं में विवाद का एक मुद्दा बना हुआ है। 2021 में अमेरिका में कपास बिजाई के तहत औसत क्षेत्र 624.7 हेक्टेयर था, और इसको उगाने वाले किसान महज 8,103 थे जिन्हें अमेरिका ने अत्यंत भारी-भरकम सब्सिडी दी (जबकि भारत में कपास की खेती में 98.01 लाख किसान लगे थे)। नई दिल्ली स्थित विश्व व्यापार संगठन के अध्ययन केंद्र द्वारा की गई गणना बताती है कि 2021 में अमेरिकी कपास कृषक को 117,494 डॉलर सालाना वित्तीय सहायता मिली, वहीं इसकी तुलना में, भारत में कपास उगाने वाले किसान को महज 27 डॉलर की मदद मिल पाई।

आइए इस पर नज़र डालें कि एग्रीगेट मेज़र ऑफ सपोर्ट (एएमएस) फार्मूला के साथ अमेरिका और यूरोपियन संघ फसल-विशेष की मदद कैसे करते हैं। व्यापार समझौता वार्ताओं के दौरान, अमीर एवं विकसित देश बहुत चतुराई के साथ यह सुनिश्चित करने में कामयाब रहे कि विकासशील देशों के लिए रखी गई 10 प्रतिशत गैर-न्यूनतम सीमा के बनिस्बत अमीर देश अपने लिए उच्च व्यावसायिक मूल्य वाली मुट्ठी भर फसलों के लिए ऊपरी सीमा (5 प्रतिशत अधिकतम) मद वितरित करने में सफल रहे। उदाहरण के लिए कपास का मामला लें। जहां यूरोपीय संघ ने 2006 में कपास के लिए 139 प्रतिशत सब्सिडी सहायता प्रदान की थी, वहीं इससे पांच साल पहले यानी 2001 में, अमेरिका ने विकसित देशों के लिए रखी सीमा के अलावा अतिरिक्त 74 प्रतिशत सहायता अपने कपास किसानों को दी थी।

कृषि आयातों पर कम टैरिफ केवल एक दिखावाभर है कि अमेरिकी कृषि एक खुला बाजार है। लेकिन बारीकी से देखने से पता चलता है कि अमेरिका ने आयात पर नकेल कसने के लिए 9,000 से अधिक गैर-टैरिफ बाधाएं (भारत द्वारा 600 के मुकाबले) खड़ी कर रखी हैं। जब ट्रम्प कहते हैं कि अमेरिका भी दूसरे देश की शुल्क दर के बराबर टैरिफ लगाने जा रहा है, तो भारत के पास भी अपनी खेती की रक्षा के लिए गैर-टैरिफ नाकेबंदी जैसे उपाय करने के वास्ते पर्याप्त गुंजाइश उपलब्ध है।

भारत को अपना घर व्यवस्थित करने के लिए कहने की बजाय अमेरिका से अपना कृषि बाजार खोलने के लिए कहने की ज़रूरत है। यह तभी हो सकता है जब अमेरिका से कहा जाए कि पहले वह अपनी कृषि के इर्द-गिर्द बनाया अत्यधिक सब्सिडी वाला दुर्ग ढहाए।

लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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